शब्द और सत्य


मां!
मैं कृतज्ञ हूं
शब्द और सत्य का वरदान पाकर
मैंने इस पर
मन, वचन, कर्म से 
चलने की भरपूर कोशिश की
लेकिन मां!
सत्याचरण मौखिक हो या लिखित
हलन्त की तरह 
बड़ा कष्टप्रद होता है
न कोई सत्य सुनना चाहता है
न पढ़ना
इसके लिये जाने कितनी
मुश्किलों, आलोचनाओं से
दो-चार होना पड़ा
तुम सब जानती हो
कहते हैं-खरा सोना भी तो
बगैर मिलावट के
आभूषण में नहीं ढ़लता
मां! मैं चाहता हूं
मुझ पर थोड़ी 
लक्ष्मी की कृपा हो जाये।
मां, हंसी और दूसरे ही पल
लक्ष्मी में बदल गई
बोली- वत्स! क्या चाहते हो?
मैंने कहा- मां!
इस सुदामा पर भी 
थोड़ी कृपा करो
वह हंसी-'सुदामा पर मैंने नहीं
श्री हरि ने कृपा की थी,
खैर जाओ, तुम्हारा भी जीवन
इच्छानुसार बदल जायेगा'
मैंने देखा, मेरे पास
बंगला, गाड़ी, सेवक, सेविकाओं की
रेल पेल मची है
चारों ओर कंकर पाथर जैसी
रंग-बिरंगी मुद्राओं का ढ़ेर लगा है
सभी सम्पन्न
याचक की भूमिका में
कुछ न कुछ मांग रहे हैं,
मेरे भीतर के ठिठुराये सत्य ने
हाथ छुड़ाकर कहा-
अब रोने से क्या फायदा
कुछ दिन असत्य के साथ भी
रहकर देख लो!
जिनकी मांगें पूरी नहीं हुई थीं
वे भेड़िये जैसे आग्नेय नेत्रों से
घूर रहे थे
चारों ओर झूठ और
असत्य का सागर
उछालें मार रहा था
मैं घबरा गया, बोला-मां!
कहां हो तुम?
मुझे मेरा सत्य और
शब्द लौटा दो...
मां फिर सरस्वती की 
मुद्रा में आ गई
बोली- 'देख लिया न 
असत्य का संसार
कंचन-कामिनी के आगे
सत्य और शब्द का कोई
मोल नहीं होता है
गर, इसी में रहना चाहते हो
रह सकते हो'
मैंने गिड़गिड़ाकर कहा-
मां! अब मुझे
शब्द और सत्य के साथ
मरना भी पड़े, तो स्वीकार्य है
....अचानक मेरी आंख खुल गई
प्राची में भोर का तारा उग आया
मैं एकटक उसी ओर देखता रहा
धीरे-धीरे आसमान
लोहित हो चला था
पखेरू चहचहाने लगे थे
मुझे लगा, बाल रवि की
सुनहरी किरणों से
मेरा सर्वांग 
प्लावित होता जा रहा है।