मुक्तक

हम आपके हाथों के औजार हैं मालिक
हम आपके हाँको के शिकार हैं मालिक
उठे, उठकर गिरे, फिर उठे
हम आपके लिये फिर तैयार हैं मालिक



हर तरफ आग है किधर जायें
रक्तस्नानी फाग है, किधर जायें
ढ़ंूढ़ने निकले थे जिन्दगी यारब
श्मशानी बैराग है किधर जायें



ज़ख्म अपना चाटने की आदत
जीभ अपनी काटने की आदत
गमले के जीवन में ही खुश
क़द अपना छाँटने की आदत



रिश्ते भी, गणिकाओं की तरह
ज़िस्मानी, मंडियों की तरह
देखकर मौसम बदल जाते
जम्हूरी झंडियों की तरह



बासंती बयार हैं बेटियां
सावनी फुहार हैं बेटियां
तंदूरी संस्कृति के दौर में भी
फागुनी दुलार हैं बेटियां



हाँ मजबूरी है, 
आग भरा जीवन जीना
हाँ मजबूरी है,
खुद अपने ही आँसू पीना
जिन्दा अरथी पर बैठे हैं
मजबूरी है
हाँ, मजबूरी है,
पैबंद लगी कशरी सीना