कुकुर संस्कृति

उस समय के कस्बों की परिधियां भी गांवों की तरह बसंत की सूचनायें लाती थीं। फूल न भी हों पर इधर पर्व, स्नानों के कारण आते-जाते श्रद्धालु जन बसंत के सौरभ से मन भरते थे। मंदिर, घाटों से अर्चना के थाल, रोली-तिलक लगाये माथे आसपास के पूरे वातावरण को ही धार्मिक बनाते थे...अब तो कांग्रेस पार्टी और उसका मीडिया हिन्दुओं को देख कर ही साम्प्रदायिक-साम्प्रदायिक चिल्लाने लगता है। बहरकैफ...आजकल यदि आप घर से बाहर निकलंे...तो हाई-क्लास कुकुरों के मल की बदबू नाक से टकराती है...इन कुकुरों के गले के पट्टे, उनकी चेन-कोट,पतलून इतने मंहगे होते हैं कि उन्हें 'दुर-दुर' करने का भी साहस  नहीं होता...कौन जाने कोई मानवाधिकारी अफसर लपेट ले। कुकुर अपने मालिकों को सुबह-सुबह घुमाते हैं...फारिग होने के आसन-चक्र बताते हैं...कुकुर भी पैन्ट कोट में और मालिक भी...समझ नहीं आता कि दोनों में से कौन किसके साथ बँधा है। उपनिषद की कथा है...गुरू ने शिष्यों से कहा...'देखो! गाय ने उस व्यक्ति को बाँध रखा है'' गोपालक भड़क उठा ''महाराज! बच्चों को उल्टी शिक्षा दे रहे हैं? गाय को तो मैंनें रस्सी से बाँध रखा है'' गुरू ने गाय की रस्सी खोल दी, गाय भागी तो गोपालक भी भागा...थोड़ी देर बाद वह गाय को लेकर पहुँचा तो गुरू ने प्रश्न किया ''यदि गाय तुमसे बँधी होती तो वह तुम्हारे पीछे भागती...गाय से तुम बँधे हो''...इसी अटूट बंधन पर ही नागार्जुन ने गीत गाया है ''कुत्तों ने भी कुत्ते पाले''
जीवन भर भागम-भाग करके, पढ़-लिख, कमा कर अन्ततः यह पढ़ा लिखा भारतीय समाज अब 'कुकुरम् शरणम् गच्छामि' क्यों हो रहा है? कारण गहरे हैं। भारतीय समाज की अन्तर्रचना टूट रही है...पश्चिमी दर्शन से उधार ली गई जीवन-पद्धति के कारण हमने अपने मन के विरूद्ध जाकर अपनी जीवनचर्या में आवरण लगाने शुरू किये...घरों की चारदीवारी इतनी बड़ी कर दी...कि पड़ोसी से आंख न मिले...अन्तर्विरोध भरे चरित्रों को मिलाकर जब शहरों की जो कालोनियां, बिहार बने, वे चाहकर भी समाज नहीं बन सके। उनके एक साथ रहने, पड़ोसी बनने का कारण वह नहीं है जो पुराने भारतीय समाज या गांव मुहल्लों में दिखता था...ऐसा नहीं कि पुराने मुहल्लों में हिन्दु-मुसलमान इकट्ठे न रहते हांे...परन्तु भारतीय दर्शन की खाद से खुराक खींचकर हम पेड़-पौधों की तरह विजातीय होने पर भी साथ-साथ रहते थे...परन्तु पश्चिम से मात्र पैसा नहीं आया...अर्थव्यवस्था के साथ जो दैत्याकर अहंकार आया उसने हमारी समरसता भंग की...ये कुकुर संस्कृति उसी अहंकार का फलित है। पैसे वाले लोग बच्चों को भी कुत्तों की तरह पालते हैं...ये मत छुओ, वो मत कहो, आप-तुम बोलो, खड़े रहो...जोर से मत बोलो...अब ये आदेश कुत्ता तो मान सकता है, बच्चा इसका विरोध करता है...वह दोगुने वेग से इन वर्जनाओं को तोड़ता है...क्योंकि वह परमात्मा की इकाई है...उसे अपनें व्यक्तित्व, अपनी मेधा से ही ग्रहण या त्याग करना है...मां-बाप अपनी दौलत, अपने ज्ञान के अहंकार में बौखला जाते हैं। बच्चा उनकी नहीं सुनता, पड़ोसी उनके अनुसार नहीं चलता, नाते-रिश्तों का व्यवहार अपने स्वार्थ के अनुसार रंग बदलता है...तब बचे नौकर और कुत्ता...नौकरों के साथ रिस्क भी है और मंहगे भी होते हैं...ले-देकर इस अहंकार की तोड़ है कुत्ता...। अपने बच्चे पैसे-कपड़े भी लेते हैं और आंख भी दिखाते हैं...परन्तु कुत्ता अपने मालिक के अहंकार को साबुत बचाता है...जूते मारो, गालियां दो, धूप-लाॅन में बांधकर रखो, वह हर हालत में दुम हिलाकर कृतज्ञ बना रहता है। वैसे कई लोगों ने भी कुत्तों से यह कला सीख ली है...राजनीति से लेकर शासन-प्रशासन में कुत्ते पालना और कुत्ता बनना सफलता के मानक हैं- अभिमानी मनुष्य अपने समस्त विधायक गुणों के बल पर एक सफल नेता या उच्च अधिकारी कभी नहीं बन सकता...जो जितना कुत्ता आदमी होगा उतना ही ऊंचे आसन तक जायेगा...क्योंकि वह चैबीसों घंटे दुम हिलाकर अहंकार को झाडू मारता रहता है...थूक चाट सकता है, मौका लाभ का हो तो हाथों को भी पैर बनाकर रेंग सकता है...मालिक के इशारे पर अगल-बगल किसी भी निर्दोष को काट सकता है...कुत्ते के इन अविनाशी गुणों को देख ही कई लोगों को कुत्ते पालने की आदत पड़ती है। प्राथमिकता के तौर पर पहले वे कुत्ते किस्म के आदमियों को ढूंढते हैं। ऐसा आदमी जो आपकी गलती पर आपको कभी भी गलत न कहे। आपके सामने सिर न उठाये...प्लेटों में कुत्तों की तरह चाट-चाट कर आभार से पूँछ हिलाता रहे...आपके अतिरिक्त सबको गुर्राये आदि...यदि ऐसा व्यक्ति सुलभ हो तो ठीक वरना लोग वास्तविक कुत्ते तलाशते हैं। कुत्तों पर अपने बच्चों से अधिक खर्च करके आस-पास के लोगों, रिश्तेदारों और जरूरतमन्दों को कुत्ता बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। एचएमवी म्यूजिक कम्पनी के उस आदि कुत्ते ने न जाने बाजार में कितनों को कुत्ता बनाया होगा। पर लोग कुत्तों को ये कोट-पैन्ट क्यों पहनाते हैं.? कुत्तों केे उपकरण भी अब मालिक की हैसियत से जुड़ गये हैं। पुराने जमाने में किसान अपने बैलों को 'टाट' से ढकते थे...क्योंकि बैल काम-काजी पशु था...लगातार श्रम से होने वाले ऊर्जाक्षय के कारण उसे घी पिलाना, टाट से ढकना किसानों को आवश्यक लगता था...यह एक तरह का सहजीवन था...प्रदर्शन नहीं था। जबकि आज के मनुष्य ने अपने अहंकार का कुकुर-संस्करण तैयार कर लिया हैे।