खो गया है मेरे गाँव का बसन्त


बसन्त के आते ही कभी मेरे गाँव का  सारा जन-मानस उमंगित हो उठता था। बसन्त पंचमी को मुँह-अंधेरे मेरे गाँव के औजी प्रत्येक गृहस्वामी के द्वार पर जौ के पौधे गाय के गोबर के साथ थाप दिया करते थे और प्रत्येक घर को प्रसाद के रूप में गुड़ वितरित करते थे, जिसे प्रत्येक परिवार के लोग शिरोधार्य कर आदर के साथ ग्रहण करते थे। रात्रि में गाँव के मण्डाण में एकत्रित होकर सभी स्त्राी-पुरुष और बच्चे टोलियों में लोक नृत्यों के साथ नृत्यमय हो जाया करते थे। लोक गायन और लोक नृत्यों का यह क्रम बैसाखी तक चलता रहता था। बैसाखी के दिन हमारे गाँव में हेंवल व बशिष्ठा नदी के संगम पर त्रिवेणी का मेला रात्रि को आयोजित किया जाता था। आस-पास के गाँवों के युवक-युवतियों की पगध्वनियों तथा स्वर लहरियों से यह संगम भोर तक गंुजित होता रहता था और सुबह होते ही संगम में पवित्रा स्नान और देव दर्शन के उपरान्त लोग अपने-अपने घरों को प्रस्थान करते थे। मेले के आयोजन के लिए न कोई कमेटी होती थी, न कोई पुलिस-पटवारी की व्यवस्था। सब कुछ स्वतःस्पूर्फत व स्वव्यवस्थित होता था।  स्थानीय रूप से इस स्थान को बशिष्ठाश्रम के नाम से ही जाना जाता है। इस स्थान की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में एक रोचक पहलू मुझे अपने गाँव के पुराने लोगों की जन्म-पत्रिकाओं में उनके स्थान के भौगोलिक विवरण में पढ़ने को मिला है- 'केदारखण्डे-बद्रीकाश्रमे रामराज्ये अलकनन्दा भागीरथी तीर्थे गंगासलाणयोर्मध्ये बशिष्ठाश्रमे रामराज्ये अजमीर मण्डले....' स्पष्ट है कि प्राचीन काल से इस स्थान की भौगोलिक पहचान जनमानस में पट्टी अजमीर या अजमेर वल्जा के अन्तर्गत वशिष्ठाश्रम के रूप में रही है। महाकवि कालिदास के काव्यों में वर्णित स्थानों की भौगोलिक पहचान पर खोज करने वाले विद्वानों ने वशिष्ठाश्रम को कण्वाश्रम से आगे मारीच आश्रम के निकट स्थित होना इंगित किया है, वर्तमान समय में जनपद टिहरी गढ़वाल की हेंवल घाटी में वशिष्ठाश्रम स्थित माना गया है। इस सम्बन्ध में और अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि आज का महाबगद ही प्राचीन मारीच आश्रम था। बहरलाल यह तो इतिहास भूगोल की बाते हैं। यहाँ पर मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि कभी मेरे गाँव में बसन्त गमक के साथ आता था जिसकी खेतों तथा जंगलों तक धमक दिखलायी देती थी। हरे-भरे गेहूँ-जौ के खेतों के बीच सरसों के खिले हुए पीत-पुष्प धरती पर काव्य सृजन करते दिखते थे। मेहळ, दाड़िम, आडू, पलास टेसू अमतलास के वृक्ष मानेां प्रकृति का मंगलाचरण गा रहे हों। गाँव की चारों दिशाओं में अवस्थित आम के बड़े-बड़े वृक्षों पर लदी बौरों पर  मँडराते भ्रमर मानों नव-प्रभात की भैरवी गा रहे हों तथा स्थानीय पादप बंसीगा के सपेफद पुष्पों से मधु एकत्रित कर रही भ्रमरावालियां मानों काव्य पाठ कर रही हों।
कुल मिलाकर अपने स्कूली जीवन में अपने गाँव में इस रूप में बसंत को आते देखा करता था, जिसकी स्मृति को आज तक भूल नहीं पाया हूँ और यही स्मृति बार-बार अपने गाँव जाने के लिए प्रेरित करती रहती है। मैं जब-तब झोला उठाकर अपने गाँव चल देता हूँ, लेकिन मुझे अब स्कूली दिनांे की वह बसन्त की गमक दूर-दूर तक कहीं दिखायी नहीं देती। गाँव के मण्डाण अब नहीं सजते। अंधेरा होते ही मानव भक्षी गुलदारों, बाघों के भय से लोग अपने घरों में दुबक जाया करते हैं। गाँव की उत्सव धर्मिता पर शराब ने ग्रहण लगा दिया है। हमारे गाँव का वह बैसाखी का त्रिवेणी मेला शराबियों और मानव-भक्षी जन्तुओं के आंतक से रात को नहीं सजता। केवल सुबह लोग स्नान करने और देव-दर्शन के लिए ही आ पाते हैं। गाँव में शादी-विवाह के समारोह भी दिन के दिन ही निबटा लिए जाते हैं। स्थानीय जैव विविधा लांैटिना की झाड़ियों मंे नष्ट हो गयी है। स्थानीय पादप बसंगी गायब हो गया है। इस पौधे की कलियां अकाल के समय पेट पालने का आसरा भी बनती थीं, गरीब लोगों के, गाँव के सवर्ण असवर्ण के बीच लोहार बाडा और दर्जी काका के सम्बोधन में अपनापन नहीं रह गया है। औज्याण बौ के साथ हंसी-मजाक तो इतिहास के गर्त में दपफन हो चुकी है। जजमान-ब्राह्मण के बीच पाय लांगू और आशीर्वचन के शब्द राजनीति के ख-ब में खो गये हैं। गाँव की पगडंडियों से उतर कर यहाँ देहरादून मंे मैंने भी मजबूती से इस कथन का अनुसरण करने का प्रयास किया कि तुम अपनी भाषा-संस्कृति का आदर करो, लोग तुम्हारा आदर करेंगे। छात्रा संगठनों, गढ़वाल रामलीला परिषद, पर्वतीय विकास और अखिल गढ़वाल सभा में अपना पूरा जीवन अर्पित कर दिया। गढ़वाल सभा में भाषा, संस्कृति की बात तो की जाती है, लेकिन अखाड़ेबाजी की तहत। शायद यह महसूसने के बाद ही 'हलन्त' के सम्पादक को दिसम्बर अंक में संस्कृति को लेकर एक अप्रिय शीर्षक के अन्तर्गत अपनी बात कहनी पड़ी है। गढ़वाल सभा की कार्यकारिणी में लगातार 23 वर्ष सेवा करने के बाद मेरा भी कुछ ऐसा हीे अनुभव रहा, जिसे श्री शाक्त ध्यानी ने व्यक्त किया है।
आज संस्कृति के अनुरक्षण के लिए राज्य की राजधानी में बड़े-बड़े मंच सजाये जाते हैं। बड़ी-बड़ी घोषणाएं की जाती है। लाखों रूपए के वारे-न्यारे किये जा रहे हैं। बाकायदा संस्कृति की रक्षा के लिए कुछ लोगों की लम्बी-चैड़ी पंक्ति खड़ी की गयी है। एक अदद लाल बत्ती भी संस्कृति की चिन्ता में राजधानी की सड़कों पर दौड़ रही है, लेकिन वास्तव में यह सब प्रयास संस्कृति की उस गंगोत्राी को बचा पाने में समर्थ हो पाएगा, जो अपने उद्गम में ही सिकुड़ रही है? या उस गंगोत्राी को भी प्रदूषित कर देगा जिसका गात प्रदूषण से पहले ही शोकाकुल है। जिन लोगों ने अपने कंधों पर संस्कृति की रक्षा का भार ओढ़ा है। उनसे यही निवेदन है कि वह पहाड़ की संस्कृति को अर्थोपाजन हेतु गणिका बनाने के स्थान पर उसकी आत्मा की शुचिता के लिए उन गाँवों की ओर ध्यान दें जहाँ संस्कृति की आत्मा बसती है। ु