शिकार (लघु कथा )

पहाड़ी गांव का एक आदिवासी, घुटने तक, पैबंद लगी धोती पहने, अपराधियों के कटघरे में, हाथ जोड़े खड़ा था। उसके सिर और दाढ़ी के बाल, बेतरतीब से बढे़ थे। शरीर पर जगह-जगह, पट्टियां चिपकी थीं। वह भयभीत निगाहों से, चारों ओर, तितर-बितर देख रहा था।
सुक्खू, क्या तुम अपना जुर्म, कुबूल करते हो?
मैंने कोई जुर्म नहीं किया माई बाप।
क्या तुमने अपने घर में बंद कर, कुल्हाड़ी से, बाघ का शिकार नहीं किया?
हुजूर, रात में, जाने कब, बाघ, मेरे घर में घुस आया। गंध पाकर मैंने अपनी पत्नी, बच्चों को, किसी तरह, बाहर कर, भीतर से, कुण्डी लगा दी। मेरे पास, बचने का कोई रास्ता नहीं था। तब मैंने कुल्हाड़ी से...
क्या तुम्हें नहीं पता कि जंगली पशुओं का शिकार कानूनन जुर्म है?
माई बाप, मैंने जंगल में घुसकर, बाघ का शिकार नहीं किया और न ही उसे अपने घर बुलाया। जंगल से मेरा घर, चार कोस दूर है।
पिफर भी तुमने बाघ की हत्या तो की?
और अगर बाघ, मुझे खा जाता, तो क्या आप, मेरी जान, भर सकते थे? मेरी पत्नी, बच्चों की परवरिश कर सकते थे, अजीब है आपका कानून साहब। मैंने जान पर खेलकर, बाघ से अपनी जान बचाई है। अगर आप सबको अपना बाघ, इतना ही प्यारा था, तो उसे बांधकर रखना चाहिये था।
तुम, कानून का मशाक उड़ा रहे हो सुक्खू।
जज साहेब, हम, अनपढ़, आदिवासी लोग, व्यर्थ किसी की हत्या नहीं करते। पशुओं की तो बिल्कुल भी नहीं किन्तु मैं समझ गया कि आपके सामने, मेरे परिवार की जान से ज्यादा, बाघ की जान कीमती है। अगर अब कभी बाघ मेरे घर में आया तो मैं उससे कहूंगा कि वह हम सबको, खुशी-खुशी, खा ले।
सुक्खू, पफपफक कर रो पड़ा। उसकी आंखों से आंसुओं की धार, लग गई। जज साहब ने, बहुत देर तक, कुछ सोचा। पिफर, हिदायत देकर उसे बरी कर दिया।
कानून, जंगल और समाज के पहरेदार शिकार, छूट जाने के गम में, अपना सा मुंह लेकर रह गये। ु