लोक और धर्म


लोक से मेरा आशय मनुष्य समाज से है। हमारा समाज विभिन्न मज़हबों, सम्प्रदायों, व जातियों-उपजातियों में बंटा हुआ है। सबकी अपनी-अपनी विशिष्ट पूजा-पद्धति, खान- पान, रीति-रिवाज़ व रहन-सहन के तरीके भिन्न हैं। फिर भी उनमें कई समानतायें परिलक्षित होती हैं। इस निरालेपन से ही भारतीय संस्कृति का वैभव विश्व को सदा से ही लुभाता आ रहा है। अनेकता में एकता' भारतीय संस्कृति का ही सूत्रवाक्य है। इसी को सार्वभौम या सनातन या सच्चा धर्म कहते हैं। थोड़ी बहुत भिन्नता तो प्रत्येक मनुष्य में होती है जिसे हम बड़े अर्थों में भिन्नता नहीं कह सकते। यही कारण है कि सदियों से हमारे संत और पीर-पैगम्बर सारे संसार के लोक कल्याण के लिये एक ही धर्म (मानवता) की बात करते आ रहे हैं। 'धरति लोकान     ध्रियते पुण्यात्मभिः इति वाः' यानि जो लाक को धारण करता है अथवा जो पुण्यात्माओं द्वारा धारण किया जाता है, वह धर्म है, इसलिये कहा गया है।
हमारे धार्मिक ग्रन्थ व शास्त्र कहते हैं-'सत्यं वद, धर्मं चर' यानि सत्य बोलो, धर्म के अनुसार आचरण करो...क्योंकि सत्यं धर्मः सनातनः यानि सत्य ही सनातन धर्म है...'धर्मो हि परमो लोके धर्मे सत्यं प्रतिष्ठितम्' यानि संसार में धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है व धर्म में ही सत्य की प्रतिष्ठा है। सत्य को यों भी शास्त्रों में धर्म के दस अंगों में गिना जाता है-धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः, धीर्विद्या सत्यमक्रोधें दशकं धर्मलक्षणम्' इस प्रकार हम दृढ़ता से कह सकते हैं कि धर्म के ये दस लक्षण संसार के सभी मनुष्यों को अवश्य ही भाते लुभाते हैं। शायद ही कोई पत्थर दिल इंसान होगा जो धर्म के इन दस लक्षणों से सहमत न हो। फिर लाक मन में धर्म के प्रति अभाव कैसे? और क्यों?
असल में हमारी इस सभ्यता व संस्कृति में हमारे क्रमिक वैज्ञानिक विकास के साथ-साथ कुछ ऐसा भ्रांतियों ने भी अपनी घुसपैठ हमारे मनों में दृढ़ कर दी है कि हम चाहते हुये भी अपने अहं के कारण उसका परित्याग नहीं कर पाते हैं। इसका मूल कारण सनातन धर्म की अवहेलना की है। फलस्वरूप मानव की मानव के प्रति विद्वेषिता की भावनायें प्रघर्षित होती रहती हैं। समाज में होने वाले हर भले-बुरे हर प्रकार के क्रियाकलाप हमारे मन पर, हमारी बुद्धि-विवेक की धारण क्षमता व भेदानुभेदानुसार अपना प्रभाव डालते हैं। जिस कारण हम कुछ विचार व क्रियाओं के प्रति विमूढ़ित हो जाते हैं। और धीरे-धीरे वे क्रियाकलाप हमारे चाहने न चाहने पर भी हमें अपने चंगुल से बचने नहीं देते। यह एक विचित्र विडम्बनस है। बस यहीं से एक अस्वाभाविक अलगाव की दरारें चमकने लगती हैं। एक जाति की कई जातियां, एक मजहब के कई मजहब और एक मनुष्य की मनुष्यता विलुप्त होनी शुरू हो जाती है। हमारे नबी, पीर-पैगम्बर और संतो ने हमें इसी भेद-बुद्धि व मन के धोखे के प्रति सचेत रहने के लिये उपदेश दिये हैं।एक प्रसंग महान सूफी-संत बाबा साईं बुल्लेशाह से संम्बधित है-एक बार साईं बुल्लेशाह अपनी कोठड़ी में खुदा के     ध्यान में लीन थे। रमजान का महीना था। उनके तीन-चार शिष्य आंगन में बैठे गाजर खा रहे थे। तभी तीन-चार उधर से गुजर रहे रोजेदारों ने उनसे पूछा-भई तुम कौन हो? शिष्य बोले-मुसलमान हैं...रोजेदार सुनते ही क्रोधित हुये-अरे रमजान है और तुम गाजरें चर रहे हो? वे बोले- हमें भूख लगी है तभी खा रहे हैं...इस रोजेदारों ने उन पर दो-चार कस दी और फिर वे झोपड़े में घुसे और साईं से पूछा-तुम कौन हो? साईं ने मुंह से कुछ नहीं कहालेकिन आसमान की ओर बांहे उठा दीं...तीन-चार बार पूछने पर भी साईं ने वैसे ही उत्तर दिया...रोजेदार उन्हें गूंगा-बहरा समझ कर चल दिये। उनके जाने के बाद शिष्यों ने अपनी पिटाई का किस्सा सुनाया  तो साईं ने कहा कि रोजेदारों ने उनसे क्या पूछा था? वे बोले कि उनहोंने पूछा कि तुम कौन हो? तो हमने कहा कि मुसलमान हैं। इस पर साईं बोले-कुछ बनोगे तो पिटाई ही खाओगे...
संत किसी भी देश, जाति, धर्म व समय में क्यों न पैदा हुआ हो वे हमें एकमात्र मानवीय धर्म की ही राह दिखाते हैं। उनके अनुसार हम सब एक ही परमात्मा की संतान हैं।हमें यह भी समझना चाहिये कि संत हमारे मन पर विभिन्न परिस्थितियों के कारण जमी कलुष को धोने के लिये ही इस धरा धाम में बार-बार जन्म लेते हैं। वे कहां जन्म लेंगे ये उस परमात्मा की ही इच्छा पर निर्भर है। और उनके अनुयाई उन का प्रचार करते रहते हैं। जैसे-जैसे समय बीतता रहता है उन शिक्षाओं में ऐसा कुछ जुड़ता जाता है जिसे उन संतो ने कभी कहा ही नहीं था। क्योंकि संत ऐसा कुछ कहते ही नहीं हैं जो भविश्य में कभी मिट जाये या बदल जाये या जिससे किसा भी प्रकार का विवाद हो जाये। वे तो सत्य ही कहते हैं और स्वयं भी सत्य के ही स्वरूप होते हैं। अतः उनकी शिक्षाओं में जो कुछ ीाी कालान्तर में जुड़ता है या जुड़ जाता है, वही जुड़ा हुआ लोक में अलगाव पैदा करता है और जाति-मजहब के भेद पेद करता है। इसके साथ ही कुछ भिन्नता भौगालिक कारणों से भी आ जाती है। यथा पूजा-पाठ, खान-पान व वस्त्रादि...
आज से कई हजारों वर्ष पूर्व जब किसी भी    धर्म का कोई अस्तित्व नहीं था, लोक तब भी था। लोक था तो उसकी अपनी सभ्यता- संस्कृति भी थी। पर सभ्यता और संस्कृति का आधार भी धर्म ही है, अतः एक शाश्वत धर्म सदा से था। अब पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि धूर्म में ही लोक समाहित है और जिन धर्मों और उनके संप्रदायों, उसकी जातियों तथा उनकी उपजातियों के जो भी अनतर हमें अनुभव होते हैं, दिखाई देते हें या जिनका हमें सामना करना पड़ता है, वे वे हमारी ही संकुचित मानसिकता के कारण उपजे हैं। अतः हमें हर-हमेशा लोक में अपनी समझ व बुद्धि-विवेक से संतुलित मानवीय आचरण करना चाहियेे इससे कहीं भी, कभी भी एक-दूसरे के प्रति प्रेम और सदभाव की श्रीवृद्धि ही होगी।