नारी


नारी बढ़ती जाती है
इक नदी की तरह
अपनी समस्त भावनाओं
और संवेदनाओं के 
प्रवाह के साथ।


जीवन का अदभुत संगीत 
और आगोश में 
किलकारियों की गूंज
करती है वह नवसृजन
नित् प्रवाहमान होकर।


नदी की ही भांति
लोग रोकते हैं 
नारी का प्रवाह
सिमेट देना चाहते हैं
उसे घर की चाहरदीवारी में
जैसे तालाब या बांध।


पर इन सबसे बेपरवाह
बढ़ती जाती है नारी
अपनी ही धुन में
ताजगी को बिखेरते
मस्ती को समेटते।


जीवन भर झेलती है
झंझावतों व अत्याचारों को
पर चलती रहती अविरल
भावनाओं व संवेदनाओं के 
प्रवाह के साथ
और कहती जाती है
मत तोड़ो नियम प्रकृति का
बहने दो मुझे 
प्रबल आवेग से
अन्यथा सहना पड़ेगा
नियति का प्रहार।