उम्मीदों की वर्षगाँठ


नौ नवम्बर सुबह की 
धूप का टुकड़ा
मेरे मकान की मुण्डेर पर बैठा
कुछ कह रहा है
बरामदे में सत्याग्रह पर बैठी
बेकारी /उम्मीदों का ज्ञापन लिये
विश्वास की चैखट पर खड़ी है
चैतू और चमेली के फटे हाल
सात वर्षांे का श्वेत पत्र बांच रहे हैं
पहाड़ की 'उकाल' की तरह
खड़े हंै प्रश्न
उम्मीदों के उत्तर खामोश हैं
वह बरगद का विशाल वृक्ष
जिसके आस-पास
उग आये हैं झाड़-झंकाड़
कंटीले नागफनी के जंगल...
इस बियाबान में /गुम होता बचपन
लाचार खड़ी जवानी /टूटता बुढ़ापा
पहाड़ की संपेरी सड़कें /ढ़ोती दुर्घटनायें
हिफाजत के लिये बुने गये शब्द
मुक्कमल बयान दे रहे हैं
कुछ नहीं बदला
न मौसम, न नीति, न नीयत...
दर्द भरी संवेदनायें
आवारा हवा की तरह गुम हो रही हैं।
असहाय पतझड़
वर्षों से दे रहा दस्तक
नई कोपलों की आस लिये
हर नई सुबह की खामोशी...
रात में खुश रहने वाले उल्लुओं ने
भोर के आह्वान पर अधिकार कर लिया है
गूंगा और बहरा समय
सूरज को आवाज देने लगा है 
दरकते सपने
पहाड़ की शांत वादियां
गहरे 'ओडियारों' में पसरा अन्धेरा
एक नई वर्षगांठ पर
अपने वर्तमान का 
ज्ञापन पढ़ रहा है 
सवाल अपनी जगह खड़े/और
उत्तर खामोशी ओढ़े हुये हैं।