माँ नंदा ने रखे चोटियों के नाम


विश्व की सबसे लम्बी दूरी की नंदा देवी राजजात यात्रा जितनी पहाड़ियों को लांघकर जाती है, उन सभी चोटियों का नाम मां नंदा ने रखे थे। दक्ष प्रजापति देव कन्या का श्री नंदा देवी का जन्म ़़ऋषिकेश में हुआ था। जो कैलाशवासी शिव शंकर को ब्याही गयी थी। विवाह के बाद एक बार हिमालय की चोटियों से विचरते हुये देवी न ेएक बार शिव से पूछा कि इन वर्फीली चोटियों के क्या नाम है। शिवजी ने उत्तर दिया , कि इस सम्पूर्ण क्षेत्र को हिमालय कहते हैं। देवी ने जिज्ञासा प्रकट की कि पहचान के लिये इन चोटियों के कुछ विशेष नाम तो होना चाहियेे।
शिवजी ने कहा कि तुम्हें मुझसे अधिक जानकारी है। तुम बुद्धिमान हो इसलिये इन पवित्र सुन्दर चोटियों का नामकरण भी तुम्हंें ही करना चाहिये। नंदा देवी ने अपनी बांयी ओर के सबसे उंचे शिखर का नाम नंदा देवी पर्वत रखा। इसके बाद  वाला वर्फानी स्थान नंदकोट नंदा वन अर्थात नंदा की जड़ी बूटी का वन, नंदाखाट अर्थात नंदा की चारपाई, नंदा त्रिशुली अर्थात त्रिशूल जिन पर प्रभु का वास था उसका नाम घुंघटी और और यहां से जो नदी बहती है ,उसका नाम नंदाकिनी रखा और कहा कि इससे सलंग भूमि नंदाक कहलायेगा। और मेरी वहन का वास कुरूड़ नंदाक में होगा। इनके द्वारा हर साल बैतरीणी कुंड तक छोटी जात की जायेगी। शिव ने तथास्तु कहकर निर्णय दिया कि बाकी हिमालय क्षेत्र का नामकरण मैं करूंगा। दक्ष प्रजापति द्वारा किये गये दशाश्वमेघ यज्ञ में देवी के आत्मदाह के बाद उनके शरीर के 51 अंग अलग अलग स्थानों में गिरे। कालांतर में यही सिद्धपीठ कहलाये। कुूछ समय बाद ऋषिकेश हेमंत ़ऋषि की पत्नी माया मंडूला के गर्भ से नंदा का पुर्नजन्म हुआ । और वह फिर से शिव का  ब्याही गयी। हेमंत ऋषि के भाई भारद्वाज की संतति में एक पं्रकांड पंडित हुयैं वे सातवी ंशताब्दी में धार मालवा गये और वहां के राजा द्वारा सम्मानित पाकर राजा को बद्रीनाथ यात्रा के लिये प्रोत्साहित किया। 
राजा कनकपाल हरिद्वार ऋषिकेश पहुंचे। उधर बद्रीनाथ ने चांदपुर गढ़ी के राजा भानुप्रताप को आकाशवाणी की कि हे राजा तू हरिद्वार ऋषिकेश जाकर राजा कनकपाल की यात्रा पूरी होने पर उन्हें गढ़ी लाकर अपनी एकमात्र कन्या का विवाह में देकर और राजपाठ सौंपकर मेरे धाम मे ंतपस्या के लिये आ जा। राजा भानुप्रताप ने ऐसा ही किया। उनके पास पूजा के लिये देवी का श्रीयंत्र था, जिनके प्रभाव े सवे देवताओं के साथ भाष्य करते थे। राजा भानुप्रताप द्वारा बद्रीनाथ की पूजा आदिबदरीह नामक स्थान पर की जाती थी। और शिवष्जी की पूजा शैलेश्वर मठ में। समस्त राज्य के साथ श्रीयंत्र एवं ये दोनों स्थान भी राजा कनकपाल को मिले । संवत 745 विक्रमी में राजना कनकपाल चांदपुर की राजगददी पर बैठैं।
श्रीनंदादेवी ऋषिकेश स्थित भारद्वाज वंशज आद्यगौड़ ब्राााम्हण के साथ इस अवसर पर चांदपुर गढी आयी। मायके और ससुराल का रिश्ता यही कायम हो गया। यहीं से उन्हें राज राजश्वरी से भी पुकारा जाने लगा। वैसे कहा जाता है कि राजा कनकपाल के छोटे भाई चांदपुर गढी के नजदीक जा बसे। उस स्थान का नाम कांसवा पडा और कांसुवा के कुंवर पुकारे जाने लगे। राजा के आद्यगौड ब्राम्हण के भाई बन्ध्ु गोदी नामक तोक में बसे । गोदी का अपभ्रश नौटी हो गया और वे ब्राम्हण नौटियाल कहलाये जाने लगा । आठवीं सदी में राजा कनकपाल ने श्रीयंत्र नौटी ले जाकर एक चबूतरे में भूमिगत कर वहीं पूजा का विधान बनाया । तब से यह स्थान नंदादेवी श्रीयंत्र माना जाने लगा। देवी ने इच्छा व्यक्त की कि मेरे पिता ने मुझे एक नंगे साधु से ब्याहा है, इसलिये मुझे ससुराल भेजने मेरे मायके वाले आयेंगे। इसलिये नवीं शताब्दी से चांदपुर गढी के राजा ने नंदादेवी राजजात का आयोजन किया।