लोक आराधना के शक्तिपीठ


भारतीय धर्म एवं संस्कृति के विषय में जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने कहा था - ''यदि कोई मुझसे पूछे कि इस आकाश के नीचे वह स्थान कौन सा है जहाँ मानव मानस का अपूर्व, अलौकिक और पूर्ण विकास हुआ हो, जहाँ मानव विकास की गहनतम गुत्थियों को सुलझाया और समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया गया है, प्लेटों और काँट के भक्त भी जिसकी सराहना किये बिना नहीं रहेंगे तो मैं असंदिग्ध रूप से कहूँगा कि वह स्थान भारत है। यदि कोई मुझसे पूछे कि वह वांग्मय प्रदान करने वाला कौन सा देश है जो हमारे अन्तरमन और जीवन को पूर्ण सर्वव्यापी, वैश्विक और मानवीय बनाता है, जो जीवन का भौतिक रूप ही नहीं निखारता उसे अनादि अनन्त और सनातन जीवन में रूपान्तरित भी कर देता है तो मैं पुनः भारत की ओर ही संकेत करूंगा।''
इस अनादि, अनन्त और सनातन भारतीय सभ्यता और संस्कृति का उत्स तलाशते हुए समुद्र मन्थन की महाकथा याद आती है। सुर और असुर युगों-युगों तक समुद्र मन्थन करते रहे और तब क्षीर सागर एक-एक कर महान रत्न प्रदान करता रहा लेकिन अचानक एक नितान्त अप्रत्याशित घटक-गरल, महाविष जो चेतना के हृदय में छुपा था, उभरने लगा और इससे भयातुर देव और असुर भाग खड़े हुए। उन्हें इसकी आशा नहीं थी। वह विष तीनों लोकों में फैलने लगा, तब आदि देव शिव महादेव प्रकट हुए और उन्होंने उस हलाहल को पी लिया। असुर व देवता वापस आ गए। पुनः मन्थन होता रहा और अन्त में अमृत-कलश प्रकट हुआ।
इसी अमृत-कलश को हाथों में थामे शिवोऽहम-शिवोऽहम का जाप करते हुए भारतीय संस्कृति की यह काल जयी यात्रा सनातन रूप से चल रही है। शिव इसमें अगुवा रूप में विराजमान हैं और यत् शिवं तत् सुन्दरम्। सुन्दर वही है जहाँ आनन्द, मंगल और कल्याण निहित है जिसमें शिव तत्व नहीं उसमें सौन्दर्य भी नहीं है। शिव शब्द का अर्थ ही शुभ है। जहाँ शिव है वहाँ शुभ ही शुभ है। किन्तु शिव स्वयं शक्ति के बिना अपूर्ण हैं। फलस्वरूप शिव तभी शिव है जब उनके वामांग में शक्ति विराजमान है। यदि दूसरे रूप में विचार किया जाय तो शक्ति की सार्थकता शिव के साथ ही है अन्यथा वह अहंकारी है, कल्याणी नहीं है।
वस्तुतः यह सम्पूर्ण सृष्टि शिव और शक्ति का ही संयोग है। शिव के साथ शक्ति के दो रूपों की कथा आती है। प्रथम रूप सती है और दूसरा पार्वती का। सती अपने पितृ गृह में जब यज्ञ कुण्ड में अपने शरीर को भस्म कर देती है तब दूसरा जन्म लेकर पार्वती हो जाती है। शिव समान रूप से वही रहते हैं। शक्ति को ही मरना और जन्म लेना पड़ता है। सती के भस्म शरीर को कंधें पर लादकर शिव विक्षिप्त होकर जब कैलाश की ओर प्रस्थान करते हैं तो जहाँ-जहाँ सती के भस्म शरीर के अंग गिरते हैं, वहाँ-वहाँ शक्ति पीठ स्थापित हो गये हैं। स्थूल रूप में शिव के दो रूप हैं - महाकाल और आशुतोष लेकिन सूक्ष्म रूप में शिव का कोई एक रूप नहीं है। वह हर समय अपना नया रूप लेता हैं और उसके अनुरूप ही शिव को शक्ति की आवश्यकता होती है। शिवत्व के अनुसार ही शक्ति को भी रूप धारण करना पड़ता है। शारदीय नवरात्रों में शक्ति के विविध रूपों का नौ दुर्गा के रूप में पूजन-अर्चन का विधान है।
प्रथम शैलपुत्री च द्वितीय ब्रहमचारिणी। तृतीयं चन्द्रधण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।। पंचम स्कन्दमातेति षष्ठ कात्यायनीति च। सप्तम कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता।।
शारदीय नवरात्रों में प्रथम नवरात्र में शैलपुत्री की अर्चना होती है। शैलपुत्री दृढ़ संकल्प की प्रतीक है। 'बरौं त शम्भु न तो रहौं कुआंरी' उसके दृढ़ संकल्प को ही व्यक्त करता है। गौरी का यह संकल्प बल आज भी पर्वत पुत्रियों में परिलक्षित होता है। आज उत्तराखण्ड राज्य का सारा धन-धान्य इन्हीं पर्वत पुत्रियों के संकल्प बल का प्रतिफल है। लोक कल्याण के लिए ही पार्वती भस्मीभूत शिव की अद्र्धांगिनी बनी, फिर कार्तिक और गणपति को जन्म देती है। यही लोक कल्याण उत्तराखण्ड की नारी में भी समाहित है। वह पुत्रों को जन्म देती है देश की रक्षा के लिए। आज उत्तराखण्ड में हजारों ऐसी गौरवमयी माताएं है जिनके पुत्रों ने अपने लहू से देश की सीमाओं को सींचा है।
इन नौ रात्रों में ऐसी ही वीर माताओं की आराधना का भी उत्सव मनाया जाना चाहिए। दुर्गा की उपासना करने वाले मूर्ति की तो पूजा करें और घर-परिवार तथा समाज की सजीव प्रतिमाओं की उपेक्षा करें तो यह हास्यास्पद आत्मवंचना होगी। कर्महीन पूजा केवल आडम्बर मात्र है। लोक आराधना सबसे बड़ी पूजा है। उत्तर रामचरितम् में महाकवि भवभूति लिखते हैः-
स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीयपि/आराधनाय लोकानां यु चतो नास्ति व्यथा।
इसी लोक आराधना के लिए श्री राम-सीता का परित्याग कर देते है। भले ही वह उनके वियोग में स्वयं आंसू बहाते हैं। अभिप्राय यह है कि लोक राम से भी बड़ा है। राजा की अपनी कोई इच्छा नहीं होती। लोक की इच्छा में ही राजा अपनी इच्छा का दर्शन करता है। आधुनिक प्रजातंत्र में तो लोक की इच्छा ही सर्वोपरि है। वह राजा को रंक और रंक को राजा बना सकती है। आवश्यकता है, हमारे चुने हुए प्रतिनिधि विधायिका व संसद को लोक आराधना के शक्ति पीठ समझें और हृदनुसार आचरण करें। शिव इसलिए  लोकेश्वर हैं क्योंकि उन्होंने लोक-हित में स्वयं गरल को अपनाया और अमृत लोक के लिए छोड़ दिया। समुद्र मंथन की महाकथा के बहुत से निहितार्थ हैं, जिन्हें आज के सन्दर्भ में परिभाषित करने की आवश्यकता है। आज के बहुत से जन नेताओं को भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं के मुखौटे पहनाकर उनकी जयकार करना तो निरा चापलूसी है। जनता का धन हड़प कर लोक नायक नहीं बना जा सकता है। लोक के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर ही लोक नायक बना जा सकता है। इस देश की माटी ने तो हमेशा-हमेशा न्यायी और तपस्वियों को ही सर माथे लगाया है हमें अपनी इसी आदि अनन्त और सनातन संस्कृति को जीवित रखना है। त