क्यों रूठे थे केदार

और देखते ही देखते... केदारनाथ धाम में तबाही का ऐसा मंजर आया कि जिसकी चपेट में आकर बीस हजार से अधिक भक्त काल कलवित हो गये। हमेशा भोले और सामान्य रहने वाले शंकर आखिरकार इतने विकराल क्यों हो गये, भगवान शंकर भोले के रूप से निकलकर पहली बार केदारपुरी में भाले के रूप में दिखायी दिये, उसे जो जहां दिखा, लील दिया। शायद उसे भक्तों का निकटवर्ती सानिध्य कदापि पसंद नहीं था। या फिर यह उन भ्रष्टाचार, अत्याचारों तथा मनमौजों का प्रत्युत्तर था, जिसे न जाने खुद बाबा कब से देना चाह रहा हो। विकराल शिव ने यह क्या कर दिया...ज्योतिषाचार्य, प्रभावित लोग, भूगर्भवेत्ता, विज्ञान सभी इस विनाश के कारणों का पता लगा रहे हैं, लेकिन वे शायद विज्ञ नहीं है, कि प्रकृति के सामने हम सब नत मस्तक हैं। उस परमब्रह्म की लीलाओं का पार पाना अत्यन्त कठिन ही नहीं, बल्कि असंभव भी है। 
बात 16 तथा 17 जून २०१३ की है, जब इस विनाश की कहानी का आगाज हुआ। केदारनाथ धाम के पीछे उमल्या सागर नाम का बड़ा ताल है, इसकी रचना कुछ इस तरीके की है, कि सबसे नीचे दलदली जमीन बीच में पत्थर, उपर पानी तथा सबसे उपर हिमशैल हैं। सागर के अंदर पत्थर छोटे नहीं है, बल्कि इतने बड़े भी है, कि जिसे फोड़कर एक मकान तक बन जाये, बहरहाल हेलीकाॅप्टर के शोर तथा कम्पन से ये हिमशैल लगातार पिघलते जा रहे हैं, जो रह रहकर टूटकर इस ताल के जलस्तर को लगातार बढ़ाने में अपनी भूमिका निभा रहे थे, अब क्यांेकि इस ताल की ओर कोई नहीं जाता है, तो लोगांे का 
ध्यान इस ओर कभी भी नहीं गया। संयोगवश 16 जून को रात को बड़ा ग्लेशियर टूटकर इस ताल में विसर्जित क्या हुआ, इसने निकलने वाली मंदाकिनी नदी ने उग्र रूप ले लिया और उसकी चपेट में आकर रात को ही आठ लाॅज भरभराकर गिर गये। केदारनाथ में दर्शनार्थ गये भक्त इस त्रासदी के बाद सो नहीं पाये। रात भर जागरण करके किसी तरह से रात बितायी। 
इस घटना के बाद केदारनाथ मंदिर की बांयी ओर बहती सरस्वती नदी का जलस्तर घट गया, और मंदाकिनी लगातार अपने उग्र रूप से निर्वाध बहती जा रही थी। मंदाकिनी नदी के तेज बहाव में केदार पुरी से निकलने वाले एकमात्र रास्ते की पुलिया भी बह गयी। जानकार लोग समझ गये कि सरस्वती नदी का जलस्तर घटने का अर्थ है कि यह पानी कहीं एकत्रित हो रहा है, जो भविष्य के लिये कदापि सुखद नहीं। कुछ अप्रिय घटना की सूचना से सहमे कुछ लोग भैरवनाथ की ओर भागने लगे। कुछ लोग रात की दुखद घटना को विस्मृत करने के लिये चाय की चुिस्कयां लेने लगे। इतने में 17 जून 
को ठीक साढ़े सात बजे उमल्या सागर से ज्वालामुखी सा फटते लोगों ने सुना, सबकी निगाहें उपर उठी लगा जैसे साक्षात काल, काले गाढे पानी तथा बोल्डरों के रूप में अपना मुंह फैलाकर लोगांे का अपनी आगोश में समाने के लिये आतुर लग रहा हो। सभी लोग समझ गये कि अब तो बचना मुश्किल है, आपदा से बाल-बाल बचे प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार उस काल  ने महज चार मिनट में सब कुछ 
तबाह कर दिया, लोग नदी के बहाव में बहने लगे, चट्टानों तथा बोल्डरों के नीचे आकर शिवमय हो गये। भक्त अपने परिजनों को छोड़कर जान बचाने के लिये केदारनाथ मंदिर के अंदर भाग गये, 
लेकिन आज शिव साक्षात काल बने थे, श्मशान वासी और भभूत के साथ हमेशा समाधि में रहने वाले शंकर किसी को बख्शने के मूड में नहीं थे, मंदिर के अंदर पूर्व दरवाजा तोड़कर भारी मात्रा में पानी और मलबा आ गया, मंदिर के अंदर लोगों के गले-गले तक पानी आ गया, अपने बच्चों को कंधों पर बिठाकर कई माताओं ने वहीं बच्चांे ंसमेत समाधि ले ली। और जिन लोगांे ने घंटा तथा उंची दीवार पकड़कर धैर्य धारण किया, वे कदाचित बचे गये। 
तब, कब से खामोश बनी सरस्वती नदी भी हुंकार भरने लगी, इसमें भी इन चार मिनटों में न जाने कहां से इतना पानी भर गया। कहने का तात्पर्य यह है कि लोगांे को बचने के लिये कोई भी रास्ता नहीं था, तब कई लोग जहां थे, वहीं जम गये। उन्हें लगने लगा कि यदि वास्तव में आज मौत है तो शिव सम्मुख मरने में ही मोक्ष है। कुछ लोेग वासुकीताल की ओर भागने लगे, इधर भागने वालों में अधिकतर स्थानीय बच्चे थे, जो अपनी पढ़ाई-लिखाई का खर्चा उठाने मजदूरी करने केदारनाथ गये थे। लेकिन वासुकीताल के निकट पहुंचते- पहुंचते मीठी जड़ी, भूख, हादसा तथा ठंड से ये बच्चे तथा कुछ तीर्थयात्री रह रहकर वहीं ढेर होने लगे। इनके मुखपटल से नहीं लग रहा था कि मौत से पहले उन्होंने कितनी जद्दोजहद की होगी। कुछ लोग जंगलों की ओर भागने लगे, उन्हें इस बात से शायद कोई सरोकार नहीं था, कि उनके साथ उनके परिजन भी थे, जो शायद इस त्रासदी में कहीं खो गये या फिर उन्हें ढूंढते-ढंूढते परेशान हो रहे होंगे। 
यह बर्बादी महज केदारपुरी तक ही सीमित नहीं रही बल्कि यात्रामार्ग से सटे रामबाड़ा, भीमबली, गौरीकुंड, सोनप्रयाग कुंड, कालीमठ घाटी, सेमी, काकड़ा, चन्द्रापुरी, अगस्त्यमुनी, विजयनगर, सिल्ली तथा तिलवाड़ा को भी अपनी आगोश में समेटती चली गयी। ये कस्बे चालीस फीसदी तबाह हो चुके हैं। केदारनाथ के बाद गौरीकुंड, रामबाड़ा में भी तबाही ने कई लोगांे की जानें लील ली।  बाकी अन्य कस्बों में जन ही हानि नहीं हुयी है। 17 जून को त्रासदी के बाद केदारनाथ में स्थित मोबाइल टावरों के बह जाने से यहां से सम्पर्क कट गया। यहां क्या हुआ, कैसे हुआ...कोई कैसे इसकी सुध लेगा, बचे हुये लोग इसी बात से आहत थे। देर शाम मंदाकिनी नदी के जल स्तर तथा काले पानी को देखकर शेरसी स्थित हिमालयन हेली का एक हेलीकाॅप्टर मंदाकिनी नदी के उदगम स्थल को निहारने के लिये केदारपुरी की ओर उड़ा। केदारपुरी में हुयी बर्बादी देखकर पायलेट के पसीने छूट गये, उन्होंने बगैर समय खोये इस बात की जानकारी अपने सहयोगी हेली कम्पनियों तथा शासन में दे दी। संयोगवश इस दिन भी बरसात केदारपुरी का पीछा नहीं छोड़ रही थी। 18 जून को भी रेस्क्यू के लिये केदारनाथ धाम की ओर कोई टीम नहीं गयी, इतना जरूर है कि केदारघाटी में स्थित हेलीकाॅप्टर कम्पनियों ने बिना समय गंवाये तथा नफा नुकसान की चिंता किये बिना बचे हुये लोगों को केदारपुरी से निकालना शुरू किया। तब तक भूख, त्रासदी, ठंड तथा डर से कई लोग एक-एक करके काल कलवित होने लगे। लोग अपने परिजनों को अपनी आंखों के सामने ही तड़फ-तड़फ कर मरते देखने लगे। उन्हें बचाने के लिये इनके पास कोई माकूल विकल्प नहीं था। इस दौरान पानी तथा मिटटी मंे हाथ पैर मारने के कारण लोगों के कपड़े फट गये। जमा पूंजी तथा सामान सभी कुछ बह गया। हां त्रासदी से पूर्व कुछ जिन लोगों ने जान बचाकर जंगलों तथा नेपालियों की झोपड़ियों का सहारा लिया,निरभाग यमदूतों के इन आतताईयों ने उनसे डरा धमकाकर वहीं लूट लिया। अब इनके पास महज अपने मैले-कुचैले शरीर के कुछ भी नहीं था। परिजन हीं, पैसा नहीं, कपड़े नहीं, सहारा नहीं। 
इस विनाश को प्रकृति का कहर कहना न्यायोचित है, लेकिन बचे हुये लोगों से नेपालियों द्वारा जो लूट खसोट की गयी, उसकी कल्पना से ही प्राण कांपने लगते हैं। लुटे तथा आपदा से बामुश्किल बचे लोगों ने अपने लूटने की जो व्यथा सुनाई, उसे सुनकर कोई भी दंग रह सकता हैें। इतनी कारूणिक कि इन्हें शब्दों में ढालना बड़ा मुश्किल प्रतीत हो रहा है। सहज समझा जा सकता है, कि जिन लोगों ने त्रासदी की मौत के बाद लुटने की यह मंजर देखा और झेला होगा, उसके दिल पर क्या गुजरी होगी। तो 18 जून से 25 जून तक रेस्क्यू आपरेशन हुआ। इस दौरान, सेना, एनडीआरएफ,आईटीबीपी, जल पुलिस तथा बीएसएफ के जवानों ने फंसे हुये लोगों को बचाने का जो अहमतरीन कार्य किया, उसका पारितोषिक तो उन्हें जरूर मिलना चाहिये, नहीं भी मिलेगा तो शायद इन लोगो की दुआयें हमेशा इनके काम आयेंगी। पूरे घटनाक्रम में जो सबसे अच्छी बात सामने आयी है, वो यह कि स्थानीय लोगांे ने तीर्थयात्रियों तथा रेस्क्यू टीम का जो सहयोग प्रदान किया वो भी इतिहास में स्वार्णांक्षरों में दर्ज होगा।
गौरीकुंड में फंसे हुये पांच हजार के करीब तीर्थयात्रियों को गौरीकुंड बह जाने के बाद गौरी गांव में शरण लेनी पड़ी। चार दिनों तक इन लोगांे की ग्रामीणों ने जो सहायता की, उसे भी शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। अपना लाॅज तथा आशियाना बह जाने के बाद भी गौरी गांव के लोगों ने तीर्थयात्रियों को अपने घर का राशन खिलाया। बच्चों को   दूध पिलाकर उनकी रक्षा की। साथ ही फाटा, नारायणकोटी, मस्ता, ह्यूण, गुप्तकाशी आदि स्थानों पर स्थानीय लोगांे ने भंडारे का आयोजन करके तीर्थयात्रियों की खिदमत की। कपड़े, जूते, चप्पल तथा साथ ही घर जाने का किराया देकर इनको विदा किया गया।
इसी त्रासदी के बाद कालीमठ घाटी भी चालीस फीसद बर्बाद हुआ। प्रसिद्ध सिद्धपीठ कालीमठ में स्थित महाशिव, महासरस्वती मंदिर भी त्रासदी की भेट चढ़ गये। बाकी महागौरी मंदिर, ब्रती बाबा समाधि स्थल भी काली नदी के उफान में समा गये। हांलाकि भगवती काली की असीम कृपा से प्रसिद्ध महाकाली मंदिर अभी अस्तित्व मंे है। इस पूरे घटनाक्रम में सरकार की जो छवि सामने आये, वो जरूर चिंतनीय है। जिस धीमी गति से सरकार ने रेस्क्यू का काम किया, वो याद रखा जायेगा। कालीमठ घाटी मंे प्रशासन तथा शासन जब नहीं पहुंचा तो बीएसएफ ने पूरी कालीमठ को गोद लेकर इसके ट्रीटमेन्ट पर ध्यान दिया। और आज स्थिति यह है कि कालीमठ घाटी मंे अस्सी फीसद कार्य पूर्ण हो चुका है। जिसका श्रेय बीएसएफ को दिया जाना जरूरी है।
केदारनाथ में जो कुछ घटित हुआ है, उसके भविष्य को देखते हुये विश्लेषण करना अत्यन्त आवश्यक है। केदारनाथ का अर्थ है दलदल। अर्थात सम्पूर्ण केदारपुरी दलदली जमीन पर अवस्थित है। केदारपुरी में लगातार अतिक्रमण होने से यह भूभाग अंदर की ओर धंस रहा है। पचास के दशक की बात करें तो केदारनाथ जाने वाले लोग घोड़ापड़ाव के निकट ही अपने जूते तथा चप्पलें उतार देते थे। और एक दिन पूर्व से खाना पीना छोड़ देते थे, इसके पीछे यह तर्क होता था, कि यदि पूजा पाठ करते समय कदाचित शौच  करना पड़े तो केदारनाथ के इर्द गिर्द कहां इसका विसर्जन किया जाये, क्योंकि पूरी की पूरी जमीन तो शिवभूमि है, इसलिये शिवभक्त एक दिन पहले से खाना नहीं खाते थे। आज स्थिति यह है कि मंदिर के निकट ही बड़े-बड़े भवन बन गये हंै। अब सोचा जाये तो इन भवनों की मलमूत्र की निकासी कहां है, जाहिर है कि नदी मंे। जो धरती साठ साल पूर्व इतनी पवित्र थी, जहां पर लोग महज मूत्र विसर्जन करने के बारे में इतना सोचते थे, अचानक ऐसा क्या हो गया कि हनीमून और रंगरलियां मनाने को ऐसा   धार्मिक स्थल चयनित किया जा रहा है। भगवान शिव साक्षात काल के अवतार है, उन्हें श्मशान पसंद है, एकांत पसंद है, भक्ति पसंद है, इंसान पसंद हैं, लेकिन इंसान जो हैवानियत की हद को पार कर रहे हैं, वो बाबा को कतई पसंद नहीं,  तो फिर केदारपुरी के इर्द-गिर्द अपनी गंदगी को खुशी-खुशी तजकर हम किस भगवान से साक्षात्कर प्राप्त कर रहे हैं। पालीथीन, प्लास्टिक वहीं छोड़कर ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने में  अहम भागीदारी सुनिश्चित कर रहे हैं। चंद नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिये केदारनाथ मंदिर को बंद तक करवा रहे हंै जिससे तीर्थयात्रियों की आस्था चोटिल हो रही हंै। छः माह कपाट खुला रहने की परंपरा है, तो अपनी स्वार्थ सिद्ध करने के लिये क्यों मुटठी भर लोग भगवान के दर को बंद कर रहे हैंै। बाबा किसी के पैत्रिक धन सम्पदा नहीं है, जिसे जब चाहो बंद करो और जब चाहे खोल दो। 
दूसरी सबसे अहमतरीन बात यह है कि केदारनाथ में हेलीकाॅप्टर से जाने वाले तीर्थयात्री 21 सौ रूपये देकर बैक डोर से सहज ही दर्शन कर सकते हैं, जो गरीब सच्ची श्रद्धा लेकर कई कई दिनों की यात्रा करने के बाद धाम में पहुंचता है, वो घंटो लाइन में खड़ा होकर बामुश्किल बाबा के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त करता है। इस बीच उससे धक्कामुक्की और गाली गलौच ना हो, कतई संभव नहीं। कई ऐसी भी बातें हैं, जिनका जिक्र यह लेखक शब्दों के माध्यम से नहीं कर सकता है, आखिरकार मैं भी केदारघाटी का निवासी हूूं। और सब कुछ जानने के बाद भी अपने कृत्यों को सबके सामने लाना भी श्रेयस्कर नहीं है। 
बहरहाल सभी लोग जानते हैं, कि केदारनाथ धाम में और क्या-क्या होता है। अभी भी वक्त है, संभलने का, भोले सबको संभलने का वक्त दे रहा है, त्रासदी के बाद सभी अपने अपने गंदे कृत्यों के बारे में जानते हैं, और एक-एक बात को स्वीकार भी कर रहे हैंै। अभी वक्त है कि अपने कुकृत्यों का प्रायश्चित करने का। यदि प्रायश्चित कर दिया, और आगे से ऐसा नहीं करने का वादा करो, तो बाबा भोले भी हैं, वे अपना सर्वस्व अपने भक्तों पर भी न्यौछावर कर देते हैं।  केदारनाथ धाम रहेगा तो हमारी रेाजी रोटी चलेगी, यदि यह विध्वंस हो गया तो हमें भी अन्यत्र रोजगार के लिये पलायन करना पड़ेगा.....यह तो इन तीन महीनों में आप हम लोगो को पता लग ही गया होगा.....