संवादहीन मुख्यमंत्री


त्रिवेन्द्र सिंह रावत को लगता है कि वे भ्रष्टाचार नहीं कर रहे हैं तो उत्तराखण्ड पर बड़ा एहसान कर रहे हैं। प्रदेश की भाजपा सरकार को मोदी के नाम पर सत्तासीन किया गया, किसी मुख्यमंत्री में इतनी हिम्मत नहीं कि मोटा भाई की नाक के नीचे से एक सुपारी भी उठा ले...लेकिन सुपारियों के अलावा भी खाने-पीने के बहुत धन्धें है, इसलिये त्रिवेन्द्र के प्रशंसक भ्रष्टाचार न करने को इस सरकार की उपलब्धि न मानें। किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री वहां के लोगों का अभिभावक होता है, जनता की राजनीतिक आकांक्षायें समझने की सहज बु(ि यदि नेता में नहीं है, तो उसे प्रदेश का मुखिया मात्र इसलिये नहीं बना देना चाहिये कि वह तिजोरी से पैसे नहीं चुराता। पूरे भारत में बिहार के बाद उत्तराखण्ड राजनीतिक खेती की सर्वाधिक उर्वरा भूमि रही है। राजनीति के सयाने लोगों का नेता बनने के लिये जो अतिरिक्त योग्यता किसी व्यक्ति में होनी चाहिये, त्रिवेन्द्र रावत को अभी उसका परिचय देना होगा। उत्तराखण्ड ने जितने मुख्यमंत्री देखे हैं उनमें नारायण दत्त तिवारी और निशंक ही ऐसे नेता रहे हैं जो भले ही अपने-अपने कारणों से विवाद में रहे हों पर जनता से संवाद करने और बिना बात ही लोगों को खुश करने की कला इन दोनों नेताओं में थी, है। नारायण दत्त तिवारी को मैं हलन्त हाथ मे लिये मात्र एक बार मिला, पर उनकी पैनी नजर बिना मैग्जीन बताये ही सीधे मेरी छाती से सटी पत्रिका पर पड़ी-'अक्षर ब्रह्म है ब्रह्मास्त्र भी...वाह! बहुत अच्छा लिखा है आपने...शाब्बास्ससस' तिवारी जी ने मुझे मेरी वर्षों की मेहनत ईनाम दिया...मैं इतना गदगद हुआ कि विशेषांक के लिये विज्ञापन मांगना ही भूल गया। संवाद की यही तकनीक निशंक भी जानते हैं। अभी पिछले दिनो मंत्री बनने के बाद उन्होंने मेरे जैसे कई लोगों को अपने निवास पर बुलाया, प्यार से चाय पिलाई, बातें कीं...निशंक को भला एक छोटी पत्रिका चलाने वाला संपादक या फिर कुछ अप्रकाशित किताबें लिखने वाला कलम घसीट क्या दे सकता है? वहां जितने भी लोग थे किसी से भी निशंक कुछ नहीं ले रहे थे...पर उन्होंने उस प्रदेश की राजनीति को हवा झलने वाले, सामाजिक-साहित्यिक क्षेत्र में फूल उगाने वाले वहां के लोगों से संवाद किया जहां की राजनीतिक जमीन ने उन्हें बड़ा वृक्ष बनाया। यह जनता से संवाद करने की तकनीक है जिसका त्रिवेन्द्र रावत में गहरा अभाव है। त्रिवेन्द्र अपने स्टाफ के अलावा किसी को नहीं जानते। संवादहीनता की हालत यह है कि दो महीने से प्रदेश के आर्युविद्यालय के छात्र अस्सी हजार से ढाई लाख की गई फीस को घटाने की मांग करते हुये हड़ताल पर हैं, कोर्ट के आदेश के बावजूद फीस कम नहीं हो रही है। त्रिवेन्द्र रावत को इन बच्चों से मिलने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई, आम जनता में धारणा है कि हरक सिंह रावत का अपना आर्युवेदिक स्कूल है जिसे बचाने के लिये ही भाजपा सरकार छात्रों पर निरंकुश व्यवहार कर रही है, यह भ्रष्टाचार पर छाता तानना नहीं है? त्रिवेन्द्र सोचते है कि मुखिया को मात्र बड़े लोगों से ही मिलने के लिये ही बनाया जाता है। संस्कृतियों पर चूना लगाने वाले फिल्मों के लोग, भारी भरकम जेब वाले व्यापारी, सेना के अफसर, मंत्री-संत्री / इनके अलावा कुछ गैंडे किस्म के पत्रकार, दल्ले किस्म के बु(िजीवी...यदि मुख्यमंत्री को अपने चारों ओर घिरे लोगों की उपयोगिता का आकलन करने की क्षमता नहीं है तो ऐसा नेता बहुत लम्बी पारी नहीं खेल सकता। सड़क बनाना, रिबन काटना, उद्घाटन करना...नेतृत्व करने से बहुत भिन्न बात है। यदि जनता की नब्ज देखना आपको नहीं आता तो पशु एवं वन विभाग संभालिये, मुख्यमंत्री तो वैद्य की तरह होता है, हर क्षण राजनीति और लोकतंत्र के रोगों को पहचानना, उनका तुरन्त निदान और बिना भेदभाव निरंतर सेवाभाव...हलन्त ने पन्द्रह वर्ष जिस विचारधारा के लिये कागज काले किये, सत्ता के उस कंगूरे पर यदि हंस प्रजाति के पक्षी नहीं बैठेंगे, तो अपनी भाषा बदलने का अधिकार हमको भी है। बंधना तो विचार से भी नहीं चाहिये, हम )षियों की संताने हैं, हम हर संग्रह के विरू( हैं, तो पार्टी क्या चीज है। राजनीति पार्टियों का जियो की तरह अपना नेटवर्क होता है, हलन्त भी इस राजनीतिक नेटवर्क का उपभोक्ता है, यदि आपकी सेवायें बाधित होती रहेंगी तो हम सिम बदलेंगे। जनता और सरकारों का लेन-देन का रिश्ता है। मोदी, राष्ट्रवाद और क्षेत्रवाद की आड़ लेकर कोई भी नेता राजनीति और सामाजिक समस्याओं के प्रश्नों से नहीं बच सकता। प्रश्न कहीं से भी उठे, उत्तर सत्तासीनों को ही देना होता है। पहाड़ की तरह दुर्गम होता जा रहा प्रदेश बीस साल तक भी यदि अपनी बीमारी भी नहीं पहचान सका है, तो पहला दोष राजनीति का ही है, जो गद्दी पर बैठेगा, उसे कोई तू भी न बोले? यह सरासर अन्याय है।