लोक्तन्त्र का पाखंड रचता भारतीसमाज


लोकतंत्र की सबसे लोक लुभावन परिभाषा महान अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने दी है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र जनता का, जनता द्वारा तथा जनता के लिए शासन है। यह परिभाषा सै(ान्तिक रूप से जितनी सरल प्रतीत होती है, व्यवहारिक रूप से उतनी ही जटिल है। आम जनता की लोकतंत्र में भागीदारी केवल वोट डालने तक ही सीमित हो गयी है। उसका बतौर प्रतिनिधि चुना जाना, नीति निर्माण में सक्रिय भागीदारी निभाना, सवाल पूछना या गलत फैसलों की जम्मेवारी तय करने में कोईईभूमिका नहीं है। वस्तुतः देश में लोकतंत्र सिर्फ कागजों में है, जमीन पर नहीं। आजादी के सात दशकों के बाद भी कुछ बुनियादी सवाल जयों के त्यों अनसुलझे बने हुए हैं। हर नए चुनाव के साथ हमारा यह विश्वास गहराता जा रहा है कि देश में लोकतंत्र के बजाय 'कुलीनतंत्र' अथवा 'धनिकतंत्र' शासन प्रणाली है, जिसमे सिर्फ पैसा, पावर और पोजीशन का प्रभाव है। इस निर्मम तंत्र में गांव और गरीब, किसान और मजदूर, शोषित और वंचित, उपेक्षित और दमित की कोई आवाज़ नहीं है। उनकी चिंता सामुहिक विमर्श से लगभग गायब है। निकाय चुनाव हों या विधानसभा अथवा लोकसभा के चुनाव हों, हर जगह चुनाव में एक सामान आत्मघाती प्रवृत्तियाँ सामने आ रही हैं। यह आश्चर्यों का आश्चर्य है कि अपने देश में किसी भी चुनाव में जमीनी और ज्वलंत मुददे जैसे भूख, भय, भष्टाचार, गरीबी, बेकारी, भुखमरी, किसान संकट, अति जनसँख्या वृ(ि, अशिक्षा, पर्यावरणीय संकट, कुपोषण, नारी सुरक्षा, त्वरित न्याय और समान नागरिक आचार संहिता चुनावी राजनीति से और राजनैतिक दलों के एजेंडे से पूरी तरह गायब हैं...सही भावना क़े साथ लोकतंत्र अपनाने वाला कोई भी राष्ट्र इन सवालों को प्राथमिकता में रखता, लेकिन भारतीय राजनीति अगड़े-पिछड़े, दलित सवर्ण, धर्म , जाति, गोत्र, लिंग और भाषा के सतही विमर्शों में उलझकर रह गयी है। यह देश का दुर्भाग्य है कि देश में लोक लुभावन यानि पाॅलिटिक्स  आॅफ पाॅपुलिस्म का दौर चल रहा है। गरीब जनता को उपहार देने का वायदा करो, सब्सिडी या कर्जमाफी की खैरात बांटो और सालों साल राज करो! अफ़सोस कि गरीबी, बेकारी, अशिक्षा और धार्मिक और जातीय पूर्वाग्रहों के कभी न टूटने वाले बंधनों में जकड़ा भारतीय समाज बड़ी आसानी से राजनैतिक चालबाज़ियों के फेर में पड़ जाता है। जनता को टीवी, फ्रिज, मिक्सचर, ग्राइंडर, कपड़े, खाना और पैसा जरूरी लगता है न कि बीते सालों का हिसाब मांगना या आने वाले सालों की कार्ययोजना पर सवाल करना। अगर हम भारतीय राजनीति का स्वणर््िाम भविष्य लिखना और देखना चाहते हैं तो हमे डोल पाॅलिटिक्स ख़त्म करनी ही होगी। जनता को तात्कालिक लाभों का लोभ त्यागकर दीर्घकालिक निवेश की बात सोचनी पड़ेगी। शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी, सुरक्षा, रोजगार और भेदभाव मुक्त विकास जैसे सवालों पर बात करनी होगी। महज आखर में चीखते लोकतंत्र को अनुभूति में लाना होगा।
अभी-अभी उत्तराखंड में निकाय चुनाव संपन्न हुए हैं और एक बार फिर हम सबने भीतर की गन्दगी को जी भरकर एक दूसरे पर उड़ेला। विवेक को वनवास देकर, सद्बु(ि पर ताले लगवाकर अचानक हमारा जातिबोध, धर्मबोध और भाषाबोध जाग उठा। दारू, मुर्गा, मांस और पैसा पानी की तरह बहा निकाय चुनावों में। जनता लोकतंत्र और चुनाओं को एक पवित्र और समतामूलक व्यवस्था न मानकर महज बारात और दावत समझ रही है। हर गली में वोटों की नुमाइश और सेल लगी हुईई है। वोट का जो खरीददार है, वही इंडिया और भारत के बीच की विभाजन रखा का भस्मासुर भी है और वही है लोकतंत्र का सबसे बड़ा रोड़ा भी। इस लेखक को बार-बार लगता है कि जब तक गरीबी और अशिक्षा ;जो अन्योंन्याश्रित हैंद्ध का स्थायी समाधान नहीं हो जाता, तब तक भारत सही अर्थों में लोकतान्त्रिक देश नहीं बन सकता। और सजग वर्तमान की आहट भरी चेतावनी सुनकर भी जो समाज मुर्दा बना रहेगा, उसकी हालत आगामी 700 सालों तक भी वैसी ही रहेगी जैसे गत 70 सालों में रही है।
समकालीन भारत में सिर्फ युवा ही नहीं, बल्कि पूरा युग भटक रहा है। द्वेष सबकी दृष्टि में है लेकिन देश किसी की भी चिंता में नहीं है। युवाओं के जोश और जिंदादिली के बारूद को अपने तात्कालिक फायदों के लिए सबसे ज्यादा राजनेताओं ने इस्तेमाल किया है। युवा फ़ूड, फ़ैशन, फन के व्यामोह में उलझकर रह गया है...स्वाभाविक नशे की इस उम्र में अगर कोई असली नशे का आदी हो जाये तो 'डूबने' की हद का अनुमान लगाना मुश्किल होगा। भारत की समकालीन राजनीतिक गन्दगी को जिस हुनर और जज़्बे के साथ युवा साफ़ कर सकते हैं उतना कोई नहीं कर सकता। लेकिन देश को बचाने के लिए युवाओं को पहले स्वयं को बचना होगा। भारत की राजनीति और राजनीति का भारत बदलेगा, लेकिन केवल तभी जब भारत का युवा बदलेगा। फ्रांसिसी विचारक वाॅल्टेयर कहा करते थे-'जब एक राष्ट्र सोचने लगता है तब उसे रोकना मुश्किल है'। राजनैतिक रसातल के हमारे इस संक्रमणकाल में अगर भारत के युवा ने नहीं सोचा और भारत की राजनीति ने युवा भारत के लिए नहीं सोचा, तो हमको सचमुच बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।
यह अच्छी बात है कि इन 70 सालों में भारत में सड़कें चैड़ी हुए हैं, इमारतों की ऊंचाइयां बढ़ी हैं और सागर की गहराइयों तक हमारी धमक और दखल बढ़ी है लेकिन अभी भी चैड़ी सड़कों पर चलने का हुनर, गगनचुंबी इमारतों में रहने का शऊर और गहराईयों में उतरने की कला से हम कोशों दूर हैं। अभी भी बदइंतजामी के धारावी और भूख के कालाहांडी बाक़ी हैं, अभी भी आतंक के अखनूर और शोषण के सोनागाछी बाक़ी हैं। भय के चम्बल, बेकारी के रुहेलखंड और गरीबी के दुमका हैं। चुनाव सिर्फ बारी-बारी से सत्ता की मलाई खाने के लिए नहीं होते, जीवन के इन सुनामियों पर नकेल कसने के लिए भी होते हैं।