सुरा नहीं था सोमरस


बेतरतीब ढंग से पसरे लम्बे चैड़े पहाड़ विस्तृत खेतों के बीचों-बीच सर्पाकार पगडंडियों से  पहंुचे जाने वाले पहाड़ के प्रत्येक गांव में शाम ढ़लते ही एक खास तबका दारू गटक कर मस्त हो जाता है। कमाई के नाम पर महज ताश पर ही सीमित रहने वाले इस खास वर्ग को अगर दारू पीने से मना किया जाये तो इनका रटारटाया जबाव मिलता है, कि प्राचीन काल से ही राजा-महाराजाओं ने अपना दबदबा कायम करने के लिये शराब का सेवन किया था, इतना ही नहीं ऋग्वेद सहित कई शास्त्रों में वर्णित है कि देवता लोग दारू पीकर अप्सराओं का नृत्य देखते थे, यह अलग बात है कि दारू को ये सोमरस कहते थे, जब देवताओं ने शराब का लुत्फ उठाया तो हम नर हैं...समझाने वाला खामोश..निरूत्तर...शराबी सामने वाले की इस अप्रत्याशित हार को महसूस कर देर तक उसके चेहरे के हाव-भाव को देखता रह जाता है।
अगर हम आर्य समाज की बात करें तो ये लोग सोम की शक्ति और महिमा के इतने कायल थे, कि ऋग्वेद में कई ऋचाओं में केवल सोम देवता का वर्णन भर है। अवेस्ता का प्रसिद्ध होम, सोम का प्राचीन नाम है। स्पष्ट है कि आर्य जब ईरानी लोग बने होंगे तो वे सोम की महिमा भी अपने साथ ले गये। उस समय सोमरस का जबरदस्त शौक था। दूध, दही, जौ सहित कई अन्नों के मिश्रण से तैयार सोमरस में इतनी मादकता होती कि चन्द घूंट भरने से व्यक्ति कांपने लगता हैै। इस सोमरस का प्रयोग होम में बतौर हवन सामग्री के रूप में किया जाने लगा।
ऋग्वेद में वर्णन मिलता है कि सोमरस पीने के बाद आर्य  लोगों में अद्भुत शक्ति का संचार होता था और वे ऐसी बहकी'बहकी बाते करते कि जिसे औचित्य हीन कहा जा सकता है, मगर सोमरस पीने के बाद रत्तीभर भी मार-पीट हुई होगी इसका कहीं जिक्र नहीं। जब आर्य लोग हिमालय के आस-पास या पश्चिम के पर्वतीय इलाकांे में रहते थे, तब सोम की प्राप्ति में उन्हें कठिनाई नहीं होती थी, परन्तु इन दुर्लभ पर्वतीय क्षेत्रों को छोड़ने के बाद उन्हें सोमरस प्राप्त करना दुर्लभ होता गया, तब बहुत दूर से सोमरस मंगाने लगे थे। सोमरस बेचने वालों का एक खास समुदाय था, और इस समुदाय को नीच समझा जाता था क्योंकि ये लोग सोमरस नहीं पीते थे, बल्कि केवल सोम की पत्तियों को बेचते थे तो भला सोमरस से दूरी बनाने वाले इन लोगों को सोमपायी आर्य निंद्य क्यों न समझते।
सोमरस को वास्तव में आर्य लोग सच्चा देवता मानते थे, सोम के अधिष्ठाता देव को स्वर्ग में रहने वाला समझते थे। सोमरस को ये लोग देवता का पार्थिव शरीर समझकर उसका सेवन करते थे। और वृहद् यज्ञों में देवताओं का आह्वान कर उन्हें भी आहुति रूप मंे सोमरस का भोग लगाते थे। सोम को अमृत मानने वाले इन लोगों का तर्क था, कि सोमरस के पान से ही देवताओं को अमरत्व, सर्वशक्तिमान और अनन्तकाल तक स्थायी तारूण्य प्राप्त था।
सोम व अग्नि के सम्बन्ध में कई बातों को विचार करने से पता चलता है कि आर्य ऋषि सूर्य में जैसे अग्नि की भावना करते थे, अर्थात सूर्य को अग्नि से जोड़कर देखते थे वैसे ही सोम में चन्द्रमा का अंश देखकर चन्द्रमा को अमृतमयी की संज्ञा दे दी। और सोमरस भी अमृत पान के बराबर होता है। वह अत्यन्त गुणकारी है, देवताओं के लिए सोम ही अमृत है, लौकिक सोम-सोम की लता का रस उस अलौकिक सोमरस किंवा अमृत का पार्थिव रूप है। शतपथ ब्राह्मण तथा अन्य ग्रन्थों में चन्द्रमा को राजा सोम कहा गया है। इसलिये वैदिक सोमयज्ञ  एक प्रकार की चन्द्रोपासना है। चन्द्रमा अपनी किरणों से वनस्पतियों का पोषण करता है। अन्य वनस्पतियों के रसपान से ऐसी मादकता कहाँ? इसे पीने से महज आनन्द की प्राप्ति एवं सबसे मधुर सामंजस्य बनाना भी सोमरस का अंग था
परन्तु आधुनिक युग में जिस द्रुत गति से आज की दिग्भ्रमित युवा पीढ़ी शराब पीने को अपनी शानोशौकत बताने के साथ अपनी तुलना यदि आर्यों के सोम से करे तो यह उनकी भूल है। शराब में पाये जाने वाले मिथाइल एवं ऐथिल एल्कोहाॅल तथा कच्ची शराब में मिलाये जाने वाले डी.डी.टी. द्वारा कई लोगों के घरबार  बंजर पड़ गये हंै। यह वनस्पतियों द्वारा बनाया वह पौष्टिक सोमरस नहीं है, जिसे देवता लोग भी पान करते थे बल्कि कई हानिकारक कैमिकल से बनाये जाने वाला वह लिक्विड है जो धीरे-धीरे यकृत, वृक्कों के साथ-साथ मानसिक व आर्थिक आघात पहंुचाकर लोगों के हंसते जीवन में विष घोल रहा है। हमारे कर्ता-धर्ता शराब के व्यापार पर अरबों-खरबों का तन्त्र खड़ा करके अपने ही राष्ट्र की नींव पर मट्ठा डाल रहे हैं। यदि इस पैसे का शतांश भी हम अपने स्वर्णिम अतीत को जानने पर लगाते तो ऋषियों की मेधा से हम समूचे विश्व को पुनः चकित का सकते थेे