पहाड़ में अपसंस्कृति


एक वरिष्ठ कवि के साथ प्रथम मधुर मिलन के प्रारम्भिक चन्द लम्हे बड़े कष्टकारी गुजरे, उन क्षणों की कल्पना मात्रा से मेरी रुह अभी तक कांप रही है। एक सिहरन अभी भी महसूस कर रहा है। ये अनायास नहीं हुआ। प्रथम मिलन यूं अचानक नहीं हुआ, बल्कि कई सालों से उनसे रुबरु होने के लिए व्यथित मन तरसता रहता। शायद तब से जबसे मैंने कवि को पढ़ा है। परन्तु उनके व्यवहार की कटुता से आहत होने के बारे में मैंने वास्तव में कभी नहीं सोचा था। परन्तु ऐसा हो चुका था। कवि ने मुझे अबोध को 'तुमसे नहीं होगा' कहकर हतोत्साहित करने की भरसक चेष्टा की थी। मेरी सुरक्षित-भविष्य की मधुर कल्पनाएं पंख पैफलाने से पूर्व जमीन पर गिर प्राणहीन हो गयी थी। असल में मैं अपने को ऊर्जावान, ज्ञानवान और भी न जाने कितने वान मानने की भूलकर बैठा था। वे सभी वान प्रथम मिलन के सुखद एहसास की कल्पना और हकीकत के बीच पिस कर दम तोड़ चुकी थी। हुआ यूं कि पीúएचúडीú करने का भूत सिर पर इस कदर ता-थैÕया करने लगा कि मैं अपने आप को साहित्य का मास्टर ही नहीं प्रोपेफसर समझने लगा। उनका कहना था, कि वास्तव में रिसर्च कोई नहीं कर रहा है, बल्कि नौकरी प्राप्त करने के लिए लोग पीúएचúडीú कर रहे हैं। मैंने क्या पढ़ा है? दो-चार शब्दों वामुश्किल वाक्य में परिवर्तित कर कागज पर उकेरने से कुछ नहीं होता। डाॅú मठपाल, डबराल एवं शिव प्रसाद नैथानी के साहित्य को कभी पढ़ा है। तो पिफर मुझ जैसा अभिज्ञ व्यक्ति पीúएचúडीú जैसे गम्भीर मसले पर कलम चलाने की भूल कर रहा है। लेकिन मैं कर रहा था भूल ही सही....। कवि के कटु शब्दों के पीछे की सच्चाई हृदय मे ंउतरते-उतरते दिमाग के कपाट खोलने लगी। पीúएचúडीú के नाम पर मैं कालीदास था, लेकिन.... पिफर सोचने लगा कि विद्योत्तमा की एक लात ने अभिज्ञाान शाकुन्तलम, मेघदूत सहित दर्जनों साहित्य का सृजन करवा दिया और कालिदास महाकवि बन गये तो क्या कवि के वरहदस्त से मैं मूर्ख भी....। खैर धीरे-धीरे सब सामान्य होने लगा। कवि जब पीúएचúडीú के मसले से अन्यत्रा चले गये तो मुझे कापफी राहत मिली। बातों-बातों में गढ़वाल की विस्मृत हो चली संस्कृति तथा उसके वाहकों की खुलकर चर्चा होने लगी। हमारी संस्कृति के द्योतक परम्परागत खंतड़े, वाद्य-यन्त्रा, खान-पान, रहन-सहन मानसिकता कहां चली गई? कवि ने यादों के झरोखों से दिल्ली का एक वाकया सुनाया। एक सज्जन ने उनसे पूछा कि तुम्हारे पहाड़ में साली क्या सचमुच आधी घरवाली होती है। तो वे भौंचक रह गये। उन्होंने प्रत्युत्तर में कहा कि साली को तो बहन की तरह मानकर उसकी इज्जत करते हैं तो वे सज्जन विपफर पड़े और कहने लगे यदि ऐसा है, तो जीजा-साली, देवर-भाभी के रिश्तों को तार-तार करते अश्लील आॅडियो-वीडियो कैसटो की बाजार में भरमार क्यों है? अब कवि से जबाव देते नही बना। मैं सोचने लगा आजकल चल रहे एलबमों में नायिका के छोटे कपड़े, नायक का चिपक कर नृत्य करना तथा पूफहड़ गीत हमें किस दिशा में लेकर जा रहे हैं। कई गानों में दुपट्टे का जिक्र तो होता है, मगर दुपट्टा कही भी दृष्टिगत नहीं होता। भौतिकवाद के चलते देह को वस्त्राविहीन करके दर्शकों के बीच मादकता परोसकर उत्तेजित नृत्य द्वारा हम किस संस्कृति के संरक्षण की बातें करते हैं? देहरादून जैसे होइटैक शहर की धौ-फौं से चन्द खूबसूरत बालाओं को गढ़वाल के गदेरों, पौड़-पाखाड़ो, तिवारी डंड्याली, बंजर पड़े मकानों के ओर-पोर रिटाकर ;घुमाकरद्ध हमारे ही भै-वन्द हमें क्या दिखाना चाहते हैं, समझ में नही आता कि संस्कृति के अवशेषों को दिखाया जा रहा है कि कामुक नृत्यों को गढ़वाल की संस्कृति धोती, कुत्र्ता, सलवार जैसे परम्परागत वस्त्रों से जीवित थी, परन्तु ये निरभाग जीन्स और टाॅप नारद की तरह कहां से प्रकट हो गये। जिसकी जद में ये हसीन बालायें गढ़वाली रोल पर मस्त ठमके लगाकर संस्कृति के संरक्षण को व्यक्त करने की असपफल चेष्टा में कुछ और दिखाने लगती है और हमारे दर्शक लार टपकाने वाले अंदाज में देखते जा रहे है। सैंसर वोर्ड के आॅपिफस पर अलीगढ़ के मजबूज ताले डालकर नुमांइदे बन्द कमरों में बैठकर किस तरह नियमों / सीमाओं की वखिया उधेड़ रहे हैं। कवि ही संस्कृति को बचाने की जद्दोजहद पर टिप्पणी कर रहे थे और मैं सोच के दायरे से बाहर निकल चुका था। कंठ सूख चुके थे तो नींबू वाली चाय पीने से व्यक्ति अपने आपको तरोताजा महसूस करने लगता है, इसके साथ ही मन में नयी विचारधाराओं का समावेश भी होता रहता है। इस बीच हलन्त का बरबस ध्यान आ गया। कवि ने ध्यानी जी की लेखनी को ब्रह्मस्त्रा का नाम दिया। जो उनकी पत्रिका के आवरण पृष्ठ के स्लोगन को भी पूर्ण रूप से सि( कर रहा था। कापफी वक्त गुजर चुका था.... विदा की घड़ी निकट आ गयी थी। जाते वक्त नयी आशा, ऊर्जा व स्पूफर्ति मुझ में संचार होने लगी। मुझे लगा मैंने रिसर्च जैसे महत्वपूर्ण व गम्भीर मसले की प्रस्तावना की नींव रख दी है। कालीदास की तरह विद्योत्तमा के रूप में कवि को देखने लगा। नींबू वाली विशेष चाय का अन्तिम घंूट भर मैं उनसे विदा हो गया। इस आशा के साथ कि हमारी अगली मुलाकात गर्मजोशी व आत्मविश्वास से हो।