स्वावलम्बन


ये जो छोटा सा एक पौधा...
उग आया है मेरे आंगन में...
मैनंे नहीं रोपा था इसे...
जानबूझ कर कभी...
फिर भी...
अपने अस्तित्व को स्वीकारता...
ये उग आया मेरे आंगन में...
अन्य पौधों से दूर...
अकेला पड़ा-पड़ा ये...
खटकता है कभी-कभी 
मेरी आंखों में...
तोड़ने के लिए भी...
बढ़ जाते हैं कभी हाथ...
पर तोड़ने से मन ठिठकता है...
सोचती हूं...
क्या उदेश्य है 
इसका यहां पर...
जो फैला रहा है 
अपनी शाखाएँ
इसे तो कभी
पानी भी नहीं दिया मैंने...
फिर भी कैसी 
जड़ें जमाई हैं इसने...
देखती हूं...
जिन्हें सींचती रही मैं वर्षो से...
एक दिन में ही 
जलविहीन होने से 
वे मुरझा गए..
पर वह...
जिसकी कभी 
सुध भी ना ली मैंने...
वो खड़ा गर्व से मेरे द्वारे...
आते जाते जब भी 
नज़र पड़ती है उस पर...
गर्व से अपने पत्तों को
हिलाता-इठलाता-मुस्कराता...
दे जाता है एक सीख 
स्वावलम्बन और आत्मगौरव की।