रोज़गार परक हो उत्तराखंड का विकास

नये राज्य के रूप मंे अस्तित्व मंे आये उत्तरांखण्ड के लिये वर्षों से जो छटपटाहट थी, संघर्ष या आन्दोलन था उसके पीछे दो बातें प्रमुख रूप से निहित थीं। इनमें से एक था राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न, क्योंकि यह सीमान्त का प्रदेश है और 1962 के चीनी युद्ध के घाव अभी तक मौजूद हैं। अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं से सटा यह क्षेत्र सामरिक महत्व का है। दूसरा विषय यहां के विकास का है। देश की आजादी के बाद इस सीमान्त क्षेत्र की जैसी चिन्ता होनी चाहिये थी वैसी नहीं हुई। यहां की शिक्षा तथा रोजगार घोर उपेक्षित रहा। शिक्षा के नाम पर जो विद्यालय खुले, वे भवन, अध्यापक तथा व्यवस्था तीनों दृष्टि से अधूरे तथा अव्यवस्थित ही रहे। यहां तक कि जो पुराने समय के शिक्षण केन्द्र थे उनकी स्थिति बद से बदतर हो गई। नया राज्य बनने के बाद इस सब में कितना परिर्वतन आया यह अलग से एक अध्ययन का विषय है किन्तु इतना अवश्य है कि छोटे राज्य के गठन के उपरान्त योग्य तथा अपेक्षित परिर्वतन आना चाहिये था। सभी प्रयासों का लक्ष्य यह है कि यहां स्वावलम्बी तथा आत्मनिर्भर समाज खड़ा हो। यह गौरतलब विषय है कि पुराने समय में पर्वतीय क्षेत्र का समाज आत्मनिर्भर था। सामान्य जीवन की अनेक वस्तुयें यहीं निर्मित होती थीं। इसका अर्थ यह है कि यहां प्रचुर संसाधन भी रहे हैं तथा उनके समुचित उपयोग/विदोहन की व्यवस्था भी है। नये राज्य के लिये चल रहे आन्दोलन के काल में कभी-कभी पहाड़ से दूर यह प्रश्न पूछा जाता था कि यह राज्य अपने पैरों पर कैसे खड़ा होगा? आय के स्रोत क्या हेंागे? रोजगार के साधन कैसे जुटेंगे आदि-आदि। किन्तु यह सच है कि अनेक संसाधनों से भरे पूरे पहाड़ पर यदि सम्यक नियोजन किया जाये तो स्वावलम्बन अवश्य आयेगा। राज्य निर्माण से पूर्व यत्र-तत्र एक भ्रान्त धारणा भी मन में घर किये हुए थी कि नया राज्य बनने के पश्चात सबको नौकरी उपलब्ध होगी तथा बरोजगारी स्वतः ही समाप्त हो जायेगी। उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि सरकार, शासन में पांच वर्ष के दौरान जो रिक्तियां आती हैं उनके विरूद्ध सैकड़ों गुना बेरोजगार युवा तैयार हो जाते हैं। इसीलिए नौकरी की अपेक्षा़ स्वरोजगार को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके लिये उ़द्यम, साहस तथा कार्य करने की अन्तःप्रेरणा भी चाहिये। टिहरी बांध के निर्माण काल में एक जो विशेष कार्य किया गया वह प्रभावित परिवारों को रोजगार देने का था किन्तु इसके एवज में टिहरी नगर सहित भागीरथी तथा भिलंगना घाटी के एक बडे क्षेत्र को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। इस क्षेत्र की बसावट को अपना गांव छोड़कर यत्र-तत्र विस्थापित होना पड़ा, इससे पलायन भी प्रोत्साहित हुआ। इधर युवाओं ने, जिनमें कि बड़ी संख्या में वे युवक भी शामिल हैं जो जल्दी ही सेना से सेवानिवृत होकर लौटे हैं, उन्होंने पहाड़ पर यत्र-तत्र स्वरोजगार को विकसित करने का जोखिम उठाया। उनमें से अधिकांश सफल हुए तथा कुछ ने तो अच्छे कीर्तिमान भी स्थापित किये हैं। उद्यमी तथा साहसी युवाओं को शासन तथा समाज द्वारा प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। नए राज्य उत्तरांचल को रोजगारपरक योजनाओं के लिये कुछ खट्टे-मीठे अनुभव तथा अनुभूत प्रयोग पड़ोसी राज्य हिमाचल से भी लेने तथा सीखने चाहियंे। हिमाचल उत्तराखण्ड की अपेक्षा पुराना राज्य है। वहां समय-समय पर सरकारों ने शिक्षा तथा रोजागर में अनेक प्रयोग किये हैं। वहां के जनसामान्य के प्रयासों से अनेक सफलताऐं भी इस क्षेत्र में अर्जित हुई हैं। हिमाचल ने संसाधनों को बढ़ाकर अपने उत्पाद को देश के अनेक भागों तक पहुंचाया है। यहां तक कि मुम्बई में भी रेलवे स्टेशन पर हिमाचल के सेब का शीतल पेय खूब प्रचलित है। तकनीक अपनाते समय इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि उससे अधिकतम लोग रोजगार के लिए प्रोेत्साहित हों। ऐसा कोई भी आयाम हाथ में न लिया जाए जो देखने में तो विशालकाय हो किन्तु जिसमें मानव शक्ति नाममात्र की ही हो। पहाड़ पर इस नीति को अपनाने से काम नहीं चलेगा, अधिक से अधिक हाथों को श्रम में जोड़ा जाये।
शिक्षा को रोजगार से जोड़ने का विषय अनेक वर्षों से विभिन्न मंचों, अध्ययन सत्रों तथा वार्ताओं के माध्यम से बोला व लिखा जा रहा है। किन्तु यथार्थ के धरातल पर सत्यता तब उजागर होती है, जब शासन तथा स्वयंसेवी संगठनों के द्वारा आंकडे प्रकाशित किये जाते हैं। एक मौलिक विषय प्रशिक्षण का भी है, परम्परागत उद्योग धन्धों के ठप्प होने के कारण प्रशिक्षण भी समाप्त हो गया। उपलब्ध संसाधनों को योग्य अवसर देने के लिये प्रशिक्षण नितान्त आवश्यक है। जिस गम्भीरता के साथ समय की मांग को ध्यान में रखते हुए छोटे-बड़े तकनीकी संस्थान स्थापित हुए है, उसी प्रकार उनका कभी-कभार अनेक दृष्टियों से मूल्याकंन भी होना चाहिए। जिस उद्देश्य को लेकर वे प्रारम्भ हुए, वह पूरा हो रहा है या नहीं। सामान्य विद्यालयों व महाविद्यालयों की बात यदि हम छोड दे तो आई0टी0आई0 तथा पौलिटेक्निक तथा तकनीकि संस्थानों में प्रशिक्षण की व्यवस्था कैसी है? उनका स्तर कैसा है? वहां अध्ययनरत छात्र का विकास कैसा हो रहा है? अर्जित की हुई शिक्षा का कितना उपयोग कर रहे हैं? कई बार ऐसे संस्थानों में छात्रों की दृष्टि कुछ न करने से तो कुछ करना ही अच्छा है, इतनी भर बनी रहती है। उनके इस अनुभव को रोजगार के लिए कितना अवसर तथा प्रोत्साहन मिलता है, वह भी एक अहम बात है। प्रायः औद्योगिक विकास के नाम पर वर्षानुवर्ष से एक प्रवृत्ति दिखाई दे रही है, कि अधिकांश उ़द्योग तराई, भाबर व दून में स्थापित हो रहे हैं। इसके कारण पहाड़ का जो ऊपरी हिस्सा है, सीमान्त क्षेत्र है, वह विकास तथा रोजगार की दृष्टि से अछूता है। साथ ही इस नीति ने पलायन को भी प्रोत्साहित किया है। पहाड़ के गांव के गांव खाली हुए हैं तथा युवा शक्ति मैदानों में आकर सिमट गई। दूसरी ओर गांव की जनसंख्या सड़क किनारे के बाजार या कस्बे में आकर बस गई। उपाय के रूप में छोटे औद्योगिक केन्द्र, कुटीर उद्योग के रूप में स्थापित किये जाने चाहिए। इनके स्थायित्व में एक बड़े आधार के रूप में सरकार व शासन की महत्वपूर्ण भूमिका अपेक्षित है। पहाड़ पर पर्यटन निगम, उद्योग केन्द्र तथा खादी ग्रामोद्योग बोर्ड इस दृष्टि से सार्थक पहल तथा प्रयास करें। इससे निगम संस्थानों की उपयोगिता तथा औचित्य भी ध्यान में आएगा।
पहाड़ पर रोजगार के रूप में अतीत काल से भेड़ पालन, मौन पालन, की परम्परा रही है साथ ही कृषि कार्य के योग्य तथा दुधारू पशुआंे की भी यहां प्रचुरता थी। पारम्परिक दूध की आत्मनिर्भरता सुप्त प्रायः है। समय के साथ-साथ यह व्यवसाय भी ठप्प सा हो गया है। भेड़ व बकरियां अब सीमान्त की कुछ घाटियों में ही दिखाई देती हैं। जिस कारण से भेड़ों को पाला जाता था, उस ऊन के व्यवसाय की सर्वाधिक दुर्गति हुई हैं। सरकार तथा उसकी ऐजेन्सियों ने भेड़ पालकांे की घोर उपेक्षा की है तथा उनके प्रति अन्याय भी किया है। व्यवस्था के नितान्त अभाव के कारण आज यहां की ऊन उपेक्षित है या सस्तेदाम पर बाहर जा रही है तथा उसके बदले पंजाब से कैस्मिलौन यहां आ रहा है। पशुधन के सम्बन्धित बोर्ड तथा मंत्रालय होने के बावजूद भी पहाड़ के रोजगार का एक बड़ा             साधन धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है।
उत्तरांखण्ड का विकास यहां के संसाधनों तथा रोजगार पर अवलम्बित है। इसके लिए प्राथमिकता के आधार पर पहाड़ का सुदूरवर्ती तथा अविकसित क्षेत्र तथा उनका नक्शा अपनी आंखों के सामने चाहिए। इस दृष्टि से जो अनेक योजनाएं हैं, उनका ईमानदारी के साथ परिपालन तथा क्रियान्वयन चाहिये। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि, उत्तरांचल की तलहटी में बसे हुए देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी तथा ऊधमसिंहनगर ही केवल पहाड़ नहंीं हैं, पहाड़ तो ऊपर है, सीमान्त पर है, अभाव तो घाटियों मंे है। पहाड़ रोजगारपरक योजनाओं से अछूता है। विकास के लिए लगाव चाहिए, घाटियों के प्रति अपनापन का भाव चाहिए, यहाँ के पिछड़ेपन के लिये मन में संवेदना चाहिए। यदि ऐसा भाव जाग्रत होगा तभी और तभी नये राज्य के प्रादुर्भाव का अर्थ सार्थक होगा।