निःसंतानो का पर्व---खड़ा दिवा


उत्तराखण्ड हिमालय में श्रीनगर गढ़वाल अलकनन्दा नदी के बायें तट पर समुद्र तल से 750 मी. की ऊँचाई पर अंक्षाक्ष 30 डिग्राी 13 मिनट उत्तर तथा देशान्तर 78 डिग्री मिनट पूर्व पर स्थित है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार भगवान विष्णु जी ने नारद मुनि का मोह भंग करने हेतु मुनि शीलनिधि की कन्या के स्वयंवर हेतु इस मायानगरी का विधान रचा था। महाभारत काल में यह राजा सुबाहु की राजधानी थी। उस समय यह श्रीपुर के नाम से विख्यात थी। कतिपय साहित्यकार श्रीनगर नाम की उत्पत्ति श्री क्षेत्र से मानते हैं। केदार खण्ड के अध्याय 9 के श्लोक 6 एवं 7 महर्षि उत्फालक राजा धर्मनेत्र को श्री क्षेत्र का भौगोलिक एवं धार्मिक महत्व स्पष्ट करते हैं-
श्री शिला याश्च महात्म्य श्रुणु चैव मनाअतः
गंगाया दक्षिण तीरे शिला परम दुर्लभा
श्री शिलेती समाख्याता सर्वेश्वर्य प्रदायनी
यद किंचित दीयते कामं तत्सर्व लभते परम्।
वनपर्व में इस क्षेत्र के नाम कुणिन्द, वृहत्त संहिता मे कौणिन्द, टालमी के वर्णन में कुणिद्रांइन तथा ह्वेन सांग के विवरणमें ब्रह्मपुर उल्लिखित हैं। इतिहासकार डा. शिव प्रसाद डबराल, पं. हरिकृष्ण रतूड़ी, पण्डित भैरवदत्त शास्त्री, डा. पातीराम, डा. शिवप्रसाद नैथानी, डा. सन्तन सिंह नेगी आदि विद्वान 8 वीं शती में श्री क्षेत्र में आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा कालग्रास बनाने वाली शिला को श्रीयन्त्र का प्रयोग कर अलकनन्दा नदी में पलट देने एवं तदन्तर श्री यन्त्र का अपभ्रन्स श्रीनगर होने को अधिक प्रामाणिक मानते हैं। ऐतिहासिक घटनाक्रम के अुनसार प्राचीन नगर में अलकनन्दा नदी के मध्य में एक प्रस्तर शिला विद्यमान थी। प्रातः काल जिस व्यक्ति की इस शिला पर दृष्टि पड़ती थी वह शिला की चुम्बकीय किरणों से आकर्षित हो नदी की ओर खिंचा चला जाता था तथा वहां देहोत्सर्ग कर दिया करता था। इस प्रकार यह शिला प्रतिदिन एक व्यक्ति को कालग्रास बनाती थी। आदिगुरू शंकराचार्य जब उत्तराखण्ड की यात्रा पर आते समय इस स्थान पर रूके तो क्षेत्रवासियों द्वारा उन्हें इस शिला के विषय में बताया गया। महान तांत्रिक मान्त्रिक एवं यान्त्रिक के रूप में विख्यात शंकराचार्य ने इस शिला को पलटकर क्षेत्रवासियों को मुक्ति दिलायी थी। उनके द्वारा प्रयुक्त श्रीयन्त्र की ख्याति चारों ओर फैल गयी। तदन्तर यही श्रीयन्त्र का अपभ्रन्श श्रीनगर बन गया। पौराणिक काल से अद्यावधि तक कभी विनाशकारी भूकम्प (1 सितम्बर 1803) कभी बाढ़ (25 अगस्त 1864) तो कभी बाह्य आक्रमणों से यह धार्मिक ऐतिहासिक नगरी अनेक बार नष्ट हुयी किन्तु पुनः-पुनः विकसित हुयी। मध्यकालीन श्रीनगर को 1500 ई. में राजा अजयपाल ने बसाया। व बिरही बाढ़ में तबाह हुये श्रीनगर की पुनस्र्थापना पुराने श्रीनगर के समीपस्थ स्थित भलगांव पर की गयी। आधुनिक श्रीनगर गढ़वाल हरिद्वार बद्रीनाथ (दिल्ली-माणा) राष्ट्रीय मार्ग पर ऋषिकेश से 108 कि.मी.  की दूरी पर स्थित है। 
कमलेश्वर मंदिर- अलकनन्दा नदी के बायें तट पर श्रीनगर गढ़वाल में प्रसिद्ध कमलेश्वर मंदिर स्थित है। केदार खण्ड उपपुराण में श्रीनगर गढ़वाल के इस मंदिर को हिमवत प्रदेश के पाँच माहेश्वर पीठों केे साथ उल्लेखित किया गया है। प्राचीन काल में यह मंदिर सिद्धेश्वर नाम से प्रसिद्ध था। कमलेश्वर मंदिर की मान्यता एवं लोकप्रियता को प्रमाणित करता एक महत्वपूर्ण दस्तावेज यह है कि ब्रिटिश काल में गढ़वाल के असिस्टैण्ट कमिशनर मि. ट्रैल ने जब कलकत्ता के गर्वनर जनरल को उत्तराखण्ड हिमालय के मंदिरों की रिर्पोट प्रस्तुत की तो उसमें भारत के प्रसिद्ध ज्योर्तिलिंग-केदारनाथ धाम, बद्रिकाश्रम देवप्रयाग का रघुनाथ मंदिर एवं अल्मोड़ा के जागेश्वरी मंदिर के साथ यदि किसी अन्य मंदिर का उल्लेख किया तो वह श्रीगनर गढ़वाल का कमलेश्वर मंदिर ही था। यह मंदिर अपने प्राचीन धार्मिक महत्व के साथ-साथ पौराणिक आख्यानों, आध्यात्मिक विश्वास-आस्था एवं श्रद्धा के उच्च आयामांें के कारण श्रद्धा का केन्द्र रहा..भगवान राम ने युद्ध के बाद पाप से मुक्ति पाने के लिये इसी स्थान पर भगवान शिव शंकर को प्रतिदिन एक कमल पुष्प अर्पित करते हुये एक हजार कमलों से प्रसन्न करने का निश्चय किया। भगवान शंकर ने उनकी उपासना की परीक्षा लेने हेतु अन्तिम कमल पुष्प छुपा दिया। कमलनयन उपनाम वाले राम ने तब अपने संकल्प को पूर्ण करने के लिए अपने कमल रूपी नयन को निकालकर शिव चरणों में अर्पित कर दिया। तब भगवान ने प्रसन्न होकर उन्हें ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति प्रदान की। उसी समय से यह स्थान कमलेश्वर महेश्वर पीठ के रूप में पूजित हो गया। यह मंदिर निःसंतान दम्पतियों को सन्तान प्रदत्त करने वाला व भक्तों की श्री सिद्धि एवं वैभव में वृद्धि करने वाले देवस्थान के रूप में विख्यात है। प्रसिद्ध इतिहासकार भैरव दत्त डंगवाल जी ने 'पुण्य स्थल श्रीनगर' में उल्लेख किया है कि 300 वर्ष पूर्व श्रृंगेरी के आचार्य शंकराचार्य जी ने कमलेश्वर में कुछ नागाओं को रखकर उनका अधिष्ठासी श्री कृष्णपुरी जी को रखा। उनकी शिष्य परंपरा में आगे चलकर निर्मल पुरी जी हुये जिन्हें राजा ने संवत 1944 में दानपात्र प्रदान किया। तत्पश्चात दीर्घकाल तक महन्त परंपरा का विधिवत निर्वहन होता रहा है। कमलेश्वर महत्म्य पुस्तिका में महन्तों की नामावली उल्लेखित है। इस सूची में महन्त निर्मलपुरी जी का समय 1787 ई. वर्णित है। इस सूची में एक अन्य प्रसिद्ध नाम महन्त दयालपुरी जी का है। वर्तमान समय में मंदिर के महन्त श्री आशुतोष पुरी जी है। आपसे पूर्व महन्त श्री गोविन्द पुरी जी जो कि महन्त कमलानन्द पुरी जी के शिष्य थे यहां  प्रमुख महन्त थे। मंदिर में महन्त परम्परा प्रचलन में है। महन्त का उत्तराधिकारी योग्य चेला ही घोषित/नामित किया जाता है। इस परम्परा को टिहरी राजा, श्रीनगर गढ़वाल (भले मानुष) एवं दशनामी संगठन सर्वसम्मति से मान्यता प्रदान करते आये हैं। मंदिर की पूजा अर्चना आरती एवं रख रखाव के लिए गढनरेश भूमि उपज का छठा हिस्सा जो कि सोर्ति-विसाण कहलाता था प्रदान किया करते थे। राजा सभी गांवों से अन्न एकत्र कर मंदिर संचालन हेतु भेंट करते थे। कालान्तर में 62 गांवों को चिन्हित कर गूंठ का निर्माण किया गया। इस प्रकार मंदिर संचालन हेतु खर्च का जिम्मा गूंठ को सौंप दिया गया। डा. शिव प्रसाद के अनुसार (1575-1594 ई.) राजा बलभद्र शाह के काल से इसे धर्माध्यक्ष की देखरेख में संचालित किया गया। राजा प्रदीप शाह के 1755 ई. के ताम्रपत्र, प्रद्युम्मन शाह के (1787 ई.) के भूमिदान पात्र एवं गोरख्याणी काल (1804-1815 ई.) के दो तामपत्रों से कमलेश्वर मंदिर की गूंठ भूमित आय एवं धार्मिक महत्व के विषय में ज्ञात होता है।
धार्मिक मान्यता एवं प्रचलित जन विश्वास है कि बैकुण्ठ चतुदर्शी के अवसर पर यहां यदि निसन्तान दम्पति विधि विधानपूर्वक कमलेश्वर की पूजा करें तो उनकी सन्तान कामना निश्चित रूप से पूर्ण होती है। यही कारण है कि प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की चतुदर्शी एवं त्रिपुरोत्सव पूर्णिमा के अवसर पर खड़े दीवे का मेला लगता आ रहा है। निसन्तान दम्पति पुत्र कामना के लिये पवित्र भाव से चतुदर्शी पूर्णिमा को निराहार व्रत रखकर दीप पूजन का संकल्प लेते हुये प्रदोषकाल से सूर्योदय पर्यन्त भगवान कमलेश्वर के शिवलिंग के सम्मुख खड़े होकर अपनी अंजुलि में चावलों के ऊपर 360 वर्तिका युक्त प्रज्जवलित  घृत रखते हैं। पत्नी के लगातार खड़े होकर रहने पर थक जाने से उसका पति अथवा सास उस प्रज्जवलित दीप को स्वयं के हाथों में रखकर खड़े हो जाते हैं। अगले दिन प्रातः अलकनन्दा नदी में स्नानोपरान्त भगवान कमलेश्वर का भक्तिभाव से जलाभिषेक एवं विधि विधान से पूजन अर्चना कर व्रत खोला जाता है। बैकुण्ठ चतुदर्शी के इस खडे़ दीवे मेले में दूर-दूर क्षेत्रों से भी निःसन्तान दम्पति आकर सन्तान प्राप्ति की कामना करते हैं। इस अवसर पर मंदिर परिसर के बरामदे में हाथों में प्रज्जवलित दीप लिये पंक्तिबद्ध खड़ी महिलाओं की आस्था का उकरते। स्त्री बच्चे ही क्या, युवा पुरूष वृद्ध सभी आयु वर्ग के लोग मेले में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते। मध्याहन तक मेला अपने पूरे शबाब में नजर आता।
बैकुण्ठ चतुदर्शी मेले में आने वाले आस्थावान दर्शनार्थियों की प्रतिवर्ष बढ़ रही जनसंख्या एवं उत्साह को देखते हुये नगर पालिका परिषद ने इस पराम्परागत मेले को सांस्कृतिक एवं विकास प्रदर्शनी का भव्य रूप प्रदान करते हुये इसकी अवधि दो दिन बढ़ाकर छः दिवसीय कर दी है। मेला प्रारम्भ होने से लेकर समापन दिवस तक विभिन्न खेल सांस्कृतिक साहित्यिक एवं व्यापारिक गतिविधियां संचालित होती हंै। खेल में राष्ट्र स्तरीय क्लब फुटबाल मैच में प्रतिभाग करते हैं तो साहित्य मंे अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सममेलन में देश के जाने माने मंचीय कवि काव्य पाठ करते हैं। व्यापारिक मेले एवं प्रदर्शनी में गढ़वाल हिमालय की हथकरघा एवं पहाड़ गृह कुटीरउद्योगों में निर्मित दस्ताने, मौज,े जैकेट, पंखी, शाल, कम्बल, कालीन, दन्न के अतिरिक्त गांवों से लायी गई प्रसिद्ध पहाड़ी राजमा, उड़द, गौथ, सोयाबीन, तोर, जख्या, अदरक, लहसुन प्रचुर मात्रा में विक्रय में होता है। जबकि सांस्कृतिक गतिविधियों के अन्तर्गत लोक गायकों नर्तकों की प्रसिद्ध एवं स्थापित टीमें आमन्त्रित की जाती हैं जो कि लोकवाद्य यन्त्रों की धुन एवं थाप पर उत्कृष्ट मन्चीय प्रस्तुति कर लोक संस्कृति की झलक दिखाते हैं। इसके अतिरिक्त मेला मैदान में लगने वाली चर्खी झूले बच्चों की इन्जन रेल मौत का कुंआ काला जादू सर्कस आदि के साथ साथ विभिन्न प्रकार की दैनिक उपयोग की वस्तुओं के स्टाल लगते हैं। जहां छः दिन लगातार  मेलार्थियों की भीड़ जुटी रहती है। इस प्रकार से बैकुण्ठ चतुदर्शी का मेला न केवल निसन्तान दम्पतियों द्वारा मनोकामना पूर्ण हेतु जलाये जाने वाले आस्था दीपों के कारण वरन अपनी साहित्यक सामाजिक सांस्कृतिक व व्यापारिक गतिविधियों के साथ साथ मनोरन्जन व उल्लास का समन्वय स्थापित करने के कारण अन्यन्त लोकप्रिय स्वरूप धारण करता जा रहा है।