महन्त अवैद्यनाथ जी


वर्ष 1984 की बात है, विश्व हिन्दू परिषद के पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में हरिद्वार मेरा केन्द्र था। मा0 अशोक जी सिंघल का सन्देश प्राप्त हुआ कि महन्त अवैद्यनाथ जी हरिद्वार, ऋषिकेश आना चाहते हैें, उन्हें कुछ सन्तगणों से भेंट करनी है। मैं महन्त जी को लेने नाथों का दलीचा, जो हरिद्वार में गोरक्षपीठ का प्रतिष्ठित केन्द्र है, वहाँ पहँुचा। महन्त जी प्रातःकाल ठीक समय पर तैयार थे। उन्होंने मेरा नाम पूछा तथा निकट बिठाया और बोले-तुम्हारा गांव कहां है? मेरे उत्तर देने पर फिर पूछा कभी यमकेश्वर घाटी में गये हो? मैंने हाँ कहा। बोले-स्र्वगाश्रम होकर या दुगड्डा के रास्ते। उनके इन आत्मीयतापूर्ण प्रश्नों से मेरी जिज्ञासा बढ़ी कि पहाड़ के सम्बन्ध में उनके ये प्रश्न किस बात की ओर संकेत करते हैं। उनकी इस निकटता के आभास से मेरी झिझक खुल गयी। ऐसा लगा जैसे अपने परिवार का एक बुजुर्ग कुशलक्षेम पूछ रहा हो। उनका सरल सौम्य व्यवहार, प्रफुल्लित मुखाकृति, बात के लहजे में गोरखपुरी मिश्रित पहाड़ीपन, ऐसी निश्छलता कि कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। हरिद्वार से चलकर ऋषिकेश तक के मार्ग में उन्होंने पहाड़ के जीवन की कठिनाइयों का बारीकी से वर्णन किया। अनेक संघर्षों को झेलते हुए पर्वतीय नर-नारी कैसे अपना जीवन यापन करते हैं, इसका उनको भान था। क्योंकि अपने शैशवकाल से तरूण अवस्था तक उन्होंने इस कठिन क्षेत्र में सब कुछ देखा, भोगा था। व्यस्त सामाजिक जीवन तथा दूर रहते हुए भी वे अपने मातृस्थान की चिन्ता करते थे, इसलिए कि यह दुर्गम क्षेत्र निर्धनता की पीड़ा से ग्रसित है। उनके सद्प्रयासों से यहाँ कुछ जीवनोपयोगी कार्य भी प्रारम्भ हुए।               
अनेक सन्तगणों से दिन भर उनकी भेंट हुई, सभी ने उनके विषय को मन से सुना। उस समय वे राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के अध्यक्ष भी थे। उनके विषय प्रतिपादन पर सभी की स्वीकारोक्ति थी। संध्याकाल में वे स्वर्गाश्रम स्थित परमार्थ के परमाध्यक्ष स्वामी भजनानन्द जी से मिलने पहुँचे। उनका मत था कि कार से लम्बे रास्ते होकर नहीं जायेंगे, नौका से चलेंगे। नौका पर सवार सभी यात्री उनका पावन स्पर्श चाहते थे, यात्री आनन्दित थे कि वे गोरक्षपीठाधीश्वर के साथ गंगा जी पार कर रहे हैं। वयोवृद्ध सन्यासी पूज्य स्वामी भजनानन्द जी को आभास था कि महन्त जी परमार्थ पहुँच रहे हैं। स्वामी जी ने विधि विधान से महन्त जी का स्वागत किया, अपने कक्ष में भूमि पर बिछे हुए आसन पर ऊपर की ओर ससम्मान उन्हें बैठाया। इस समय का दृश्य अलौकिक था। गंगा की निर्मल धारा के सदृश दो श्रेष्ठ सन्तों के पावन मिलन के साक्षी होने का सौभाग्य दुर्लभ ही है। स्वामी भजनानन्द जी ने भावुक होकर महन्त अवैद्यनाथ जी का दाहिना हाथ अपने सिर पर रखा और गद्गद् भाव से बोले,- आज मेरी कुटिया पर गोरक्षपीठ आयी है, हमारा सौभाग्य है।' अपनी आयु से कहीं अधिक बड़े स्वामी भजनानन्द जी के इस स्नेहपूर्ण व्यवहार से अवैद्यनाथ जी भाव विभोर थे, बोले-मैं तो श्रीराम जी के मन्दिर की पुनप्र्रतिष्ठा के लिए सहयोग हेतु घूम रहा हँू, इस पुनीत कार्य के लिए आपका आशीर्वाद प्राप्त करने आया हूँ। भजनानन्द जी बोले-महन्त जी आपका संकल्प बड़ा है, इसकी पूर्ति हो यही सदिच्छा है। गोरक्ष पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन महन्त अवैद्यनाथ जी का पावन सानिध्य जिनको भी प्राप्त हुआ होगा, वे धन्य हुए होंगे। उनके प्रति कृतज्ञ भाव से यही विनम्र सुमनाँजलि है कि ईश्वर उस कर्मशील सन्त को अपने सानिध्य में स्थान प्रदान करें।