खोजना होगा तेल अर्थव्यवस्था का विकल्प

अब यह कहना कि भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्णतः कच्चे तेल पर   आधारित हो चुकी है बिलकुल भी अतिश्योक्ति नहीं होगा।  मशीनीकरण के इस आधुनिक युग में लगभग सभी उत्पादन-क्षेत्र ऊर्जा-आधारित है। भारत में ऊर्जा का प्रमुख स्रोत 'पेट्रोलियम पदार्थ' है। 'पंचलाईट' से लेकर सुपरसोनिक हवाई जहाज और अंतरिक्षयान तक लगभग सभी उपकरणों में ईंधन के रूप में पेट्रोलियम पदार्थ का ही उपयोग होता है जिसका सरोकार समाज के हर तबके से है। इसलिए हम कह सकते है कि वर्तमान समय में तेल रूपी 'विश्व-मोहिनी' से प्रभावित होकर महंगाई सुरसा  की भांति अपना मुंह दिन-प्रतिदिन फैलाकर बढ़ाये जा रही है। जिसकी मार से आम आदमी त्रस्त है, और सरकार विश्व-पटल पर तेल के दामों में बढ़ोतरी को जिम्मेदार ठहराकर अपना पल्ला झाड़ लेती हैं। परन्तु जबसे यूपीए सरकार ने पेट्रोल की कीमतों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया है आये हर दूसरे-तीसरे महीने निजी कम्पनियाँ मनमानी ढंग से तेल की कीमतों में इजाफा किये जा रही है। ज्ञातव्य है कि पिछले साल पेट्रोल के दामों मे लगभग आठ रूपये से भी अधिक तक का इजाफा किया गया। इसका कारण निजी कम्पनियाँ  अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की लगातार बढ़ती हुई कीमत बताती हैं। गौरतलब है कि वर्तमान में कच्चे तेल की कीमत १२१ यूएस डॉलर प्रति बैरल से भी अधिक है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में लगातार हो रहे इजाफे के भी मुख्यतः कई  कारण हैं जैसे चीन और भारत जैसे देशों की अर्थव्यवस्था में तेल की मांग में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी, तेल-उत्पादक देशो जैसे अरब देश, लीबिया आदि में हो रही राजनैतिक अस्थिरता और वहां उपजे जन असंतोष, तेल-भण्डार में हो रही निरंतर कमी, सटोरियों का दबदबा इत्यादि। 
 अर्थशास्त्र का एक सिद्धांत है कि मांग और आपूर्ति का समीकरण ही किसी भी वस्तु के  मूल्य को प्रभावित करता है।  दुनिया के लगभग सभी देश अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से रखने के लिए कच्चे तेल पर निर्भर है। कच्चे तेल की मांग में लगातार जिस अनुपात में इजाफा हो रहा है उस अनुपात में आपूर्ति में इजाफा न होना तेल-मूल्यों की लपटों को गगनचुम्बी बना रहा है। परन्तु तेल-आपूर्ति बढाकर इस समस्या से तात्कालिक निजात पाया जा सकता है जैसा कि भारत ने जून २०११ में करके दिखाया था।  ज्ञातव्य है कि २५ जून २०११ से अगले तीन दिनों तक भारत ने तेल-आपूर्ति को बढ़ा दिया था जिससे कि तेल के दामों में कुछ गिरावट आई थी हालाँकि बाद में कीमत फिर से उछल गयी थी।  परन्तु तेल-इतिहास यह कहता है कि मात्र तेल-आपूर्ति से इस गगनचुम्बी आग पर दीर्घकाल के लिए निजात पाना संभव नहीं है। इसलिए हमें तेल की मांग पर भी अंकुश लगाना ही होगा। २००८ के बाद एक ऐसा समय भी आया था जब तेल-मूल्य घटकर ३० डॉलर प्रति बैरल तक आ गया था! यह चमत्कार कोई रातोरात नहीं हो गया था। तेल-मूल्य को नीचे लाने में मुख्यतः यूरोप और अमेरिका की आर्थिक मंदी जिम्मेदार थी। आर्थिक मंदी होने के कारण उन देशों में करों की बिक्री कम हो गयी,दूसरे देशों से आने वाली वस्तुओं की खरीदारी भी कम हो गयी और  जहाजांे ने भी उड़ान भरना कम कर दिया था। परन्तु अब पुनः एक बार फिर से तेल की मांग जोरों पर है। जनवरी २०१२ को लन्दन में आयोजित  मेना, डम्छ। अर्थात् मध्य पूर्व और उत्तर अफ्रीका आधारित दो दिवसीय सेमीनार में ओपेक-सेक्रेटरी जनरल ने बताया कि कच्चे तेल की वैश्विक मांग २०११ में ८८ मिलियन बैरल  प्रतिदिन थी जिसके २०१५ तक ९३ मिलियन बैरल  प्रतिदिन, २०३५ तक ११० मिलियन बैरल  प्रतिदिन तक बढ़ने की सम्भावना है। अगर मांग की इसी अनुपात में तेल-उत्पादन और उसकी आपूर्ति नहीं की गयी तो आने वाले समय में एक बार फिर समूचे विश्व की अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी।  
ईरान जैसा देश जहां पेट्रोलियम-पदार्थ प्रचुर मात्रा में  उपलब्ध है उसने भी ऊर्जा के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी कदम उठाकर समूचे विश्व को अचम्भित कर दिया।  ज्ञातव्य है कि अभी हाल ही में कुछ दिनों पूर्व ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम को अमेरिका के लाख विरोध के बाद आगे बढ़ाते हुए नाभिकीय-ऊर्जा से विद्युत् उत्पादन के लिए ईरान के राष्ट्रपति ने परमाणु-सयंत्र का उद्घाटन किया और विश्व को दिखाने के लिए उसका टेलीकास्ट भी कराया। इसके साथ-साथ ईरान ने यूरोप के छहः देशों इटली, फ्रांस, स्पेन, ग्रीस, नीदरलैंड, पुर्तगाल को तेल बेचने से भी मना कर दिया। गौरतलब है कि इन देशों की पहले से ही अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं है। तेल न मिलने से इन देशों के अर्थव्यवस्था और खराब होगी। अमेरिका की भी अर्थव्यवस्था पहले से खराब है। अमेरिकी जनता महंगाई, बेरोजगारी के खिलाफ आन्दोलनरत् है। समूचा विश्व मुख्यतः विकसित देश तेल पर अपना आधिपत्य जमाने के लिए किस हद तक संघर्षरत है इसका अंदाजा उनकी विदेश नीति को देखकर लगाया जा सकता है।  वैसे तो तेल पर आधिपत्य को लेकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही कई देशों के बीच होड़ लग गयी थी। 
अमरीका  अपनी नजर काकेशिया और कैस्पियन इलाके के तेल भण्डार रूस , ईरान, ईराक तथा सोवियत संघ के विखंडित हिस्सों में जो बड़े पैमाने पर मौजूद थे पर गडाए हुए था। इसकी पुष्टि अभी हाल ही में हुए एक घटनाचक्र से लगाया जा सकता है। गौरतलब है कि अमरीका ने अपनी  सैन्य कार्यवाही में लादेन और तालिबान के कट्टर हिस्से को खत्म कर वहां अपनी मनमाफिक सरकार को स्थापित किया जिससे अमेरिका ने न केवल अपने तात्कालिक लक्ष्य को पूरा किया अपितु उसके दूरगामी लक्ष्य यानी अफगानिस्तान के माध्यम से यूरेशियाई-हृदय क्षेत्र अर्थात तेल निर्यातक क्षमता वाले छोटे-छोटे देशों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण की राजनीतिक पृष्ठभूमि भी बना ली। इसलिए अमेरिका अब उज्बेकिस्तान, तुर्की, पाकिस्तान, अफगानिस्तान इजराइल तथा पश्चिमी देशों के साथ मिलकर  एशिया के चारांे शक्तिशाली देश जिसमंे रूस, चीन, भारत और ईरान शामिल हंै के विरुद्ध समीकरण बनाने में जुट गया है। शंघाई-५ (रूस, चीन, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, और किरगिस्तान ) की स्थापना तथा इस समूह की ईरान के साथ मित्रता और ईराक के प्रति सहानुभूति एवं भारत-रूस की बढ़ती मित्रता ने अमेरिका के समीकरण-संतुलन को असंतुलित कर दिया।  अपने समीकरण को संतुलित करने के लिए अमेरिका ने उज्बेकिस्तान से रक्षा- संधि कर ली। इस प्रकार दुनिया के अब सभी देश अपनी विदेश नीति को तेल-केन्द्रित कर रहे है। भविष्य में भारत की विदेश नीति का ऊँट किस करवट बैठेगा यह कहना मुश्किल है परन्तु संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को तेल-आधारित से मुक्त करना होगा तथा उसका विकल्प खोजना ही होगा।