क्वचदपि कुमाता न भवति

गांव से लौटा हूँ...आभिभूत लौटा हूँ...वह रानाकोट गांव जहां जन्म लिया, उसे इतने वर्षांे बाद देखना तीर्थ करने जैसा था।  ट्रैकर से उतरकर अपना बैग कंधे पर लगाये सबसे पहले अपनी कुलदेवी चन्द्रवदनी के द्वार पर मत्था टेकते ही आंखे नम हो गईं। वैसे तो गांव में आयोजित श्रीदेवी भागवतकथा एवं नवरात्रों के उल्लास के कारण मंदिर में विशेष सजावट थी। आस-पास के कुछ घर सीमेंट के हो गये थे, मोटर सड़क की सर्पाकार देह और घुमावदार कुल्हों ने उस पुराने गांव के कितने ही दृश्य लील लिये थे...कारों की भीड,़ शामियानों की हिलोरें और डेक की वजनदार आवाजांे के बीच भी मां की कैसी कृपा...उसकी चैखट पर आज भी पूरा गांव सम्पूर्ण उपस्थित था। नवरात्रों की उस सगर्भा दैवीय शक्ति के कारण ही महादेव भट्ट द्वारा स्थापित यह सम्पूर्ण वृक्ष अपनी सोलह कलाओं के विहंगम दृश्य के साथ इस शारदीय नवरात्र में मां चन्द्रवदनी की अमृत कथा का साक्षी बना। मनीषि कहते हैं कि धरती वर्ष में दो बार गर्भधारण करती है वासंतिक नवरात्र और शारदीय नवरात्र। इन्हीं नौ दिनों में     धरती सगर्भा रहती है। हमारी धरा उसी आद्य शक्ति मां दुर्गा का स्थूल रूप है, इसी कारण कलश स्थापित कर जगद्जननी की कोख में हम जौ के हरियाल उगाते हैं...नवरात्र इन्हीं सृजनाओं के उल्लास दिवस हैं। हमारे गांव में देवी भागवत का पाठ कर रहे पं0 कोटियाल जी कह रहे थे कि इस गांव का नाम राणाकोट नहीं बल्कि रमाकूट रहा होगा। देवी रमा का कूट स्थान...इस विह्वल व्याख्या से अपना मन आद्र हो उठा। राणाकोट को बद्रीनाथ के पंडो के आदि पुरूष महादेव भट्ट ने संवत् 1564 में बसाया था। वैसे मंदिर में लगे पत्थर पर अंकित यह तिथि स्पष्ट नहीं है, कुछ लोग इसे सं0 1364 भी पढ़ रहे थे। तिथि भ्रामक हो सकती है, अन्तर नहीं पड़ता...परन्तु हमारे गांव की स्थापना से आज तक नवरात्रों में पूरे पंडा समाज का (ध्यानी   बंधुओं का) जैसा अभूतपूर्व समागम हुआ, उससे वे स्वयं भी अचंभित थे। प्रवासी पक्षियों की तरह अपनी कुलदेवी की उस छोटी सी चैखट पर मत्था टेकने की जैसी फड़फड़ाहट मैंने देखी, सुनी, वह अविस्मरणीय थी।     वैसे तो शरद ऋतु सम्पूर्ण जड़ संगम को प्रताड़ित करती है। वसन्त भौगोलिक चक्र का आरंभ माना जाता है और शरद उसका समापन...इसी कारण हमने बुजुर्गांे के लिये सौ शरदों को देखने की कामना की है। शरद सयानों की ऋतु है, परिपक्वता की गम्भीर अभिव्यक्ति शरद में ही हो सकती है। शरद ऋतु में ऋतुचक्र अन्तिम छोर पर पहंुचता है, प्रकृति का टांका टूटता है और पुनः रांगें का टांका लगाकर मन और शरीर को जोड़ता भी है, इन्हीं कठिन दिनों में असहाय मनुष्य अपनी सुरक्षा के लिये देवी के चरणों में बैठता है। प्रकृति के इस महाचक्र को भारतीय मनीषियों ने जितनी समग्रता से देखा, उसी कलापूर्ण ढंग से उन्होंने इसके समाधान भी सुझाये हैं। इन शारदीय नवरात्रों में अपने गांव में देश-विदेश में रह रहे ध्यानी बंधुओं को उसी मां ने अपने पास बुलाया, अपनी हरियाल से उनके दुखों की क्षतिपूर्ति की। सभी ने मां की कथा से अपने मन प्रक्षालित किये, नये कथानक गढ़े, नये संकल्प रचे होंग,े शायद...इस समागम से कई नये सामाजिक अनुभव लेकर भी लौटा हूं। मुझे जब इस समागम का निमन्त्रण विप्पा बेटा ने दिया तो मैं बेचैन हो उठा। अपनी देवी, अपने नरसिंग, अपने नागर्जा को पूजने का मन तो था ही, अपने लोगों को देखने का भी मोह था। 
इस समागम के आयोजक इट्ठन बेटा, दुर्गा, बालक, विप्पा आदि कोई मेरे लिये नये चेहरे नहीं थे, पाठक अन्यथा न लें, इनमें कुछ नाम मुझसे उम्र में बड़े होंगे पर यदि मैं बिरादरी के रिश्ते छोड़ कोई दूसरा संबोधन करूंगा तो उन्हें भी अच्छा नहीं लगेगा, उसकी मिठास जाती रहेगी। उनका यह उद्यम अदभुत था। तीन दिन गांव में रहा, समय जैसे कपूर की तरह हथेली में ही उड़ गया। देवी कथा के साथ ही साथ कुशल क्षेम चलती रही, बाहंे फैलाते और बांहों में समाते कितने ही उत्तेजित क्षण शरीर को निर्भार करते रहे, जो बच्चे थे उन्हें युवा देखा, जो युवा थे उनके चिट्टे बाल देखके हैरानी हुयी। कुछ लोग, कुछ रिश्ते, कुछ दृश्य ऐसे भी थे जहां रिक्त स्थान था...गांव के अधिकतर मकान खंडहर हो चुके हैं कुछ सीमेंट की छतें लिपिस्टिक लगाकर शहर की तरह हंसने के प्रयास में देखीं। पचासी मवासों के उस गांव में आज पन्द्रह घर ही होंगे जहां शाम को बिजली का स्विच दबाने वाला उपस्थित हो...कुछ देहरादून, कुछ श्यामपुर, कुछ दिल्ली-मुंबई कुछ कहीं। सब कमाई पर लगे हैं...
बड़े शहरों नंे ग्रामीण समाज से बहुत कुछ छीना है। इस समागम में ग्रामीण समाज के कुछ चित्र पुनः देखे...जब पास के ही बकरोड़ा ग्राम जो कि क्षत्रियों  का गांव है, वे अपने ढ़ोल-दमाऊं के साथ हमारे गांव पहंुचे तो हम लोगों ने आधे रास्ते में इस जुलूस का स्वागत किया। पहला स्वागत ढोल-दमाऊं बजाने वाले औजियों (वादकों) का हुआ। हमने बकरोड़ा के औजियों को रोली-अक्षत और दक्षिणा से अलंकृत किया और उन्होंने हमारे औजी का। दोनों गांवों के लोग गले मिले। तभी मैंने एक कृशकाय वृद्ध को देखा, वह बचपन का भक्ति पौरी (प्रहरी) था जिसकी कड़क आवाज से हमारे गांव की घसियायिां  दुबक जाया करती थीं, वह तेलियों के परिवार से था। मैंने उसे अपने गांव के एक पंडे के गले मिलते देखा। यह दृश्य मेरे लिये अविस्मरणीय रहा। आज शहरी समाज को हमारे मीडिया और राजनीतिक दलों ने काट पीट रखा है। यह दृश्य मेरे मन पर मलहम लगा गया, मैने लम्बी सांस ली। भाजपा के दिग्गज नेता मनोहरकान्त ध्यानी भी थे परन्तु वे राजनीति से दो फीट की दूरी बनाकर मात्र एक श्रद्धालु बनकर उपस्थित रहे, इस समागम में उनका भी वरद्हस्त था, वे ध्यानियों के सिरमौर हैं... 
शहरों के इस विसंगत समाजों में रहकर जैसा उच्चाट होता है, जैसी असुरक्षा मन को दिन-रात घेरती है, जैसी औपचारिक दिनचर्या का आतंक चैबीसों घंटे व्यक्ति के घर को घेरे रहता है, उसी से मुक्ति के लिये नवरात्रों का यह समागम एक सफल प्रयोग सिद्ध हुआ। जिस तरह गांव की बेटियां उन्मुक्त होकर रात के एक बजे तक पांडव नृत्य में नाचीं, भागवत कथा में झूमीं, उसके पीछे अपने गांव की बिरादरी का सुरक्षा कवच ही मुख्य कारण था। कका, बेटा, पूफू, चाची, ताई वे सब एक ही पुरखे की संताने थीं। रोटी की भागमभाग ने उनका चैन छीन लिया था, उनका गांव छीन लिया था, उनकी कुलदेवी उनसे छीन ली गई, उनके अपने जिनके साथ वह बिना किसी औपचारिकता के अपने दुःख-सुख बांट सकता था...वह इस भयानक आक्रंाता औद्योगिक युग ने उनसे छीन लिये थे। देवी ने इन नवरात्रों में थोड़े दिन के लिये सही, उन्हें उनका भाव लौटाया, सामाजिक सुरक्षा कवच लौटाया, देवी का प्रांगण लौटाया...नमस्तस्यै नमो नमः। मां चन्द्रवदनी हम पर कृपालु हों...
सम्बन्धों की डोर इतना तरंगित करती रही कि देवी की कथा के कुछ फुटेज ही सुन सका, थोड़ी देर सुनता कि तभी बचपन का कोई सहपाठी पीठ पर धौल मारता, किसी-किसी से तो पन्द्रह वर्ष बाद मिल सका। यह भी देवी के कथानक से कम रसपूर्ण नहीं था। पंडित जी कह रहे थे कि कबूतर सर्वाधिक शुचितापूर्ण अनाज खाता है पर सर्वाधिक कामुक होता है और मोर का भोज कीडे-मकोडे़ होने पर भी वह ऋतु चक्र के आदेशानुसार  ही भोग करता है। व्यास पीठ ने दृष्टान्त दिया कि इसी संयम के कारण कृष्ण ने मोरपंख को अपने शीश पर धारण किया, इसी कारण मीरा ने गाया 'जाके सिर मोर मुकुट'...संयम और त्यागपूर्ण भोग ही गृहस्थ धर्म का मुकुट है। यह संयम ही गृहस्थ धर्म का मेरूदण्ड है। संभवतः इन्हीं रोचक पौराणिक कथानकों के कारण हमारा कोई बाल बांका नहीं कर सका। इतने प्रलोभन, दासता, आक्रमण के बाद भी हिन्दु समाज का शिल्प यदि आज भी अपने पैरों पर खड़ा है तो उन मनीषियों के कारण जिन्होंने घास की कुटिया में रहकर भारतीय समाज के प्रासाद खड़े किये। व्यासपीठ से जाते-जाते भी यही वाक्य सुना-असन्तुष्ट ब्राह्मण और सन्तुष्ट राजा, दोनों ही नष्ट हो जाते हैं। दिन-रात दिमाग पर पड़ते  विज्ञापनों के हथौड़ों के कारण समाज में जैसा असंतोष बढ़ रहा है, चकाचैंध की जो भूख है, इसी असंतोष के कारण तो पहाड़ खाली हुये और जिन नेताओं को राष्ट्र के समक्ष खड़ी चुनौतियों को देखकर असुतंष्ट रहना था, वे राजा लोग पैंतीस फीट लम्बी शून्यों से भरी राशियां डकार कर संतुष्ट हो सो रहे हैं, तो क्या हम नष्ट हो जायेंगे? क्या ये गगनगोल राजनेता इस जगद्जननी के कथानक भी निगल जायेंगे? कांग्रेसी तो देवी को भी सांप्रदायिक कह सकते हैं।