कुम्भ और कुम्भकरण

 कुछ वर्ष पूर्व कुंभ पर्व पर सूचना निदेशालय ने पत्र-पत्रिकाओं में दिये विज्ञापन में कई नयी जानकारियां दी थीं ...सूचना निदेशक साहित्यिक अभिरूचि के लगते हैं तभी शायद वे अत्यन्त भावुक होकर 'पावन श्रद्धा' शब्द लिखते हैं...मैं सोचता था कि श्रद्धा तो सदैव पावन होती है...भाजपा सरकार शायद विश्वास को श्रद्धा समझ रही है...विश्वास अन्धा हो सकता है, पवित्र या अपिवत्र हो सकता है...नास्तिक-आस्तिकों का भी अपना-अपना विश्वास हो सकता है...परन्तु श्रद्धा तो मात्र श्रद्धा है...श्रद्धा विश्वास नहीं है...आफीसर लोग शब्द कोश की भाषा पर चलते हैं जहां श्रद्धा का अर्थ विश्वास लिखा होगा...विश्वास वह आदमी करता है जिसके अन्दर अविश्वास है...विश्वास किया गया कृत्य है...श्रद्धा करनी नहीं पड़ती...वह होती है...वह किसी के विरोध में नहीं होती। विश्वास हम इसलिये करते हैं क्योंकि संदेह के साथ जीवन चलाना मुश्किल है। हम सम्बन्ध मानते हैं, गुरू मानते हैं...उसी तरह भगवान मानते हंै। विश्वास के पीछे सदा संदेह है...संदेह को दबाने के लिये विश्वास करना पड़ता है जबकि श्रद्धा संशयहीन होती है। श्रद्धावान  न तो विश्वास करता है और न अविश्वास, वह मात्र जिज्ञासु है इसलिये श्रद्धा सदैव पावन है। भाप को गर्म लिखने की आवश्यकता नहीं होती...भाषा का ऐसा अलंकरण अनावश्यक है। सूचना निदेशालय ने इस विज्ञापन में एक और जानकारी दी है जो सचमुच ध्यान देने योग्य है...क्योंकि उत्तराखण्ड राज्य में कुंभ हो रहा है तो देश-विदेश के जिज्ञासुओं को हम जो जानकारियां देते हैं उन्हें यात्री, पर्यटक सौ टंच ही मानता है..तो इस हिसाब से भी सूचना निदेशालय को बधाई देने का मन हो रहा है कि वे कुंभपर्व को वैदिक काल से चल रहा समागम मानते हैं...लिखा था ”वैदिक काल से आधुनिक समय तक“ वैसे गंगा नदी का जिक्र ऋग्वेद में तो है...कुंभ शब्द भी वेदों में मिलता है...परन्तु कुंभ स्नान अथवा अमृत घट और देवासुर संग्राम की कथा वैदिक वांग्मय में नहीं है। भागवत पुराण और महाभारत आदि में ही भगीरथ अभियान से लेकर देवासुर संग्राम तक और अन्य कथायें लिखी गयी है...इन कथाओं के विषय वैदिक होते हुये भी कुंभ-पर्व को वैदिक नहीं कहा जा सकता... बाकी सूचना निदेशक मालिक ठैरे, वे कुर्सी पर बैठकर यदि इतने अधिकार से कुंभ स्नान को वैदिक कह रहे हैं तो ठीक ही कह रहे हैंगे/ वैदिक वांग्मय की प्रिय नदी सरस्वती थी परन्तु वैदिक काल के तुरन्त बाद सरस्वती लुप्त होने लगी तो गंगा ही तत्कालीन आर्यखन्ड का मुख्य पवित्र नद बना...गंगा की वैदिकता सिद्ध करने के लिये ऋषिपुत्रों ने इतना आकर्षक और लोकप्रिय कथानक गंगा पर रचा कि गंगा आर्यांे के धार्मिक जीवन का प्रतिबिम्ब बन गई...और वैसे भी भारतीय समाज ने यह कभी हीं माना कि जो वेदों में नहीं भजा गया, वह पूज्य नहीं है...गंगा का नाम वेदों में है...वेदों का यही बीजाक्षर वृक्ष बनकर पौराणिक काल का अमृत फल बना जो आज भी हम भारतीयों को धर्म और पर्व के बीज देता है/ वैसे वेदों और पुराणों में लिखा अलग-अलग नहीं है। वेदों की श्रुति में हमारा ज्ञान बीजरूप में था...व्यास ने उसे कलमबद्ध किया। सभी संहिताओं, ब्राह्मणों को कर्मकान्ड के हिसाब से व्यास (पृथक) करने के कारण ही उनका एक नाम ”वेद व्यास“ पड़ा...वेदों का बीजरूपी ज्ञान उपनिषदों में वृक्ष बना और पुराणों में पके हुये फल की तरह वह जनसमुदाय को उपलब्ध हुआ...
     वैदिक काल में आर्यावर्त (सप्तसिंधव) चार समुद्रों से घिरा भूखण्ड था (ऋ0/9/36,10/47/2) भू-वैज्ञानिकों की भाषा में यह प्लीस्टोसिन काल था जिसकी पहचान ईसापूर्व पचास से पच्चीस हजार वर्ष पूर्व के कालखण्ड के रूप में की जाती है। इस काल में पंजाब के दक्षिण तथा पूर्व में समुद्र था जिसके कारण दक्षिण भारत एक पृथक भू-खण्ड की तरह दिखता था। समस्त गंगा प्रदेश (उप्र0, बिहार, बंगाल आदि) और हिमालय की पादभूमि, आसाम के पर्वतीय क्षेत्र सभी समुद्र के गर्भ में थे। दक्षिण में राजपुताना का रेगिस्तान भी तब समुद्र था जिसमें कि सरस्वती नदी गिरती थी। पश्चिम का समुद्र तो आज भी विद्यमान है तथा उत्तरी समुद्र वर्तमान तुर्कीस्तान के पश्चिमी भाग में था। गंगा और यमुना नदी का मार्ग समुद्र के निकट होने से बहुत छोटा था, इसी कारण गंगा का उल्लेख नदी सूक्त (10/75) में केवल एक बार ”इमं मे गंगे यमुने सरस्वती“ और दूसरी बार 'उरूकक्षौ न गांग्य'(ऋ.6/45/31) गंगा किनारे रहने वाले व्यक्ति का मात्र उल्लेख है। तिवारी शासन के दौरान अर्द्धकुम्भ स्मारिका में अनेक लेखकों ने एक श्लोक को वैदिक बताते हुये कुम्भ की वैदिकता सिद्ध करने का प्रयत्न तो किया है परन्तु वह श्लोक कौन से वेद का है, इसका संदर्भ नहीं दिया गया है। कहीं यह श्लोक ऋग्वेद की उस अनुपलब्ध शाखा 'वाष्कल' का तो नहीं है जो कि सायणाचार्य के शिष्यों, अपने उत्तराखण्ड के पत्रकारों को प्राप्त हो गयी हो, भाई लोगों को पद्मश्री मिलना चाहिये। वेदों के बाद यज्ञादि कर्मकाण्डों के व्याख्यान के लिये ब्राह्मण रचे गये, उसके बाद आरण्यकों में वेदों के आध्यात्मिक तत्वों का मंथन है और उसके बाद समस्त भारतीय दर्शन उपनिषदों में निचोड़ा गया। ब्राह्मणकाल भौगोलिक उथल-पुथल का काल था, इसी समय सरस्वती नदी लुप्त हुई...हिमालय से बहने वाली अनेक नदियों द्वारा लायी गयी मृदा से गंगाप्रदेश समुद्र के गर्भ से उपर उठ गया..शतपथ तथा जैमिनी ब्राह्मणों में गंगा का वर्णन अधिकाधिक होने लगा..परन्तु उपनिषद् काल तक भी नदियों के किनारे यज्ञों का आयोजन तो होता था, स्नान-पर्वों के ऐसे धार्मिक-स्वरूप का कहीं अंिस्तत्व नहीं था। वेदों में कुम्भ का उल्लेख ज्ञान घट के रूप में ही है, कई सौ करोड़ के इस सरकारी स्नान को सूचना विभाग के कुंभकरण वैदिक न कहें। जिन कथाओं को सचिवालय के विद्वान लोग वैदिक कह रहे हैं, वह पुराणों की शैली है..क्योंकि ब्राह्मणकाल के तुरन्त बाद सैकड़ों वर्षों तक होने वाली उथल-पुथल से वैदिक समाज का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो गया था, सारस्वत सभ्यता सूख गई, लोगों को पूर्व के नवोदित भू-भाग में पलायन करना पड़ा था। धार्मिक आस्थाओं पर मंडरा रहे इस भीषण संकट में सरस्वती के लुप्त होने के कारण वैदिक वांग्मय और आस्थाओं के उन्मूलन का संकट उपस्थित हुआ, इसलिये वेद-वेदान्त की अलख को बनाये रखने के लिये आवश्यक था कि पुनः लोगों को एकत्र कर आर्षज्ञान के समागम किये जायें। गंगा-यमुना जैसी नदियां और गंगा-प्रदेश का उभार आर्यों  का नया केन्द्र बनने के कारण वांग्मय में गंगा की महिमा बढ़ाकर सरस्वती के बराबर की गयी। वैदिक पात्रों की कहानियों के बीज गंगा के उपजाऊ मैदानों में बोकर चिंतकों ने पुनः हरा-भरा धार्मिक साम्राज्य स्थापित कर दिया। विष्णुपुराण, पद्मपुराण, श्रीमद्भागवत्, महाभारत में गंगा हम भारतीयों की आत्मा बनी...कंुभपर्व का आयोजन वास्तव में ज्ञान चर्चाओं के लिये प्रत्येक बारह वर्ष में होने वाले समागम का पर्व ही रहा होगा..समय के साथ ऐसे पर्वों का रूप, भाषा बदलती गई परन्तु इतना भी नहीं कि विज्ञापन विभाग की तरह ऐसे भ्रामक विज्ञापन चेप दिये जायें/ सरस्वती और गंगा दोनों पवित्र वैदिक नदियां हंै...जिस तरह सरस्वती वैदिक ऋचाओं, मंत्रदृष्टाओं की साक्षी थी...उसी तरह गंगा भी इच्छाकुवंशी राजाओं के पूर्वज भगीरथ के अदम्य अभियान की साक्षी है...हरिद्वार के घाटों में स्नान करते हम लोग यदि जनकल्याण को ध्यान में रखते हुये भगीरथ प्रयासों को जीवन में उतार सकें...अपनी विधायिका के सफेद बगुले यदि आम जनता को पीने का स्वच्छ पानी ही उपलब्ध करवा दें...तो हम भी गंगा नहाये समझो...सूचना निदेशालय हलन्त के मन्तव्य को अन्यथा न ले...आप के विभाग से ही अपना यूरिया आता है...आप बोलें तो हम भी कुंभ को वैदिक पर्व कहने को तैयार हैं...प्रश्न यह नहीं कि कुंभ पर्व कब शुरू हुआ? प्रश्न है कुंभ पर्व क्यों शुरू किया गया...आदिगुरू शंकर ने कभी नहीं सोचा होगा कि उनके चेले-चपाटों के स्नान से पूर्व ही बीआईपी घाट वाले कलाकार बगुले करोड़ों का कुंभ नहा लेंगे। सच कहूँ. जीवन की भस्म को गंगा माई की गोद में बैठकर धुलते इन जोगटों को जब कैमरे की आंख से देखता हूँ तो उन पर दया आती है। कुंभ नहाते लाखों-लाख श्रद्धालु क्या कुंभ नहायेंगे? कुंभ तो राजनीति के बगुले नहाते हैं...भगीरथ के पुरखे तो जैसे तरे होंगे...इस हजारों करोड़ों के कुंभ में तो नेता एक डुबकी में दस पीढ़ी तार देते हैं। कौन पूछने वाला है। केन्द्र-राज्य दोनों शाही स्नान कर रहे हैं। कल पुल था...करोड़ों का था, दो महीने बाद उठ जायेगा, अद्भुत स्नान है ये...यह संयोग कई सौ साल बाद आता है...जब कुंभ मार्च महीने में हो, केन्द्र का सूर्य और राज्य का सिंह एक-दूसरे को मित्र भाव से देख रहे हों। बाकी जितने राहु-केतु हैं, सभी पर कृपादृष्टि बनी है। यह मार्च फाइनल इस कुंभ को अविस्मरणीय बना रहा है...सिंह राशि वाले धन-वृकोदर बीआईपी घाट पर उतरेंगे...गंगा के माथे पर उल्टा एक नारियल भी फोड़ मारेंगे...टुकड़खोरों की अलग बारात है...उनमें विज्ञापन वाले, होर्डिग्ंस वाले, पोथे-पत्तड़ वाले, शौचालय-मूत्रालय वाले...इन 'वालों' की लिस्ट बहुत लम्बी है...परन्तु सभी 'वाले' एक ही प्याले से गंगाजल पीकर उस मां को हाथ जोड़ेंगे। यह पावन जल न जाने कितनों को तार गया है। बिना श्रम, बिना योग्यता करोड़ों इकट्ठा करने वाले श्रद्धालुओं को हलन्त की ओर से कुंभ स्नान की बधाई...मठ-अखाड़ों से अधिक पहंुचे हुये तो आप लोग हो...गंगा की एक ही डुबकी में ही भवसागर पार हो गये...फोकट का पैसा अमृत जैसा ही सुख देता है।