करूणावतार, कर्पूरगौर शान्त भोलेनाथ आशुतोष भी हैं और प्रलंयकर रूद्र भी। उनका पवित्र धाम केदारनाथ संसार का संभवतः सर्वाधिक सुन्दर और सर्वोत्तम आध्यात्मिक प्रशान्ति स्थल है। मैंने अदभुत कैलाश के दर्शन सशरीर नहीं किये किन्तु केदारजी को विगत पचास व अस्सी के दशकों में अवश्य देखा है। इतना ही नहीं, केदारेश्वर के सामने बैठकर जलरंगों में सन् 1959 मे मंदिर का चित्र बनाया और वापसी में प्रथम दर्शनस्थल से समग्रघाटी की हिमाच्छादित छवि भी अंकित की थी। लोक संस्कृति संग्रहालय की पुरानी दीर्घा में एक विशाल त्रिआयामी भी समग्र कैलाश घाटी की है। केदारनाथ में सांझ के कोहरे में भी सर्वत्र एक दिव्य आभा दृष्टिगत होती है। मन्दाकिनी भी अपने नाम के अनुरूप अभयदा लगती है। तब अचानक क्या हुआ कि भोलेनाथ प्रलयंकर रूद्र बनकर ताण्डव ही नहीं चण्ड ताण्डव करने को बाध्य हो गये।
लगभग चार वर्ष पूर्व मेरे एक मित्र हल्द्वानी से केदारनाथ यात्रा पर गये थे। वापस आकर उन्होंने बड़ी निराशा के साथ कहा था...'डा0 साॅहब बड़ी ही दुःखद स्थिति है, आप पैदल यात्रा कर ही नहीं सकते, घोड़े खच्चर की लीद के अंबार में...कहीं बूंदाबांदी हो गई तो आपके कपड़े भी गये, अकल्पनीय गंदगी से दम घुटने लगता है। सैकड़ों डोली वालों की धक्कामुक्की में वृद्ध लोगों का संभल पाना भी कठिन हो गया है, बर्बाद कर दिया है केदारनाथ को...'। वस्तुतः गौरीकुण्ड में जो सैकड़ों घोड़े -खच्चर वाले व सहस्त्रों पालकी ढ़ोने वाले थे, उनमें से अधिकांश बाह्यागत थे। काफी समय से संख्याबल के मद में ये बाहरी लोग अराजक माहौल बना चुके थे। देह-व्यापार और मादक द्रव्यों के कारण सारा वातावरण दूषित हो चुका था। इन लोगों में अधिसंख्य हमारे पड़ोसी देश से आये थे, इनका व्यवहार भी 'गोरख्याणी' वाला था। स्थानीय कुछेक वामपंथी नेताओं की लाल झंडा मजदूर यूनियन के बैनर तले बारह जून से इन लोगों ने हड़ताल कर रखी थी। जिस कारण ठौर-ठौर यात्रा मार्ग में तीर्थयात्रियों का भारी जमाव होने लगा था। त्रासदी की रात्रि केदारजी में लगभग तीस हजार लोग थे। बाद में तीर्थयात्रियों से लूटपाट करने वाले यही माओवादी थे।
सन् 2006 में देहरादून में पर्यटन-तीर्थाटन प्रवर्धन पर एक संगोष्ठि हुई थी, मैं भी आमंत्रित था। मुख्य मार्गदर्शक ब्रिटेन से आये एक प्रवासी उद्योगपति थे और प्रतिभागी देहली आदि महानगरों से आये नव धनाढ्य व्यवसायी। संगोष्ठी में पंचतारा होटलों व हवाई सेवा के विस्तार पर ही चर्चा हुई, वह भी सारी अंग्रेजी में। कुछ स्थानीय आगंतुक चुपचाप दर्शक बने थे, मैं भी अवाक था...समापन से पूर्व पीठासीन हेमलता जी ने मेरी ओर देखते कहा...'आप भी कुछ कहिये'...मेरा उत्तर सपाट था...'यह संगोष्ठि क्या केवल उत्तराखण्ड में पंचतारा संस्कृतिऔर हवाई यात्रा के लिये अति धनाढ्य वर्ग हेतु हो रही है या पैदल चार धाम यात्रा करने वाले निर्धन श्रद्धालुओं के लिये तथा उनसे जुड़े स्थानीय लागों के लिये भी। चिकने-चुपड़े टाईबाजों ने मानो हिकारत से घूरते हुये पूछा कि यह गंवार मूसलचन्द कहां से आ गया जो इतनी हाईटैक संगोष्ठि में जमीनी यात्रा की वकालत करता है, संगोष्ठि बढ़िया लंच के साथ समाप्त हो गई। पिछले कुछ वर्षों में इसी हाईटेक संगाष्ठि का कार्यान्वयन हुआ और प्रदेश के वर्तमान कर्ताधर्ता इसी माफिया और अपसंस्कृति के संरक्षक हैं। तभी आपदा टूटने पर उन्हें हाईकमान के पास जाना सुविधाजनक लगा न कि विपदाग्रस्तों को त्वरित मदद पहुंचाना। यदि तीन दिन बाद भी हमारे योद्धा-जवान उद्धारक बनकर नहीं आते तो मौतों का आंकड़ा एक लाख पार कर जाता। सेना के जवानों के बाद दूसरे स्थान पर संघ के वे 1035 मूक कार्यकर्ता थे जिनके पास सिवाय साहस के और कोई संसाधन नहीं थे। तब भी उन्होंने 4115 यात्रियों को मौत के मुंह से निकाला। 61396 लोगों को 21 स्थानों पर भोजन उपलब्ध करवाया, 13010 लोगों की आवासीय व्यवस्था की, 3510 लोगों को चिकित्सा सेवा दी तथा 13879 लोगों को वार्ता सुविधा प्रदान की। इसके अलावा विश्व हिन्दु परिषद ने छः स्थानों पर कैम्प लगाकर 50 हजार लोगों को भोजन, 5500 सौ लोगों को आवास, छः हजार लोगों को चिकित्सा व पांच हजार को निःशुल्क बस-रेल सेवा का प्रबन्ध किया। अन्य हिन्दु संगठनों के कार्यकर्ताओं ने अपने-अपने स्तर पर सेवाकार्याें में भागीदारी निभाई, जिनका कोई सरकारी आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। मीडिया ने लूटपाट की घटनाओं को अधिक प्राथमिकता दी बजाय स्थानीय नागरिकों के सर्वस्व त्याग की। त्रिजुगीनारायण जैसे दुर्गम एकाकी गांव में भी लगभ्ग 1100 लोगों को कई दिन तक अपने घरांे में आवास व भोजन प्रदान किया, जब तक कि एक भी अन्न का दाना उनके पास बचा था। गोचर, बद्रीनाथ आदि अनेक स्थानों पर लोगों ने लंगर लगाये जिनमें भोजन बनाने का अधिकतम जिम्मा माताओं का था। इस त्रासदी का सर्वाधिक दुःखद पक्ष रहा 127 पुजारियों की मृत्यु, अस्सी विद्यार्थियों की अभिभावक हीनता, अनगिनत सद्य विवाहितों का वैधव्य, विवाह योग्य कन्याओं का अनाथ होना और सैकड़ों बच्चों का पूरा परिवार उजड़ना...जो भी अपूर्ण जानकारी मिली हैउसके अनुसार एक दर्जन से अधिक गांवों का अस्तित्व ही मिट गया है। कितनी आसन्न प्रसवा मातायें मरीं, कितने हजार पशु मरे, कितने पुल-खेत बहे और कितने सहस्त्र संपर्क मार्ग ध्वस्त हो गये, इसकी सही जानकारी शायद ही कभी मिल सके। यह त्रासदी उसी हाईटेक मानसिकता की देन थी जिसने नदियों के ऊपर बहुमंजिले होटल बनाये, पहाड़ों में सुरंगें खोदीं, बांध बांधे और देवीभूमि को दुधारू भैंस की तरह दुहा।
केदारनाथ कब तक समाधिस्थ रहते? कई दशकों से चार धाम ही नहीं हर हिन्दु मंदिर के चढ़ावे का खरबों रूपया जजियाकर के रूप में केन्द्र सरकार वसूल कर विधर्मियों को धार्मिक हवाई यात्रा मुहय्या करवा रही है। पुजारियों के हक का पैसा सात लाख मौलवियों को वेतन के रूप में दिया जा रहा है। कैलाश मानसरोवर जेसी दुर्गम यात्रा में भी कोई सरकारी रियायत नहीं दी जाती। हिन्दु देवी-देवताओं, धार्मिक स्थलों, आस्थाओं और भावनाओं का कांग्रेसी सरकार की दृष्टि में कोई मूल्य नहीं है। स्वामी चिन्मयानंद, योगी आदित्यनाथ व अशोक सिंहल जी से लेकर अर्थशास्त्री झुनझुनवाला तक सभी जानते हैं कि वर्तमान त्रासदी का प्रमुख कारण धारित्री देवी (श्री धारी देवी) के विग्रह पर आरी चलाने के दुष्कृत्य से जुड़ा है। आस्था के मूल्य पर भौतिक विकास, विनाश ही लाता है। गांधी जी की भष्मी डालने से 'चोरावारी ताल' तो गांधी सरोवर अवश्य बन गया किन्तु इससे संभवतः प्रथम बार केदार जी की शुचिता पर आंच आई थी। नेहरू जी की भष्मी भी हर पवित्र स्थल पर, हिमालय में और लहलहाते खेतों में हवाई जहाज से छिड़की गई थी...तब लोहिया जी ने कहा था...'पण्डित जी अपनी अकूत संपदा तो अपनी पुत्री को दे गये और राख देश को, जहां भी यह गिरी, वहां सूखा पड़ा।' मुक्ति तो भक्ति और ज्ञान से मिलती है, देहावशेषों को पवित्र स्थलों या देवनदी में डालने से नहीं। इसीलिये मुझे उन संन्यासियों की बुद्धि पर भी तरस आता है जो महात्माओं की देह को गंगाजी में जलसमाधि देते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने उचित ही कहा था कि हमने 'हर की पैड़ी' को 'हाड़' की पैड़ी बना दिया है।
आस्था से जुड़ा एक और प्रश्न हमें बेचैन कर सकता है कि सहस्त्रों आस्थावान तीर्थयात्रियों को ऐसी भीषण त्रासदी भगवान ने क्यों दी? वे तो देश के कोने-कोने से उत्तराखण्ड के तीर्थों में पूजा-अर्चना के लिये अपनी गाढ़ी कमाई से बचाये पैसों से कष्ट झेलते हुये भगवान के दरबार में आये थे। यह सत्य है कि धार्मिक वृद्ध स्त्री-पुरूष जीवन के अवसान काल में तीर्थस्थलों पर पूर्ण श्रद्धा व भक्ति के कारण ही आते हैं, उन्हें भगवान की ओर से सहायता मिलनी चाहिये थी मृत्यु नहीं। मैंने ऐसे ही बड़भागी तीर्थयात्रियों के बारे में सुना है जो बदरीश के दर्शन कर हर्षोल्लास में देह त्याग देते हैं। मुझे पीपलकोटि में एक वृद्ध यात्री मिला था जिसको चार दिनों से अन्न नहीं मिला था। उसको जब मैने भोजन कराया तब पता चला कि वह भूखे पेट यात्रा कर रहा है, इस दृढ़ विश्वास से कि बद्रीविशाल की आज्ञा नहीं थीं, इसलिये अन्न नहीं मिला। ऐसी दृढ़ आस्था वाले यात्री इस बार भी आये होंगे, अतः ऐसे निर्दाेष लोगों की दुर्गति स्वयं ईश्वर के प्रति आस्था डिगा देती है। इधर कुछ वर्षों से तीर्थस्थलों में आने वाला एक अन्य वर्ग भी है जो या तो हनीमून मनाने या सपरिवार तफरी करने अथवा सरकार से मिली वार्षिक भ्रमण सुविधा का उपयोग करने धार्मिक स्थलों पर जाता है। यह युवा वर्ग है साधन सम्पन्न। अपनी लग्जरी गाड़ियों में सारा खाद्य-अखाद्य भर कर लाता है। पति को अपनी इच्छा से नचाने वाली युवतियां अबोध बच्चों तक को लाती हंै। यात्रा पड़ावों में मांस-मछली और दारू खुले बिकती है। इस बार जो सैकड़ों बच्चे काल कवलित हुये या जो अनगिनत लोग अपने बच्चों को बचाने में बहे, उसका कारण भी यही रहा। स्थानीय बच्चों का भी नुकसान हुआ पर केवल उनका जिनके गांव तबाह हुये या जो आजीविका हेतु रामबाड़ा जैसे पड़ावों पर आये थे। तीर्थयात्रा की सनातन संयमयुक्त परिपाटी अब क्रमशः बदलने लगी है क्योंकि हमने तीर्थाटन और पर्यटन को एक मान लिया है।
इस त्रासदी ने जो मुख्यतः मन्दाकिनी घाटी में तथा परोक्षतः अलकनंदा, भागीरथी, उनकी सहायक नदियों और सरयू, गौरी व काली घटियों में प्रलय लायी थी, कांग्रेस दल के हाईकमान, उसकी केन्द्रिय सत्ता से लेकर राज्य के नेता, मंत्रियों, शासकों-प्रशासकों तक, सभी को बेनकाब कर दिया। इतनी बड़ी आपदा को गंभीरता से आरंभ में नहीं लिया गया, आपदा प्रबंधन कहीं था ही नहीं। जब आसन्न चुनावों का जिन्न मानस में उतरा तो हरकत हुई। सेना को आदेश मिला और मंत्रीगण राहत सामग्री व संकटग्रस्त लोगों को बचाने में लगे चाॅपरों में चमचमाती पोशाकों में स्वयं हवाई सर्वेक्षण करने लगे। राहत सामग्री कांग्रेस के अपराधी पंजे और मां-बेटे के चित्रों वाली प्रचार सामग्री के पैकिटों में आई। जिन ट्रकों को भेजा गया उन्हें देहरादून-हरिद्वार तक का ईंधन दिया गया, आगे का नहीं। पूरे भारत से आई जीवनरक्षक सामग्री को महानगरों की मलिनबस्ती में कांग्रेस के प्रचारार्थ बांटा गया, बजाय जरूरतमंदों तक पहुंचाने के। अधि- कारियों ने अपना 'केसरी भाग' निकाला। गुजरात से आई बहुमूल्य सामग्री को 'भाजपा वाली' मानकर बंटने ही नहीं दिया गया और न नरेन्द्र मोदी को खंडूरी जी के साथ दुर्गम स्थानों में फंसे यात्रियों से मिलने दिया गया। 'राजकुमार' के शाही कैम्प के लिये भारत तिब्बत सीमा संगठन के कैम्प को खाली कराया गया। मोदी जी के केदार जीर्णोद्धार के आवेदन को भी ठुकरा दिया गया। संपर्क मार्ग टूटे अवश्य थे किन्तु बाहर से आई सामग्री से भरे ट्रकों को यह बताने वाला भी कोई नहीं था कि सामग्री को राज्य के किस हिस्से में पहुंचाना है, मुफ्त सरकारी राशन कई जगह बदबूदार निकला। लक्सर में एक बहुजन समाज व्यापारी ने एक हजार बोरी राशन अपने घर में छिपा लिया। सवा लाख से ऊपर आये यात्रियों की कहीं सूची तक न थी। पूरी यात्रा को सदा की भांति बिना किसी पूर्व तैयारी और जिम्मेदारी के आयोजित किया गया। वस्तुतः केन्द्र और राज्य सरकार से पुनर्वास, पुनर्निमाण और मुआवजे के रूप में जितनी राशि अभी तक मिली है, या घोषित हुई है, वह उस राज्य के मुकाबले कहीं नगण्य है जो सरकार ने धार्मिक स्थलों के चढ़ावे को जबरन लेकर बटोरी है। देश की कई राज्य सरकारों ने उदार राहत राशि भेजी, यहां तक कि तिब्बत की निर्वासित सरकार ने ने भी तीन लाख रूपये मुख्यमंत्री राहत कोष में भेजे। कच्छ के लोहा-पाटिल समाज ने चालीस लाख रूपये की प्रथम सहायता राशि दैवी आपदा पीड़ित समिति को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के माध्यम से भेजी। संघ ने ही कई करोड़ की राहत सामग्री उत्तराखण्ड पहुंचायी जब कि कुकुरमुत्तों की तरह उगे सहस्त्रों स्वयं सेवी संस्थाओं का आपदा राहत में क्या योगदान रहा, पता नहीं? एक ओर सर्वशक्ति संपन्न सरकारी तंत्र मुफ्त उपलब्ध नित्योपयोगी राहत सामग्री को जरूरतमंदों तक नहीं पहंुचा पाया, वहीं दूसरी ओर विपन्न उत्तरांचल की पुरसाड़ी, तैफना, सुनाली, राजबगड़ी, मंगरौली, भ्यूलाबगड़, कंडारा, चमोली, गोचर आदि ग्रामों की मातायें अपनी धान रोपाई छोड़कर घरों से बीस-बीस किमी पैदल चलकर अनाज लाईं और तीन-तीन शिफ्टों में प्रातः चार, दस और सांय चार बजे तैयार खाद्य बनाकर अपने ही संसाधनांे से चमोली आदि स्थानों पर फंसे अनजान तीर्थ यात्रियों के प्रति अपना कर्तव्य समझकर अन्नपूर्णा का धर्म निभाती रहीं। ऐसी देवियों के कारण ही उत्तराखण्ड का देवीभूमित्व आज तक जीवित है।
अंततः हम अदूरदर्शी मानव, त्रिकालदर्शी परमसत्ता के खेल को कैसे समझ सकते हैं? यह त्रासदी अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण थी किन्तु यदि हम यह श्रद्धापूर्वक मान लें कि 'ईश्वर जो करता है अच्छे के लिये करता है' तो अप्रिय और अग्राह्य होते हुये भी हमें हर त्रासदी से शिक्षा लेनी होगी। हम अपने स्वार्थवश उत्तराखण्ड को विनाश के कगार पर स्वयं ही लाये थे। केदारघाटी आज एक सौ वर्ष पूर्व वाली निस्तब्धता को प्राप्त हो चुकी है, हमंे इस विनाश पर विवेकपूर्ण नवसृजन करना है। हमें तीर्थस्थलों पर हवाई यात्रा व घोड़े-खच्चरों की यात्रा पर पूर्ण रोक लगानी होगी। बहुमंजिले होटलों के बजाय हल्की धर्मशालाओं का निर्माण करना होगा, सारे यात्रा मार्गों पर केवल शाकाहारी भोजन की अनुमति देनी होगी। हर दस किमी पर टिनशेड की धर्मशालायें बनवानी होगी जिनमें दस-बीस रूपये देकर सामान्य यात्री भी रात्रि गुजार सकें, जैसा कि कभी बाबा काली कमली वाले और जसूली बूड़ी ने यात्रा मार्गों में धर्मशालायें बनवाईं थीं। पवित्र धामों के कपाट खुलते समय नेताओं, राज्यपालों या भ्रष्ट मंत्रियों को भगवान से अधिक महत्व नहीं देंगे, ऐसी हमको प्रतिज्ञा करनी होगी। हमारे तीर्थरक्षक पंडों-पुरोहितों को सजग व जुझारू होकर तीर्थों के चढ़ावे पर सरकारी डाका न पड़ने पावे, इसके लिये संगठित होकर प्रयास करने होंगे। हिन्दु मंदिरों की आमदनी हजारों वर्षों से मंदिरों को जीवन्त रखने वाले परिवारों व तीर्थयात्रियों को सुविधा देने में ही व्यय हो। बड़े बांधों की सभी परियोजनायें निरस्त हों, मंदिर परिसरों से बस्ती दूर बनाई जाये, ऐसी योजना बने। उत्तराखण्ड की जमीन, जल, जंगल व जवानी को शोषणमुक्त करने के लिये अविलम्ब कश्मीर हिमाचल तथा शेष हिमालयी राज्यों की भांति भूमि की खरीद-फरोख्त और मुक्त आब्रजन पर पूर्ण रोक लगे। पहाड़ों पर खनन व नदियों पर तथा- कथित चुगान बिलकुल रोकी जाये। केदारेश्वर के इस लघुताण्डव को हम समझें, इससे सीखें और वर्तमान की सर्वभक्षी वृत्ति पर अंकुश लगायें अन्यथा इससे भी कहीं भीषण त्रासदी से हम बच नहीं सकते।
इस त्रासदी में आधुनिक दधीचि स्व0 बुद्धिबल्लभ भट्ट के आत्मोत्सर्ग को हम श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं जिसने मात्र बाईस वर्ष की अल्पायु में सव सौ लोगों को अस्थाई पुल से सोनगंगा पार करवा कर अपने प्राणों की आहुति दे दी। सेना के उन जांबाज वीरों को जो राहत कार्य में वीरगति को प्राप्त हुये, हमारी सादर श्रद्धांजलि है। उन सहस्त्रों अनाम तीर्थयात्रियों, पुजारियों व ग्रामवासियों की आत्मा की शिवलोक में शाश्वत शान्ति हेतु प्रभु से अश्रुपूर्ण प्रार्थना है। उन स्नेहमयी माताओं का जिन्होंने आतिथ्य धर्म का सर्वोच्च उदाहरण प्रस्तुत किया। संघ तथा अन्य धार्मिक संगठनों का, स्थानीय लोगों का जिन्होंने कभी-कभी तो सौ-सौ किमी0 की पैदल जोखिम भरी यात्रा कर आपदा को कम करने में मदद की और उत्तराखण्ड की आपदा को निजि आपदा मानते हुये नाना प्रान्तों के दान दाताओं का कृतज्ञता पूर्ण स्मरण...।
केदार त्रासदी का शवोच्छेदन