मुखर्जी का बलिदान

१९५३ का जून का महीना था। पंडित नेहरु के मंत्रिमंडल में उद्योग मंत्री रह चुके और अब भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष डा० श्यामा प्रसाद मुखर्जी शेख अब्दुल्ला की श्रीनगर जेल में बंद थे। नेहरु के ही साथी रह चुके मौली चन्द्र ने उन्हें कहा भी कि मुखर्जी दिल के मरीज हैं, उन्हें पहाड की उंचाई पर मत कैद करें, कहीं नीचे रखा जा सकता है। मुखर्जी को जम्मू की जेल में भी रखा जा सकता था। लेकिन नेहरु ने कहा कि ठंडी जगह है, वे वहीं सुखी रहेंगे। उसके बाद नेहरु श्रीनगर भी गये, लेकिन उन्होंने अपने पुराने साथी मुखर्जी से मिलना उचित नहीं समझा। २३ जून को जेल में ही मुखर्जी का रहस्यमय परिस्थितियों में देहान्त हो गया। आज उनकी इस शहादत को साठ साल पूरे हो चुके हैं । इस अवसर पर इतिहास के पद चिन्हों पर एक बार फिर यात्रा करने का प्रयास। 
डा० मुखर्जी रेल से ११ मई को अमृतसर से पठानकोट पहुँचे थे।  पठान कोट में ही गुरदासपुर जिला के उपायुक्त, एक बार फिर मुखर्जी को मिले। उपायुक्त ने बताया कि 'मुझे निर्देश प्राप्त हुआ है कि मैं आप को बिना परमिट के जम्मू जाने दूँ। मैं आप को सायं चार बजे रावी नदी के माधोपुर पुल पर मिलूँगा।' अब स्पष्ट हो गया कि मुखर्जी को जम्मू प्रवेश से रोका नहीं जायेगा। तुरन्त एक जीप का बन्दोबस्त किया जाने लगा जो जम्मू तक जा सके। लेकिन आखरि जीप के ड्राईवर के लिये तो परमिट जरुरी था। वह उसके बिना जम्मू जाने के लिये कैसे तैयार होता? इसी स्थिति में डा० मुखर्जी अपने साथियों समेत जम्मू की ओर रवाना हुये। उनके साथ दिल्ली जनसंघ के प्रधान वैद्य गुरुदत्त भी थे। पंजाब व जम्मू कश्मीर के सीमान्त गाँव माधोपुर पहुँचने पर, बकौल गुरुदत्त 'गुरदासपुर के डिप्टी कमिश्नर, बटाला और गुरदास पुर के रेजीडेंट मजिस्ट्रेट, पठानकोट के रेजीडेंट मजिस्ट्रेट और पुलिस कांस्टेबल तथा अन्य अफसर भारी संख्या में मौजूद थे। हमने अपनी जीप गाड़ी वहाँ खड़ी कर ली और डिप्टी कमिश्नर से जीप के लिये परमिट माँगा। उन्होंने बचन दिया कि हम लखनपुर पोस्ट तक जो पुल के उस पार है, चलें और वे परमिट भेज देंगे। हमारे जाने पर उन्होंने हमारी यात्रा की सफलता के लिये शुभ कामना प्रकट की। लेकिन पुल के उस पार लखनपुर तक पहुँचने का अवसर ही नहीं आया।
पुल के बीचोंबीच कठुआ के पुलिस अधीक्षक और कश्मीर मिलिशिया के जवान खड़े थे। उनमें से एक ने हाथ देकर जीप को रोक लिया।  पुलिस अधीक्षक ने राज्य के मुख्य सचिव का एक आदेश मुखर्जी को थमा दिया जिसमें उनका कश्मीर प्रवेश निषेध था। डा० मुखर्जी विस्मृत थे। वे समझ नहीं पाये कि क्या यह शेख अब्दुल्ला की भारत सरकार से पूरी तरह स्वतंत्र होने की घोषणा है या फिर भारत सरकार और कश्मीर सरकार की कोई साजिश है? उन्होंने यह आदेश मानने से इन्कार कर दिया और आगे बढ़ने लगे। तब एक दूसरा पुलिस       अधिकारी जम्मू दिशा की ओर से मोटर साईकिल पर आया और उसने एक दूसरा आदेश थमा दिया। यह आदेश उन्हें गिरफ्तार करने का था। यह सब कुछ एक नाटक की तरह हुआ, जिसकी योजना पहले से बनाई गई थी। दूसरा आदेश राज्य के पुलिस महानिदेशक का १० मई १९५३ का जारी किया हुआ था, जिसमें लिखा गया था कि, 'डा० मुखर्जी ने ऐसी गतिविधि की है, कर रहे हैं या करने वाले हैं, जो सार्वजनिक सुरक्षा एवं शान्ति के खिलाफ है, इस वजह से, उनको रोकने के लिये कैप्टन ए. अजीज, कठुआ के पुलिस अधीक्षक को निर्देश दिया जाता है कि वे डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी को गिरफ्तार करें और उन्हें अपनी हिरासत में श्रीनगर के केन्द्रीय कारागार में पहुँचायें। यह आदेश जन सुरक्षा अधिनियम के तहत जारी किया गया था। डा० मुखर्जी को बंदी बना लिया गया। अपने निजी सचिव अटल बिहारी वाजपेयी को उन्होंने कहा-'पूरे देश को यह बताओं कि मैं आखरिकार जम्मू कश्मीर राज्य में दाखिल हो गया हूँ, हालाँकि एक बंदी के तौर पर और मेरी गैर मौजूदगी में मेरे काम को बाकी लोग आगे बढ़ायेंगे।' पुलिस डा० मुखर्जीं और उनके अन्य साथियों को लेकर श्रीनगर की ओर चल पड़ी और दूसरे दिन बाद दोपहर तीन बजे वे श्रीनगर की जेल में थे। डा० मुखर्जी की गिरफ्तारी के बाद पंडित मौलिचन्द्र शर्मा नेहरु से मिले और कहा, 'इनका भारी वदन है और हार्ट इनका ठीक नहीं है, इसलिये इनको कश्मीर की उंचाई पर मत भेजिये।' नेहरु ने कहा नहीं ये श्रीनगर में रहेंगे, कोई उंचाई भी नहीं है और न ही पहाड़ हैं। ठंडी जगह है, प्रसन्न रहेंगे। डा० मुखर्जी को श्रीनगर में निशात बाग के समीप के एक भवन को उप जेल घोषित कर रखा गया। वैद्य गुरुदत्त और टेकचंद को भी उसी मकान में रखा गया था। २४ मई को पंडित जवाहर लाल नेहरु भी विश्राम के लिये श्रीनगर पहुँचे लेकिन वे डा० मुखर्जी से नहीं मिले। नेहरु तो अपनी इच्छा से डा० मुखर्जी को मिलने नहीं गये लेकिन जो लोग मुखर्जी से मिलना चाहते थे, उन्हें भी मिलने की आज्ञा नहीं दी जा रही थी। उनके कुछ सम्बधी उन्हें मिलने के लिये श्रीनगर आ रहे थे, यह जान कर उन्हें भारी हर्ष हुआ। परन्तु उसके पश्चात उन्हें इस विषय में कोई समाचार नहीं मिला। (मुखर्जी की मृत्यु के बाद) यह समाचार मिला कि वे लोग श्रीनगर आये थे और उन्होंने भेंट करने के लिये प्रार्थना पत्र भी दिया था परन्तु मुलाकात की स्वीकृति नहीं मिली। डा० मुखर्जी का लड़का पटना से दिल्ली पहुँचा और उसने भारत सरकार से कश्मीर जाने के लिये परमिट माँगा। भारत सरकार ने एक सप्ताह की आनाकानी के बाद परमिट देने से इन्कार कर दिया। वे अधिकारी जो परमिट देने का   अधिकार रखते थे बोले-यदि आप सैर करने के लिये जाना चाहते हैं तो दो मिनट में परमिट बनाया जा सकता है। परन्तु आप अपने पिताजी से मिलने जाना चाहते हैं, इस कारण मैं परमिट जारी नहीं कर सकता।' डा० साहिब के सुपुत्र को निराश पटना लौट जाना पड़ा। श्री हुक्म सिंह ने व्यक्तिगत मित्र के नाते मिलने की अनुमति मांगी थी, परन्तु वह नहीं दी गई। जब उन्होंने कश्मीर सरकार की कुछ इच्छाओं को डा० मुखर्जीं तक पहुँचाने का जिम्मा लिया तब ही उनको भेंट करने की स्वीकृति मिली। इसी प्रकार डा० मुखर्जी के लिये बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने के लिये आये श्री उमाशंकर त्रिवेदी, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट को भी मिलने की स्वीकृति तब तक नहीं दी गई जब तक जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट ने पृथक से मिलने की आज्ञा नहीं दे दी। १९ जून को पंडित प्रेमनाथ डोगरा को भी उसी मकान में लाया गया, जहाँ मुखर्जी कैद थे, लेकिन जगह इतनी छोटी थी कि उनके लिये  परिसर में ही तम्बू लगाना पड़ा।
१९ जून की रात्रि को ही मुखर्जी ने पीठ और छाती में दर्द की शिकायत की। अगले दिन डा० अली मोहम्मद जेल में आये और उन्होंने रोग की पहचान शुष्क पाश्र्वशूल की। डा० अली ने उन्हें स्ट्रेप्टोमाइसिन का टीका लगाया। डा० मुखर्जी ने अलबत्ता अली को बताया कि उनके निजी डाक्टर ने उन्हें स्ट्रेप्टोमाइसिन की मनाही की है। लेकिन अली ने चिन्ता न करने के लिये कहा और कुछ दर्द निवारक गोलियाँ भी दीं। अगले दिन बुखार व दर्द दोनों बढ़ने लगे। २२ जून तक आते- आते हालत और भी गंभीर हो गई। तड़के तीन बजे डा० मुखर्जी के लिये दर्द असह्य हो गया तो उन्होंने वैद्य गुरुदत्त को जगाया। शायद उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। जेल अधीक्षक ने डाक्टर को बुलाया। डा० अली मोहम्मद सुबह सात-आठ बजे के करीब पहुँचे और उन्होंने मुखर्जी को किसी नर्सिंग हाउस में ले जाने की सलाह दी। परन्तु जेल अधीक्षक अपने बलबूते ऐसा नहीं कर सकते थे। उसके लिये जिला धिकारी की अनुमति लेना आवश्यक था और वे इसकी आवश्यक खानापूर्ति में जुट गये। समय हाथ से निकला जा रहा था। लगभग दस बज गये थे। तभी उमा शंकर त्रिवेदी आ पहुँचे। त्रिवेदी ने डा० मुखर्जी की गिरफ्तारी को चुनौती देने वाली बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय में दायर कर रखी थी। आज ही उस पर सुनवाई होने वाली थी।
११-१२ के बीच जेल अधीक्षक टैक्सी लेकर आये और डा० मुखर्जी को श्रीनगर के सरकारी अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया। सायं साढ़े सात बजे उमा शंकर त्रिवेदी फिर उन्हें मिलने के लिये पहुँचे। उस दिन राज्य के उच्च न्यायालय में मुखर्जी की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर सुनवाई हुई थी। न्यायाधीश जिया लाल कलाम ने निर्णय अगले दिन के लिये सुरक्षित कर दिया था। त्रिवेदी को भरोसा था कि अगले दिन जब फैसला आयेगा तो निश्चित ही मुखर्जी को छोड़ दिया जायेगा। लेकिन डा० मुखर्जी को मुक्ति के लिये इस निर्णय की जरुरत नहीं पड़ी। २३ जून को तड़के पौने चार बजे त्रिवेदी के पास पुलिस अधीक्षक पहुँचे और डा० मुखर्जी की तबीयत खराब है, यह बता कर उन्हें अपने साथ अस्पताल ले गये। इसी प्रकार जेल से पंडित प्रेमनाथ डोगरा, वैद्य गुरुदत्त और टेकचंद को अस्पताल लाया गया। सब लोग अस्पताल पहुँच गये तो उन्हें बता दिया गया कि तीन बज कर चालीस मिनट पर डा० मुखर्जी की मृत्यु हो चुकी थी। मृत्यु के समय उनकी आयु बाबन साल थी और दो सप्ताह बाद छह जुलाई को उनका जन्म दिन आने वाला था। जिस समय डा० मुखर्जी अंतिम साँस ले रहे थे उस समय पंडित जवाहर लाल नेहरु लंदन में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के राज्याभिषेक में भाग ले रहे थे। १९४६ में महाराजा हरि सिंह की जेल में बंद अपने मित्र शेख अब्दुल्ला के मुकद्दमे की पैरवी करने के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरु जम्मू कश्मीर गये थे। रियासत में उस समय परिस्थिति ठीक नहीं थी, इसलिए उनको महाराजा की पुलिस ने कोहाला पुल पर रोक लिया था। परन्तु महाराजा ने कोहाला अतिथि गृह में उनके सम्मानपूर्वक ठहरने की व्यवस्था की। तीन दिन बाद नेहरू वापस चले गए। उसके ठीक छह साल बाद डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जीं को उसी शेख अबदुल्ला ने यह कह कर गिरफ्तार कर लिया कि आपको रियासत में प्रवेश की अनुमति नहीं है। अब जम्मू कश्मीर रियासत नहीं थी बल्कि भारत संघ का एक अभिन्न अंग थी। लेकिन शेख ने डा० मुखर्जी को सम्मानपूर्वक रिहा नहीं किया बल्कि पूरे ४३ दिन बाद उनकी लाश कोलकाता उनके घर पहुंचा दी। बहुत वर्षों बाद, महाराजा हरि सिंह के पुत्र और उस समय सदर-ए- रियासत कर्ण सिंह ने लिखा, 'सरकार ने न तो मुझे (डा० मुखर्जी) की बीमारी की कोई सूचना दी थी और न ही उन्हें अस्पताल भेजने की। यहाँ तक की मुझे उनकी मृत्यु का समाचार भी अनधिकृत सूत्रों द्वारा प्राप्त हुआ और वह भी काफी देर से। तब तक उनका शव भी हवाई जहाज द्वारा श्रीनगर से बाहर भेजा जा चुका था।' प्रजा परिषद की ओर से जम्मू के परेड ग्राउंड में डा० मुखर्जीं के देहावसान पर एक सार्वजनिक शोक सभा का आयोजन २४ जून को किया गया। सभास्थल खचाखच भरा हुआ था। तिल धरने की जगह नहीं बची थी। परि -षद के संगठनमंत्री भगवत स्वरुप ने शोक स्वरुप तेरह दिन के लिये आन्दोलन स्थगित करने की सूचना दी। प्रेमनाथ डोगरा ने स्पष्ट कर दिया-'१३ दिन तक डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मृत्यु पर शोक मनाने के बाद, कश्मीर को पूर्णतया भारत में मिलाने के लिये पुनः अधिक शक्तिशाली आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया जायेगा। देश के प्रत्येक व्यक्ति को इस महान यज्ञ में कूदने के लिये तैयार रहना चाहिये। पंडित प्रेम नाथ डोगरा की बख्शी गुलाम मोहम्मद और राज्य के उप गृहमंत्री दुर्गा प्रसाद धर की भेंट हुई। मौलि चन्द्र शर्मा और दुर्गादास वर्मा से भी इन लोगों ने भेंट की। स्वयं पंडित नेहरु भी प्रजा परिषद के नेताओं से मिले व उनकी बातों को सुना।
डा० श्यामा प्रसाद मुखर्जी की शहादत के बाद प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने 3 जुलाई को सभी पक्षों से आन्दोलन बंद करने की अपील की। उस अपील को ध्यान में रखते हुये प्रजा परिषद ने सात जुलाई १९५३ को अपना आन्दोलन समाप्त कर दिया था। प्रजा परिषद द्वारा आन्दोलन समाप्त कर देने पर विभिन्न राजनैतिक दलों की बनी संयुक्त संघर्ष समिति ने भी अपना देश भर में परिषद के पक्ष में चलाया जा रहा आन्दोलन सात जुलाई को ही समाप्त करने की घोषणा कर दी। समिति ने घोषणा की कि-'प्रजा परिषद आन्दोलन के सहानुभूति तथा नैतिक समर्थन में तीन संस्थाओं ने मिलकर भारत में सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ किया था। यह भारत की एकता अखंडता को बनाये रखने के लिये तथा मजहब पर          आधारित पृथकतावादी शक्तियों का विरोध करने के लिये चलाया गया था। प्रजा परिषद की मौलिक माँगे उचित तथा न्यायसंगत थीं। यह कहना पूर्णतया गलत है कि जम्मू कश्मीर के भारत में अधिमिलन न तथा वहाँ भारतीय संवि धान को पूर्ण रुप से लागू किये जाने की मांग साम्प्रदायिक अथवा प्रतिक्रियावादी थी। जम्मू की जनता के साथ सहानुभूति दिखाते हुये भारत की जनता ने हमारे आह्वान के प्रत्युत्तर में जो शान्तिपूर्ण एवं अहिंसात्मक आन्दोलन चलाया, उसके लिये समिति सभी का धन्यवाद करती है। हमने यथासम्भव जनता को आने वाले खतरों से आगाह कर दिया है और केवल सत्तारूढ़ दल को छोड़कर सभी दलों ने इसे स्वीकार भी किया है कि हमारी माँगें साम्प्रदायिक न होकर राजनैतिक व राष्ट्रीय हैं। सारी स्थिति का अध्ययन करने के पश्चात समिति इस निश्चय पर पहुँची है कि हमारा यह लक्ष्य कि इस सरकार पर इस समस्या को आशाप्रद उपाय से सुलझाने के लिये दबाव डालें, पूरा हो गया है। उपर्युक्त स्थितियों में तथा प्रधानमंत्री की अपील के कारण समिति यह निश्चित करती है कि इस समय सत्याग्रह आन्दोलन बंद कर दिया जाये। परन्तु जम्मू के लोगों की माँगों को लेकर वैधानिक संघर्ष किसी भी प्रकार से कमजोर नहीं होगा।' डा० मुखर्जी ने जो कहा था, वह सभी सत्य सिद्ध हुआ। शेख अब्दुल्ला बर्खास्त हुये और गिरफ्तार हुये। पंडित नेहरु ने अपनी भूल स्वीकार कर अपने बीस साल के जिगरी दोस्त शेख के कुकृत्यों पर खेद प्रकट किया व प्रजा परिषद के नेताओं से बातचीत की। जम्मू कश्मीर    विधान सभा ने एक प्रस्ताव स्वीकृत कर राज्य के भारत में अधिमिलन का अनुमोदन किया। १४ मई १९५४ को भारत के राष्ट्रपति ने एक विशेष आज्ञा निकाल कर दिल्ली समझौते की शर्तें पूरी करवाईं।
प्रजा परिषद ने आन्दोलन का लेखा जोखा लेने के लिये ६ सितम्बर को सामान्य परिषद का सम्मेलन बुलाया। पंडित प्रेम नाथ डोगरा ने प्रति निधियों को सम्बोधित करते हुये कहा-'आन्दोलन के इन आठ महीनों में राज्य सरकार ने भारत सरकार की सहायता से हम पर दमन व अत्याचार का हर तरीका इस्तेमाल किया गया। परन्तु इन प्रबल उत्तेजनाओं में जम्मू के लोगों का साहस, धैर्य, संयम और सबसे बढ़ कर अपने मनोरथ के सही होने का विश्वास, दोनों सरकारों की ताकत से भी कहीं ज्यादा ताकतवर सिद्ध हुआ। उनकी गोलियाँ, लाठियाँ, गैस के गोले, योजनावद्ध तरीके से लूटपाट, तंग करना, पाश्विक तरीके से औरतों का अपमान करना और अनेक प्रकार से लोगों को अपमानित करना भी जम्मू के लोगों के उत्साह को भंग नहीं कर सका। क्योंकि भारत के साथ पूर्ण एकीकरण ही सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है। हम ने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये कुछ प्रगति अवश्य की है लेकिन अभी भी कितना कुछ करने के लिये रहता है।