संस्कृति के खेवनहार

 संस्कृति के पहरूये  हमारे लोकगायक अश्लील व फूहड़पन को आधार बनाकर हमारी लोक संस्कृति को किस गर्त में लेकर जा रहे हैं, यह बाजार में आयेे उनके गढ़वाली एलबम को देखने के बाद सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता हैं। पर्वतीय अंचलो में दिये गये शूटिंग के अंतर्गत  लोक कलाकारों द्वारा गायकांे के गीत पर अधनंगे होकर भड़काऊ नाच प्रस्तुत करना किस मानसिकता का द्योतक हैं ? गीत के बोलांे में चुनरी तथा पायल का जिक्र तो जरूर है हाॅलाकि  नृत्य के दृश्य में नायिका मिनी स्कर्ट तो जरूर पहन लेती हैं लेकिन कम्बख्त चुनरी को घर के खूूंटे पर टांक शूटिंग पर बलखाती आ जाती हैं। ख्याति प्राप्त गायक गजेन्द्र सिह राणा की कई  गढ़वाली एलबमों में  फूहड़पन तथा अश्लीलपन को समेटे गीतो की लम्बी फेहरिस्त हैं उनके नये सृजन छोरी 420 के एक गीत में 'किस' शब्द का भरपूर प्रयोग किया गया हैं। वही इसी गीत में नायिका के गले में पड़ी चुनरी को दो चकडै़त लड़के राह चलते झटक लेते हैं, लोक लाज व शर्मो हया को इंगित करती चुनरी को यूॅ सरेआम राह चलते लड़की के गले से निकालना कहाॅ की संस्कृति का परिचय है, आज की युवाशक्ति पर ऐसे गीत तथा फिल्मांकन से कैसा असर पड़ेगा, तय किया जा सकता है। गढ़वाली एलबम के नाम छकना बाँद, फुर्की बाँद,सकला बाँद,आदि रखे गये हंै जो अमूमन भाभी देवर, साली व दारू के इर्द गिर्द ही सिमटी दिखाई देती है। वहीं इन गीतों का सार व उदेश्य के बारे में पता ही नहीं होता है। लड़कियों के लगातार छोटे होते कपड़े चिन्ता का बिषय जरूर हैं। क्योंकि हमारा परिवेश रीति रिवाज तथा खयालात इन सब चीजों को करने की गवाही नहीं देती है। यदि ऐसी उटपटाॅग सीडीयों को हम घर में पारिवारिक जनों के बीच बैठकर देखना चाहें तो कितने असहज महसूस करेंगे।  इसका दोष केवल निर्देशक या गायक को ही नहीं जाता है अपितु उन लड़कियों को भी जाता है जो खुलकर नृत्य करने में अपनी सामाजिक मान मर्यादा को तीन ताक में रखकर  भड़काऊ सीन देने में जरा भी गुरेज नहीं करती हैं। नये उभरते गायकों के नये सृजन में कुछ ज्यादा ही समावेश इन अश्लीलता का है। और देखने वाले युवा तो चटकारे लेते जा रहे हंै। लेकिन जो ठेठ पहाड़ी हैं वो ऐसे  एलबमों से तौबा कर रहा है। गढ़ पुरूश नरेन्द्र सिंह नेगी के किसी भी गढ़वाली गीत में सामाजिक मान मर्यादाओं का मान मर्दन नहीं होता है बल्कि हमारी संस्कृति तथा परम्पराओं का सहेजने का प्रयास होता है जो कि अनुकरणीय भी है। अन्य लोकगायकांे तथा कलाकारों को चाहिये वे पाश्चात्य संस्कृति का वरण न करके अपनी लुप्त होती परम्पराओं को जीवित रखने की दिशा में सकारात्मक प्रयास करें। यदि नये गायक व कलाकारों को ऐसे ही फूहड़पन व अश्लील गीत व नृत्य पेश करने हो तो मुम्बई की अपना भाग्य अजमा सकते हैं ।