संस्कार

यह सही है कि इस दुनियां में दःुख और कष्ट अधिक है। यह भी गलत नहीं है कि इस नश्वर जगत में जिसकी लाठी उसकी भैंस का नियम अधिक सफल हो रहा है। इसमें भी किसी की दो राय नहीं है कि लूट, पाप, हत्या, भ्रष्टाचार, अपराध ने सुख-शांति को भयभीत कर अपना जीना मुश्किल कर रखा है और कोई इस बात से भी इंकार नहीं कर सकता कि लोकतंत्र में केवल सिर गिने जाते हैं, वे कैसे अधिक हुये हैं, किन-किन के हैं और क्यों उस ओर मुड़े, एक बार मत मतपेटी से बाहर आने के बाद इसकी कोई महत्ता नहीं रह जाती। जो जीता वही सिकन्दर कहलाता है। सिकन्दर बनने के लिए उसने क्या-क्या सही-गलत रास्ते अपनाये, बाद मंे इसका कोई हिसाब नहीं रखा जाता। अतः जिन रास्तों पर चलकर विरोधी उससे आगे आया, सदवृत्तियों को उनसे भी पाठ ग्रहण करना चाहिये। जीवन में जब सीधी उंगली काम नहीं आती तो टेढ़ी करने की वकालत की जाती है। इसी प्रकार अपने अस्तित्व पर संकट आये और उसे बचाने में सत्य और प्यार असफल हो जाये तो दण्ड और भेद अर्थात कूटनीति का सहारा लेना भी गलत नहीं माना जा सकता। गहराई में जायंे तो ज्ञात होगा कि केवल राजनीति ही इस नियम की पैरोकार नहीं है, गलाकाट प्रतियोगिता के आज के प्रतिस्पर्धी समाज में उद्योग व्यापार में भी यह नियम उतना ही प्रभावी ढंग से लागू हो रहा है। जिसमें हर घड़ी काक सी चतुराई जीत रही है। थोड़ी सी भी दुर्बलता भारी पड़ रही है। हीन मनोवृत्ति रखकर तो जिया ही नहीं जा सकता, जीना बोझिल हो जायेगा। क्योंकि यहाँ बुद्धि, विवेक बंदी बना लिये जाते हैं। हिंसक, आसुरी दुष्प्रवृत्तियों के प्रबल होने की हर समय संभावना बनी रहती है। अतः ऐसे में केवल इंसान को समझदार होना काफी है। पग-पग पर सतर्क पैनी नजर रख सुदृढ़ होना भी आवश्यक है।
जीवन की सच्चाई इतनी कटु होते हुये भी मानवी सद्प्रवृत्तियों का महत्व कम नहीं हो जाता। क्योंकि हमें मानव समाज को बचाना है। जीवन को खुशहाल बनाना है तो सत्य को हमेशा बेमौत मरने नहीं दिया जायेगा। उसकी अवहेलना करने वाली आसुरी वृत्तियों से तीव्र संघर्ष करना होगा। साम, दाम से बात नहीं बनी तो दुष्प्रवत्तियों की नकेल कसने के लिये संघर्ष की शक्ति हमें जहां से भी मिलेगी उसी ओर तीव्रता से कदम बढ़ाना होगा। जहाँ मूल्य की जरूरत  पड़ी वहां मूल्य चुका कर और जहां दण्ड जरूरी हुआ वहां दण्डित कर और यदि कहीं कूटनीतिक छलछद्म की जरूरत हुई, तो उसका भी मजबूती से सहारा लेना होगा। विरोध मंे खड़ी दुष्प्रवृत्तियों से संघर्ष के लिये सद्प्रवृत्तियों को उनसे भी अधिक प्रभावी सशक्त और प्रबल करने की जरूरत होगी। क्योंकि जीवन का अस्तित्व पाप वृत्ति से नहीं है सद्वृत्ति से है सद्वृत्ति का संबंध संस्कार से है। संस्कार ही वे तत्व है जो आदमी के मन का परिष्कार कर उसको पशुता से मानवता के करीब ले आते हैं। मनुष्य को मिलजुल कर मनुष्य बनकर रहना सिखाते हैं। एक-दूसरे के दःुख-सुख में सही साझीदार बन कष्टों को ढंग से सहना और जीवन को उदात्त ढंग से जीना सिखाते हैं। अतः इसे बचाने के लिए कहीं-कहीं चाणक्य का राजसी मूलमंत्र शठेशाठ्यम का भी प्रयोग करना होगा। संस्कार पर बात करने से पहले यह जान लेना भी आवश्यक है कि संस्कार आखिर है क्या? यह किन शब्दों से मिलकर बना है, इसका भावार्थ क्या है जो मानव के जीवन में इन्हें महत्व मिला है। संस्कृत भाषा में जहां संस्कृति स्त्रीलिंग है वहीं संस्कार पुर्लिंग। अर्थ की जहां तक हम बात करें दोनों का अभिप्राय लगभग एक है। संस्कार अर्थात मानव मन और बुद्धि का परिष्कार, परिमार्जन, शोधन, शुद्धिकरण। जिस प्रकार जल और साबुन के संयोग से कपड़ों को धोकर हम मैलरहित करते हैं उनमें नई शुद्धता ताजगी व सफाई ले आते हैं जो आंखों को सुहाने लगते हैं। संस्कार भी वही काम करते हैं। ये किसी भौतिक वस्तु को नहीं बल्कि हमारे आचरण का परिष्कार करते हैं। हमारी सोच का शुद्धिकरण करते हैं। मन के मैल को धोकर मानव के मस्तिष्क का परिमार्जन करते हैं। जिससे हमारे आचार-विचार में पवित्रता आ जाती है जो जीवन को इस प्रकार जीने का संस्कार देती है मानव जीवन सुखद आल्हादकारी हो जाता है। शाब्दिक अर्थ में संस्कार सम इत और कृ धातु के अकार प्रत्यय से मिलकर बना है। सम अर्थात समान कृ अर्थात करना। तात्पर्य है अपने मन, कर्म, वचन में सबके प्रति समभाव रखना तथा सबके लिये समान भाव से कर्म में प्रवृत्त होना और समान हित की बात करना ही संस्कार है। चाहे दूसरे के विचार हमसे मेल खायें अथवा नहीं, वह हमे स्वीकारे या नहीं। हमारा आचरण ऐसा होना चाहिए कि उसमें दूसरों के प्रति सम्मान झलके। हमारे विचारों में अपने ही समान दूसरों के विचारों के प्रति आदर भाव हो। हम सबके लिये समानता का व्यवहार करें। खुद अच्छा जीयें और दूसरों को भी अच्छी तरह से जीनें दें। यही मानव मन का संस्कार और यही जीने का सर्वोत्तम सिद्धांत है। इसे ही जीवन में अपनाएं।
जनजीवन के समाज के लिये लाभकारी उपकारी एवं अनुकरणीय बनाने हेतु हमारे मनीषियों एवं बड़े बुजुर्गो ने बच्चों की शिक्षा में संस्कारों के पालन की अर्हता पर सर्वाधिक जोर दिया था। किंतु आधुनिकता की आंधी में आज इन पर बात करना भी बचकाना समझा जाने लगा है। क्या होते हैं नीति संस्कार? कुछ सिरफिरे सोचने वालों के मन में बेमानी उद्गार कहकर आज के यर्थाथवादी भौतिकता प्रधान युग में प्रायः इनका उपहास ही अधिक उड़ाते है। इस परिवर्तन के पीछे कारण है आज के मानव की अनियंत्रित एवं असीमित स्वतंत्रता की भूख। आज का समाज जितनी स्वतंत्रता की मांग करता है संस्कारी समाज में उतनी स्वतंत्रता स्वीकार्य नहीं होती। संस्कारी समाज यह मानकर चलता है कि अति हर वस्तु की बुरी होती है। अतः मानव की स्वतंत्रता की भी निर्धारित सीमायें होनी चाहिये। मानव को  सब कुछ करने की खुली आजादी देने का तात्पर्य है समाज को पाशविक,हिंसक, अराजकता की ओर ठेल देना। जो न केवल किसी व्यक्ति विशेष को दुख पहंुचाती है बल्कि देश समाज की प्रगति में भी राड़े़े अटकाती है। संस्कार इनको नियंत्रित करने में प्रभावी भूमिका निभाते हैं।
हम प्रायः संस्कार का प्रयोग सीमित अर्थ में करते हैं। अपनी भाषा बोलचाल पहनावे को हमारे समाज विशेष की पहचान के प्रतीक होते हैं, को ही हम संस्कार के पर्यायवाची मानकर संस्कार की भूमिका को सीमित कर देते हैं। जबकि संस्कार का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। इसमें न केवल तन बल्कि मन और आत्मा का शोधन, विचारों का परिमार्जन, आचरण का शुद्धिकरण भी निहित होता है। जिनसे न केवल एक व्यक्ति ऊँचा उठता है अपितु पूरा राष्ट्र का चरित्र ही बलवान हो उठता है। संस्कारों की गंगा का प्रवाह विचार न होते हुए आदमी के मन आत्मा का प्रक्षालन कर उसके खुशहाल जीवन की आधारशिला रखता है। अतः हमें शिक्षा के साथ जीवन को परिमार्जित कर समाज की अच्छी खुशनुमा तस्वीर बनाने में सहायक होते हैं जिनसे हमारे आचार विचार और भावों केा नवनिर्माण होता है, उन्हें ही संस्कार कहा जा सकता है। बीते कल से आज की तस्वीर बहुत अलग है और आने वाला कल आज से भी पृथक होगा। अतः बदलते समय में संस्कारों का स्वरूप भी हमें आज के अनुरूप परिभाषित करना होगा। आज के संघर्ष में आज के अनुरूप ही हमें इसके नियम गढ़ने होंगे। जिन्हें आज की पीढ़ी तर्क एवं युक्ति संगत मानकर सहज स्वीकार कर सके ।घर हो या बाहर, दफ्तर हो या फैक्टरी, शिक्षा हो या राजनीति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम गुणवत्ता की बात करते हैं। यही नहीं इस गुणवत्ता कर पाने के लिये निरन्तर प्रयासरत् भी रहते हैं। अपने जीवन की कमाई का अधिकांश खर्च कर जिस शिक्षा में हम अपने बच्चों को बचपन से झोंक देते हैं। वह भी बालक के जीवन के शोधन परिमार्जन का एक कारक ही है। किंतु जिन तत्वों से निखर कर जीवन परिपक्वता की सीढ़ी पर चढ़ता है जो काष्ठ में भी अग्नि सा तेज पैदा करने की सामथ्र्य रखते हैं। जो लोहे को भी पारस में बदल सकते हैं, उन जीवन मूल्यों और संस्कारों की ओर प्रायः अब कोई ध्यान नहीं देना चाहता। पुराने समय में ज्ञानी ध्यानी महर्षि कहा करते थे कि सामाजिक मर्यादा का निर्वाह करते हुये और पारिवारिक नियमों का पालन करते हुये ही मानव स्वतंत्रता का सही अर्थ में उपयोग कर सकता है। जबकि आज के समाज ने जिस स्वतंत्रता को अंगीकार करने का मन बनाया हुआ है वह स्वतंत्रता नहीं है, स्वेच्छाचारिता अधिक है जिसमें दबे पांव पाशविकता भी धीरे-धीरे घर में पैर पसार रही है। पारिवारिक संस्कार अपने अनुशासन में बांधकर परिवार को एक ईकाई का स्वरूप देते हैं। जिस स्वतंत्रता में दूसरे के अहित होने की पूरी संभावना है संस्कार हमें ऐसी भूल करने से रोकते हैं। अतः सुखी समृद्ध  और सुकून भरा जीवन जीने के लिये समाज में संस्कारों की आज भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी पहले हुआ करती थी। सुसंस्कार से ही मन में सुविचार जन्म लेते हैं। हम ऐसे काम की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं जिनसे हम अपने आनन्द के साथ दूसरों की खुशी भी ढूंढते हैं। अन्य के अहित से बचने की कोशिश करते हैं। सुसंस्कार और सुविचार ही हमें सबके साथ मिलकर चलने की शक्ति देते हैं। सबकी भलाई की ओर प्रवृत्त करते हैं। किंतु आधुनिक स्वेच्छाचारिता की स्वार्थी आंधी से इन पर गहरी आँच आई है जिसने न केवल जीवन को विषाक्त किया है,, रिश्तों की मधुरता को छीनकर पवित्रता को भी गहरी चोट पहँुचाई है । आज सब कुछ उल्टा हो रहा है। हमारे मनोनुकूल जो होता है उसे हम सही मान लेते हैं और जो हमारे मनोनुकूल नहीं होता उसे गलत ठहराकर अस्वीकार कर देते हैं। सही गलत की यह परिभाषा ही त्रुटिपूर्ण है। एक का सही गलत उसके स्वार्थ के साथ जुड़ा होता है। अतीत में हमारे मनीषियों ने हिंसा को मानवीय गुणों से परे रख उसे जानवरों की हदबंदी में बांधने का प्रयास किया था। यही नहीं पशुओं में इंसानियत प्रवेश कराने की मिसालें भी कम नहीं मिलती किंतु फिर भी मानव के जेहन से हिंसा गई नहीं है। वह समाज में घटती रोजमर्रा की अपराध कथाओं में मानव मन की विकृत मानसिकता को उजागर करती हुई आज भी यत्र तत्र सर्वत्र दिखाई दे रही है। संस्कारहीन बच्चे प्रायः ईष्र्यालु प्रकृति के होने के कारण जल्दी ही मानसिक विकृति का शिकार हो जाते हैं। ज्यों-ज्यों ईष्र्या नफरत की प्रवृत्ति बढ़ती है दूसरे के अस्वीकार की भावना और दूसरों को सहने के बिंदु अंतिम साँसें गिनने लगते हैं। वह विवेकाहीनता में अपने पराये का भेद खो हिंसक हो जाता है। अपने सिवा उसे दुनिया में कुछ नहीं दिखाई देता। जीवनभर अपने दुख सुख के लिये ही रूदन करता रहता है। सही गलत सोचने की क्षमता चुक जाती है। अपना ही अपनों को वैरी हो अपनों से ही नफरत करते हुये उसे देखने में भी बिफरने लगता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि नफरत के बीजांे का प्रस्फुरण इंसान में असहिष्णु हिंसक मनावृत्ति को जन्म दे देता है। जो भी उसके स्वार्थ में आड़े आता है वही उसका दुश्मन बन जाता है। मन में जन्मी हिंसा अर्थ का अनर्थ कर डालती है। जो अंत में अपनों को ही जीवन भर रूलाती है। अपने सर्वाधिक हितचिंतकों की नृशंसता पूर्वक हत्या करने से भी वह गुरेज नहीं करता। फिर चाहे वह उसका कितना ही घनिष्ठ संबंधी या मित्र रहा हो। उसकी क्रूरता के शिकार प्रायः उसके सबसे करीबी पति पत्नी बेटा बेटी मित्र बंधु-बांधव अपने ही होते हैं। हम उसका कुसंस्कारी होने की संज्ञा तो गढते हैं। किंतु पारिवारिक मर्यादा के तले न चाहते हुए भी इन अपराधों को छिपाने का भरपूर प्रयास भी करते हैं। बेशक सिद्धांत में हम ऐसे असामाजिक तत्वों से बचने की गुहार लगाते हों किंतु व्यवहार में अपने घरों में उन्हें शरण देते हुये पाये जाते हैं। मन विचार के द्वंद्व में झूलते हुये न उन्हें अपने से दूर कर पाते हैं और न उन्हें अपना कर पाते हैं। आडे आ जाता है, संबंधों का धृतराष्ट्री मोह। मन जिन्हें अपनाना नहीं चाहता स्वार्थी संबंध उसे ही अपनाने की वकालत करते नजर आ जाते है। जबकि क्रियाकलाप इसके उलट गवाही दे चुके होते है। इसमें सुधार लाने क लिये हमें न केवल अपने शिक्षा के ढांचे पर पुनः गौर करने की आवश्यकता है बल्कि बचपन से ही बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति को जन्म देने वाले तत्वों पर ध्यान देने की जरूरत है। प्रायः माता पिता अपनी व्यस्तता या लाड़प्यार में बच्चों की गलत आदतों व जिदों को बचपन में रोकते नहीं हैं बल्कि कई बार वे यह कह कर कि बच्चा है बड़ा होकर खुद समझ जायेगा, अपनी उत्तरदायित्वहीनता का परिचय दे उसके आगे झुक मनमानी करने की छूट दे देते हैं। जिस कारण बच्चे में केवल स्व के लिये सोचना और स्व के लिये करना यही प्रवृत्ति हावी रहती है। अपने से बड़ों का सम्मान करना भी वह भूल जाता है। हम कहते हैं इसमें  संस्कार ही नहीं रहे। क्यों नहीं रहे इस पर ध्यान नहीं देते। बड़े होकर भी उसकी सोच में विशेष अंतर नहीं आता। ऐसे लोग भविष्य में भी केवल अपने लिये ही जीते है और अपने लिये ही मरते हंै। हमें विचारना होगा कि क्या हमें ऐसे ही लोगों का समाज चाहिये। और यदि ऐसा समाज नहीं चाहिये बल्कि हमें सभ्य सुशील और परोपकारी गुणी बुद्धिमान लोगों से परिपक्व हुआ विकसित समाज चाहिये तो इस विकृति को बदलने के लिये आवश्यक उपायों पर विचार करने की तत्काल आवश्यकता है।