राम रचि राखा


भगवान राम पांच सौ सालों के वनवास के बाद पुनः अयोध्या में विराजमान हो रहे हैं। चैदह वर्ष के वनवास में उनके साथ लाखों वानरों, आदिवासियों, वीरों ने आक्रांता रक्षधर्म से लड़ते हुये अपने प्रााण दिये थे। उनके दूसरे वनवास में भी विधर्मियों से लड़ते हुये जिन साधु-संतो, राजाओं, जोगियों- गृहस्थों ने अपनी आहुतियां दीं, आज उनको भी हाथ जोड़ने का दिन है। यह हमारी इस पीढ़ी का सौभाग्य है कि हमारे सामने राम पूरे ठाठ के साथ अपनी अयोध्या में विराजमान हो रहे हैं। राम की वह अयोध्या भारतीय संस्कृति की केन्द्रिय नगरी बनेगी। पंच सितारा सुविधाओं के साथ मोदी सरकार इस रौंदी गई नगरी का कायाकल्प करेगी। भव्य मंदिर, विशाल मूर्तियां हांेगी, यात्रा-पर्यटन होगा, राम से जुड़ा समस्त संसार होगा...पर क्या दीन हीनों के राम तो हर होंगे। अपने राम तो अपनों के पास ही रहेंगे। हमारे देवप्रयाग में भी भगवान राम का मंदिर है। छः फीट के काले संगमरमर और विशाल नेत्रों वाले राम...मां के आंचल का कोना पकड़कर जहां बचपन में भोग और चरणामृत पाता था, वे राम जो मंच में  लीला करते हुये स्त्रियों को रूलाते थे, काव्यों की महागाथा से समस्त संसार के पोर-पोर में समाये राम...वे राम जिन्हें मां केकैई ने निष्ठुरता से, बिना किसी अपराध के इतना भीषण दण्ड दिया, जिस उम्र में हमारे युवा हड़ताल, आगजनी, पथराव करते हुये नेताओं के भड़ुवे बन जाते हैं, उससे भी छोटी उम्र में वह सुकोमल बालक, मां को एक भी अशुभ वचन नहीं कहता, जिस देश में आज कुर्सी के लिये ऐसा कुकुर संघर्ष होता है, वे राम इतनी बड़ी सत्ता को किसी पुराने डिब्बेे की तरह ठोकर मारकर वनगमन करते हैं। सर्वगुण सम्पन्न, सब बलों से युक्त, महाचापधर वह विकराल यो(ा किसी साधारण ग्रामीण की तरह पर्णकुटि में सोता है, कन्दमूल खाता है...वह राम जिसने केवट-निषादों को वोट बैंक के लिये नहीं बल्कि भाईयों की तरह अपनी करूणा में भिगोया, चीर के अभाव में जिसने अपनी जटाओं से जटायु के घाव पोंछे, जिसने भक्ति विह्वल मां शबरी के आंचल को आकाश बनाया...उनकी भार्या...वह मां सीता...जिसने नैतिकता का लौह स्तंभ गाड़कर भारतीय स्त्री के अंन्तस को जैसी विशाल भूमि दी, अपने चरित्र के प्रकाश से जिसने रामकथा को आलोकित किया, सहचरी की भूमिका बांध कर जिस स्त्री ने रामकथा को घर-घर का पद्य बनाया...वे राम और उनके लक्ष्मण! जो राम की ढ़ाल बनकर चैदह वर्ष क्षत-विक्षत होते रहे, पर कभी अपने राम पर आंच नहीं आने दी। वह सत्ता जिसके लिये लोग उ(व ठाकरे बनने को तैयार हैं, उस सत्ता को राम की खड़ाऊँ के नीचे दबाकर उनका भाई भरत, संबंधों की जैसी आधारशिला रखकर गया, जिस भरत के कारण भारत के अनेक राजाओं, निष्कलंक नृपतियों ने सैकड़ों वर्ष इस देश में राजनीति को हंस जैसा धवल बनाये रखा...कहीं यही कारण तो नहीं है कि कुछ लोग राम मंदिर का सदियों विरोध करते रहे। क्योंकि रामकथा यदि राज्य संचालन का कारक तत्व होगी तो कुर्सी पर मात्र सेवाभाव वाले वैरागी मनुष्य ही बैठ सकते हैं, यही लोग राम का प्रमाण मांगते थे...उनसे पूछना चाहता हूं यदि राम जैसा भाव तत्कालीन समाज में नहीं होता, तो कथा में कैसे आता। मां जानकी का वह उदात्त चरित्र जो कभी आंसू की तरह पिघलकर नारी के माधुर्य, उसकी करूणा से पाठकों को रूलाता है तो कभी वही सीता काले संगमरमर के कठोर पाषाण जैसी भैरवी बनकर गर्जना करती है, उसके चरित्र का वह लोहा जिसमें रावण जैसा ज्ञानी, पराक्रमी, अहंकारी राजा तक टकराकर चूर हो जाता है, वही सीता उस पुराने समाज की स्त्री के अन्दर थी...और वह राजा राम जिनमें संसार के समस्त विशेषण समा जाते हैं, जो साधारण गृहस्थ की तरह रोता अकुलाता भी है, जो साधनहीनता में अपनी प्रतिभा, संगठन शक्ति और अपनी शुचिता के कारण संसार से रावणों का नाश करता है, वह राम यदि शरीर रूप में नहीं भी थे परन्तु वह रामत्व इसी समाज में था, यहीं से वह रामायण में उतरा, उसके पश्चात हमारे शिल्प में सजा, मंदिरों में गढ़ा गया। वही क्षमा, औदार्य, करूणा...परन्तु समय आने पर 'भय बिनु होत न प्रीति' कहने वाला अखिल चरित्र हमारा सांस्कृतिक इतिहास है। वह हमारी सांस्कृतिक थाती का काव्य रूप है, मूर्तिरूप है। वह हमारे गीत में है, संगीत में है, नृत्य में है, कर्म-कान्ड, पूजा-पाठ में है, जीने में है, मरने में है....वह कभी निर्गुण की तरह कबीर और नानक द्वारा भेजा गया, तो कभी तुलसी की मानस में सगुण भक्ति का दीप बन गया। राम इस देश का मूलतत्व है, हमारी भावभूमि है जिसे संत, फकीर, दरवेश, सूफी अपने अपने ढ़ंग से परिभाषित करते रहे, जिसे निराला से लेकर गांधी ने नये साहित्यिक राजनीतिक छन्दों में पिरोकर समाज की स्मृति को झकझोरा। राम हमारी थाती है, हमारा श्वासोच्छवास है। और कुछ..? हमने पांच सदी अपने राम के साथ अपमान का गरल पिया है, पर इस कारण राम नाम के सहारे भारतीय किसी का अपमान नहीं करना चाहते।
राम हमारे देश के सांस्कृतिक शरीर की आधार शिला रखने वाले शिल्पी हैं। राम परिवार की कथा हमारे समाज की धमनियों में बहने वाली प्राणवायु है। बाल्मिकी के बाद देश की प्रत्येक भाषा में यदि रामचरित लिखा गया, यदि इस राष्ट्र के अनेक त्यौहारों के केन्द्र में राम बैठे हैं, यदि यहां के मंदिर, नदियां, घाट रामकथा के चरण छूकर जीवंत बनते रहे हैं, तो राम को हमसे विलग कौन कर सकता था। कहीं वे रामनाथ हैं, कहीं रामसिंह हैं, कहीं रमन्ना, रमैय्या तो कहीं रामास्वामी बनकर वे पुरूषोत्तम, सदियों भारतीयों की दैनन्दिनी बनकर हमसे 'राम-राम' करते रहे। वे लाखों शहीद जिन्होंने राम मंदिर आंदोलन में अपने प्राण दिये, राम उन पर कृपालु हो। यह राम की ही कृपा है कि जिस अयोध्या के लिये इतना रक्तपात हुआ, वहां राम के पुनः विराजमान होने के न्यायालय के निर्णय के बाद कोई झड़प तक नहीं हुई। तो क्या मान लेना चाहिये कि करूणानिधान राम और रामायण के तत्वों का पुनः भारतीय समाज में उदय हो रहा है? राम के विरोधी राममंदिर से अधिक राम की कथा से ही डरते हैं, राम मंदिर की स्थापना भारतीय मूल्यों की पुनस्र्थापना ही तो है। राम का तूणीर फिर से कसा जाना चाहिये, अब की बार रावण दक्षिण में नहीं, उत्तर-पश्चिम दिशा में हैं। और दो हैं।