समानता और समरसता


भारत की गुलामी के कालखंड में भारतीय शास्त्रों पर टीकाकारों द्वारा कई टीकाएँ लिखी गई। उन्हीं कुछ टीकाओं में से शब्दों के वास्तविक अर्थ अपना मूल अर्थ खोते चले गए। इतना ही नहीं मनुस्मृति में भी मिलावट की गई। डा. पी.वी. काने की समीक्षा के अनुसार मनुस्मृति की रचना ईसापूर्व दूसरी शताब्दी तथा ईसा के उपरांत दूसरी शताब्दी के बीच कभी हुई होगी (धर्मशास्त्र का इतिहास, खंड 1, तृ. सं. 1980, पृ.46). परंतु रचनाकाल से मेधातिथि के भाष्य तक (9वीं सदी) इसमें संशोधन एवं परिवर्तन होते आ रहे हैं। मेधातिथि के भाष्य की कई हस्तलिखित प्रतियों में पाए जाने वाले अध्यायों के अंत में एक श्लोक आता है जिसका अर्थ टपकता है कि सहारण के पुत्र मदन राजा ने किसी देश से मेधातिथि की प्रतियाँ मंगाकर भाष्य का जीर्णोद्धार कराया (डा. काने, वही, पृ. 69). गंगनाथ झा ने भी मेधातिथि भाष्य पर लिखित अपनी पुस्तक की भूमिका मे कहा कि कोई मान्य मनुस्मृति थी और उसकी मेधातिथिकृत उचित व्याख्या थी। मेधातिथि व्याख्या सहित वह मनुस्मृति कहीं लुप्त हो गई और कहीं मिलती न थी। तब मदन राजा ने इधर-उधर से लिखवाई हुई कई पुस्तकों से उसका जीर्णोद्धार करवाया। (पं. धर्मदेव, स्त्रियों का वेदाध्ययन और वैदिक कर्म काण्ड में अधिकार, पृ. 133). एक उदाहरण से हम और अधिक समझ सकते हैं, जैसे जाति को परिभाषित करते हुए महर्षि गौतम कहते हैं कि 'समान प्रसवात्मिका जातिः' (न्याय दर्शन दृ 2.2.70) न्याय दर्शन में यह बताया गया है कि अर्थात जिनके जन्म लेने की विधि एवं प्रसव एक समान हों, वे सब एक जाति के हैं। यहाँ समान प्रसव का भाव है कि जिसके संयोग से वंश चलता हो व जिन प्राणियों की प्रसव विधि, आयु और भोग एक समान हों। जाति का एक दूसरा लक्षण भी है-आकृति जाति लिंग, समान आकृति अर्थात जिन प्रणियों की आकृति एक समान हो, वे एक जाति के हैं। इस परिभाषा के अनुसार मनुष्य, हाथी, घोड़े की विभिन्न आकृति होने के कारण उनकी विभिन्न जातियाँ हैं। परंतु विश्व के सभी मानवों की आकृति एक जैसी होने के कारण सभी मनुष्य एक ही जाति के हैं, भले ही जलवायु, स्थान इत्यादि के कारण कुछ भिन्नता दिखाई दे। सांख्य दर्शनाचार्य महर्षि कपिल के अनुसार-मानुष्यश्चैक विधिः, अर्थात सभी मनुष्य एक प्रकार या एक जाति के ही हैं। अतः विश्व के काले, गोरे, सभी मतावलंबी एक ही जाति अर्थात मानव जाति के ही हैं। फिर हिन्दू मान्यता में इतनी सारी जातियों की बाढ़ सी कैसे और कहाँ से आ गई? यह एक गंभीर और विचारणीय प्रश्न है। हिन्दू मान्यताओं में इन जातियों का आधार इनके दैनिक क्रियाकलापों के कारण उन पर अध्यारोपित है, जो कि व्यवसायानुसार बदलती रहती हैं। भारतीय मान्यताओं में आज जो हम जाति का रूप देखते हंै कि ब्राह्मण की संतान ब्राह्मण व शूद्र की संतान शूद्र ही होगी, वास्तव में यह मात्र एक सामाजिक विकृति और बुराई हैं। समाज की इसी विकृति और बुराई को जन्मना वर्ण-व्यवस्था कहा जाता है जिसकी आलोचना चहुँ ओर होती है, जो कि सर्वथा उचित ही है। मनुस्मृति में जाति शब्द का अर्थ 'जन्म' से है। जैसे जाति अन्धवधिरौ-जन्म से अन्धे बहरे। मनुस्मृति ही नहीं, वेदों के अलावा, लगभग सभी हिन्दू धर्म-ग्रंथों में मिलावट की गई। प्राचीनकाल में हस्तलिखित पांडुलिपियों का चलन था, जिनमें श्लोकों का बढाना या घटाना बहुत ही आसान था। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि जिस दिन से भारतीय समाज में जन्मना वर्ण-व्यवस्था ने अपनी जड़ंे गहरी की और समाज में अस्पृश्यता जैसी कई प्रकार की कुरीतियों ने जन्म लिया और उनके बीच परस्पर आदान-प्रदान बन्द हुआ जिससे समाज में परस्पर 'भेद' की खाई गहरी होती गई, उसी दिन भारत के दुर्भाग्य का जन्म हुआ। समाज में व्यापत इस प्रकार की सभी कुरीतियों को आसानी से मिटाया भी जा सकता है क्योंकि ये सभी कुरीतियाँ अस्थायी और कुछ व्यक्ति- विशेष के स्वार्थ से ही ओतप्रोत हैं क्योंकि मेरा यह मानना है कि कोई भी समाज अधिक दिन तक आपस में संवादहीन नही रह सकता। इसलिए तन्द्रा में पड़ी अपने अतीत की कीर्ति और स्वत्व को बिसरी हुई जनता में नवजीवन का संचार तभी हो सकता है जब वह अपने अतीत के गौरव की ओर जाना शुरू कर दे। जिस प्रकार जलते हुए बिजली के बल्ब के ऊपर धूल जमने से हमें ऐसा प्रतीत होता है कि वह बल्ब अपर्याप्त रोशनी दे रहा है, और धूल के साफ होते ही वह बल्ब पर्याप्त रोशनी से जगमगाता हुआ हमें प्रतीत होता है। ठीक उसी प्रकार हमारे भारतवर्ष की जनता है। एक बार इन्हें अपने स्वर्णिम इतिहास के स्वत्व से इनका साक्षात्कार हो जाये तो विश्व-कल्याण और पूरी वसुधा को परिवार मानने वाली यह भारतीय संस्कृति अपनी भारतमाता को पुनः उसी सर्वोच्च सिंहासन पर बैठा देगी जहाँ कभी वह आरूढ थी। बस भारतीय समाज की आत्मा को झझकोरने भर की देर है।                   
रघुनन्दन प्रसाद शर्मा की पुस्तक 'प्रेरणा के अमर स्वर' नामक पुस्तक के अनुसार 22 अक्टूबर, 1972 को गुजरात के सिद्धपुर में आयोजित विश्व हिन्दू परिषद के सम्मेलन को उदबोधित करते हुए माध सदाशिव गोलवलकर 'श्री गुरू जी' ने कहा कि हिन्दू समाज के सभी घटकों में परस्पर समानता की भावना के विद्यमान रहने पर ही उनमें समरसता पनप सकेगी। हम सभी जानते हैं कि विश्व हिन्दू परिषद समाज को एक सूत्र में गूँथने का कार्य कर रही है। वहाँ उपस्थित लोगों द्वारा दलित, उपेक्षित जैसे शब्दों का उपयोग कर समाज के एक बहुत बड़े वर्ग की सामाजिक दशा के उल्लेख पर श्री गुरू जी ने कहा कि समाज के पिछले कुछ वर्षों में जैसी दशा रही है उसके परिणामस्वरूप समाज का एक बहुत बडा वर्ग व्यवहारिक शिक्षा से वंचित रह गया है। इसलिए इस उपेक्षित समाज की अर्थ-उत्पादन क्षमता भी कम हो गई है और उसे दैन्य, दारिद्रय का सामना करना पड रहा है। पूर्व काल में इस समाज को पूरा सम्मान प्राप्त था। पंचायत व्यवस्था में भी इस समाज का प्रतिनिधित्व रहता था। प्रभू रामचन्द्र की राज्यव्यवस्था का जो वर्णन आता है, उसमें भी चार वर्णों के चार प्रतिनिधि और पाँचवाँ निषाद अर्थात अपने इन वनवासी     बन्धुओं के प्रतिनिधि मिलकर पंचायत का उल्लेख आता है। परंतु कालांतर में हम वनवासी बन्धुओं का प्राक्रमी इतिहास को भूल बैठे। इस स्थिति में विश्व हिन्दू परिषद के नाते इन बन्धुओं के प्रति, जो दलित, उपेक्षित कहलाते हैं, अपना ध्यान आकर्षित होना और वे हमारे समकक्ष आकर खडे़ हो सकें ऐसा प्रयत्न करना बिल्कुल स्वाभाविक और अपेक्षित ही है। इस समस्या की ओर गत कई वर्षों से लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ है। भारतीय संविधान में इस समस्या का उल्लेख भी हुआ है कि छुआछूत एक दण्डनीय अपराध है परंतु डंडे के बल पर समाज में समरसता नहीं आती है। महात्मा गाँधी ने समाज द्वारा उपेक्षित इस वर्ग के लिए 'हरिजन' नाम प्रचलित किया। यह नाम बहुत अच्छा और सरल था परंतु इस नाम के अर्थ पर भी हमें ध्यान देना चाहिए। समाज का यह वर्ग यदि हरिजन हुआ तो बाकी समाज के लोगों के लिए क्या संबोधन किया जाय? क्या वे सभी लोग राक्षस जन या दैत्यजन हैं? हरिजन का शाब्दिक अर्थ है हरि अर्थात भगवान विष्णु और जन का अर्थ है, इस प्रकार हरिजन तो हम सभी हैं। जाने- अंजाने में ही सही परंतु महात्मा गाँधी ने इस उपेक्षित समाज को नया नाम दे दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज अब दो विभिन्न वर्गों में विभाजित हो गया, एक हरिजन दूसरा गैर-हरिजन। यद्दपि अलग नाम से समाज में पृथकता की भावना और बलवती होती है। समाज में समरसता किसी विभाजन से नहीं आती अपितु उनके साथ रोटी-बेटी का संबंध रखने से आती है। श्री गुरू जी ने अपने अनुभव में कहा है कि एक बार उनसे मिलने के महात्मा गाँधी के द्वारा कहे जाने वाले हरिजन के एक नेता आए। उन नेता जी ने कहा कि अलग अस्तित्व के कारण उन्हें कुछ विशेष 'राईट्स एण्ड प्रिविलेजेस' मिलते हैं। भारतीय भाषाओं में 'राईटस' शब्द का पर्यायवाची शब्द नही है। क्योंकि भारत में हमेशा 'राईट्स' के लिए नही अपितु कर्तव्य के लिए संघर्ष हुआ है। उदाहरण के लिए ब्राह्मण का कर्तव्य है ज्ञान देना यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उसके लिए कहा जाता है कि ब्राह्मण अपने कर्तव्य से पतित हो गया है। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि पृथकता बनाए रखने में स्वार्थ निर्माण हो चुके हैं। इसलिए हमें अब यह मान लेना चाहिए कि अस्पृश्यता एक सामाजिक आन्दोलन है। राजनीतिक लोग अपनी राजनैतिक सत्ता प्राप्ति करने हेतु इस सामाजिक आन्दोलन का उपयोग करते हैं। परिणामतः सामाजिक बुराई का खात्मा जागरूक समाज द्वारा ही किया जा सकता है तब जाकर समाज में वास्तविक समरसता का भाव उत्पन्न होगा।