नवगीत

यह रात अंधेरी है, वैसे दीवे की
रोशनी जला कोई दानी हो जाए।
कुछ ऐसा हो जाए मेरे गीतों में।
सुनकर सूरज पानी-पानी हो जाए।
वह जो चल पड़ा जलाने मेरे घर को
महसूस करे, जैसे उसका ही घर है
जिसके हाथों में है तलवार चमकती
वो समझे जैसे कटा उसी का सर है
यदि सीख लिया अपनों को गले लगाना
तो सारी दुनिया दीवानी हो जाए।
दावानल हो तो उसे बुझा दे बादल
पर आगजनी होती आँसू की प्यासी
जो भूल गया रिश्तों में लिखी इबारत
माँ के चेहरे पर कैसे पढ़े उदासी
देखना छोड़ सपना शाही मसनद का
गाली कैसे गुरु की बानी हो जाए।
सि(ार्थ कह रहा- हंस उसी का है यह
जो तन-मन-धन से इसका पालनहारा
जो नाव डुबोते ही आए हैं अब तक
उनको हम कैसे मानें खेवनहारा
युग बदला, बदलो तुम, पिफर कहीं न तुमसे
गोधरा सरीखी नादानी हो जाए। ु