पहाड़!
मेरे अन्तर्मुखी दोस्त!
क्या हुआ
तुझसे दूर हूँ मैं
मेरी आत्मा तुझमें बसी है
मुझे पता है
विंध्याचल की तरह तुम
किसी अगस्त्य के सम्मान में
सदियों से झुके हो
यहां तक कि
तुम्हारी पहचान तक
धुंधली पड़ गई है
बेशक तुम सम्मानीय थे
आज तक उसी भ्रम में
जी भी रहे हो
अतीत का विष
वर्तमान की अंजुरि में भरकर
पी भी रहे हो
लेकिन मेरे भाई!
हो सके तो कभी
भविष्य के दर्पण में
अपनी सूरत देखना
तब तुम्हें पता चलेगा
कि तुम
कितने टूटे हो
कितने थके, कितने हारे
शायद अपने आप को
पहचान भी न सको
किन्तु याद रखना
जितने भी जख्म
तुम्हारे तन में हैं, मन में हैं
वे सभी
तुम्हारे अपनों की ही
सौगात हैं
तुम अपनों की ही
स्वार्थ शतरंज की गोट बने
इधर से उधर
लुढ़कते फिर रहे हो
मेरे मीत!
बिगड़ा अब भी कुछ नहीं है
सुबह वहीं से शुरू होती है
जहां से आंख खुले
जिस दिन भी तुम
कायरता की केंचुली
उतार फेंकोगे
देख लेना
धुंध उसी दिन छंट जायेगी
रोशनी फट जायेगी
पार्थ के गांडीव से
जयद्रथों की जीवन डोर
कट जायेगी
तुम्हारा उन्नत भाल
अपनी आभा से फिर
जगमगा उठेगा
....मैं,
दूर हूँ तो क्या
मन से हमेशा तुम्हारे पास हूँ
और उसी दिन का
बेसब्री से इंतजार कर रहा हूँ
यह साधारण खत नहीं
समझो कि तुम्हें
तार कर रहा हूँ!!!
पहाड़ से बात