उत्तराखंड का बेताज अँगरेज़ राजा

सन 1842 की बात है। पहले अंग्रेज-अफगान युद्ध में अंग्रेजों की हार हुई। कुछ अज्ञात कारणों से सेना से कुछ लोग भाग निकले। शायद मरने के डर से, जेल के डर से, या हारने की आत्मग्लानि से, कारण कुछ भी हो, कुछ सिपाही भागे तो...इन्हीं भागे हुए सिपाहियों में से एक भगोड़े का नाम था फैड्रिक विलसन। शायद अपनी पहचान छुपाने के लिए या फिर सुदूर हिमशीतल जगह का आकर्षण, वह भाग कर रूका उत्तराखण्ड के एक सीमान्त ग्राम मुखबा में। यह ग्राम गंगोत्री के पुजारी परिवारों का ग्राम है। एक लम्बा-चैड़ा गोरा...स्थानीय भाषा और परिस्थितियों से सर्वथा अनभिज्ञ-बन्दूकधारी व्यक्ति जब ग्राम में पहुंचा तो पूरा गांव सहम गया। लोगों ने अपने दरवाजे बन्द कर लिए। अपने जाति गर्व के अधीन ब्राह्मणों ने तो विल्सन को कोई भाव ही देना उचित नहीं समझा। कई दिन भटकने के बाद जब उसे कोई आश्रय नहीं मिला तो उसने निराश होकर गाँव की निम्नवर्गीय बस्ती के एक घर का दरवाजा खटखटाया। संयोग से यह घर हर शुभ अवसर पर बाजा बजाने वाले बाजगी जाति के मौतुंग दास का था।
विडम्बना यह है कि इस जाति के लोग अस्पृश्यता का पर्याय तो माने जाते हैं, घरों और मन्दिरों में इनका प्रवेश वर्जित है मगर इनके वाद्य-वादन के बिना न तो कोई शुभ-कर्म प्रारम्भ होता है और ना ही मन्दिरों के कपाट खुलते हैं, यहां तक कि घर या बाहर का कोई भी शुभ कार्य सम्पन्न होना सम्भव ही नहीं है। गांव के सवर्णों से तिरस्कृत और उपेक्षित विलसन ने जब मौतुंग दास का दरवाजा खटखटाया तो संयोग से वह घर में ही था। उसने दरवाजा खोला तो सामने एक लम्बे-चैड़े बेहद थके मांदे गौरांग शासकजाति के बन्दूकधारी व्यक्ति को सामने पाकर बहुत डर गया किन्तु जब उसने उससे अनजानी अंग्रेजी भाषा के साथ दयनीय हाव-भाव से शरण की मांग की तो कुछ न समझते हुए भी उसने उसे इस दृष्टिकोण से शरण दे दी कि एक गौरांग के उसकी शरण में आ जाने के कारण उसकी सामाजिक हैसियत में जमीन-आसमान का अन्तर आ जाएगा। उसके सामाजिक व राजनैतिक सम्मान में अकल्पनीय अभिवृद्धि का श्री गणेश ही हो सकता है, कोई नुकसान नहीं होगा। उन सवर्णों के अहम को भी ठेस लगेगी जो सजातीय से नफरत करते हैं और विदेशियों को कहते तो म्लेच्छ हैं मगर उनकी चरण वन्दना का कोई मौका नहीं चूकते। 
ये अस्पृश्य दास लोग पूरी तरह से सवर्णों की दया पर निर्भर थे। वास्तविकता यह थी कि सवर्णों द्वारा फेंके गए चन्द सिक्कों और रोटी के चन्द टुकड़ों के अलावा उनके पास ऐसा कुछ नहीं था जो खोने के लिए हो। इसके विपरीत विल्सन को शरण देकर और उसके साथ काम करने से उन्हें स्वतः शासक वर्ग का सहयोग और समर्थन के
साथ अच्छी कमाई का आश्वासन विल्सन से मिल रहा था। आखिर स्थानीय सहयोग से विल्सन को स्थानीय संसाधनों के दोहन का अवसर प्राप्त हो ही गया। वस्तुतः अधिकतर स्थानीय लोग, विशेष कर निम्नजातियों के लोग स्थानीय रूप से मांस और कस्तूरी के लिए  अन्धाधुंध कस्तूरी मृगों का शिकार करते थे। मृग का मांस उनका भोजन बनता था मगर खाल और कस्तूरी के व्यापार का सही     प्रबन्ध न कर पाने के कारण उन्हें उससे कोई विशेष आर्थिक लाभ नहीं था। विल्सन ने तथ्यों का सही आकलन किया और इस समस्या के निराकरण के लिए उचित विपणन व्यवस्था का खाका तैयार कर उन्हें अधिक मूल्य उपलब्ध कराने का वायदा किया। उसने कस्तूरी मृगों की खाल को सही तरीके से शोधन प्रक्रिया का प्रयोग कर उसे अधिक दिनों तक चलने योग्य बना कर उसको अधिक मूल्य में सही और बाजार की मांग के अनुरूप उपलब्ध कराने का अभिनव प्रयोग किया। इससे उसे अप्रत्याशित लाभ प्राप्त हुआ। कच्चे माल का मूल्य थोड़ा सा बढ़ा देने से उसे जहां अधिक कच्चा माल (कस्तूरी और खालें) प्राप्त हुईं, वहीं सही समय पर मांग के अनुरूप अधिकतम लाभ पर इनके विक्रय से उसने उस समय, जब लोग लाखों से अधिक की   कल्पना भी नहीं कर सकते थे, तब करोड़ों रूपए कमाए। साथ ही उसने मुखबा से लेकर अपने माल के अधिकतम मूल्य मिलने के मैदानी क्षेत्र के सुदूर स्थानांे तक एक बड़ा आधारभूत ढांचा खड़ा कर दिया था। यही ढांचा उसके आर्थिक साम्राज्य की रीढ बना और उसे उत्तराखण्ड का बेताज बादशाह बना दिया। 
जी हां, बे-ताज बादशाह...अर्थात मुकुट विहीन राजा? हम उसके लिए यह शब्द इसलिए प्रयोग नहीं कर रहे हैं कि उसने बहुत पैसा कमाया। जी हां, पैसा तो उसने बहुत कमाया ही, महाराजा टिहरी के राज्य में रहते हुए उसने अपना सिक्का (रूपया) भी चलन में साख के साथ डाल दिया। जो वर्षों जनसाधारण के बीच प्रचलन में रहा। अपनी व्यापारिक गतिविधियों को और परवान चढ़ाने तथा स्थानीय समाज में अपनी घुसपैठ बनाने के लिए फ्रैड्रिक विल्सन ने बड़े मनोयोग से स्थानीय भाषा गढ़वाली भी सीखी और अपनी तीव्र व्यापारिक बुद्धि के चलते उसमें पारंगता प्राप्त कर स्थानीय लोगों से उन्हीं की भाषा में सम्भाषण और मोलभाव करके अधिक लाभ कमाने लगा। वह यहीं पर नहीं रुका उसने बाजगी जाति पर अपने अहसान का बदला दूसरी तरह से भी चुकाया। हालांकि उसके पास पैसा आ जाने पर उसकी सामाजिक हैसियत में जमीन आसमान का अन्तर आ चुका था किन्तु वह उस दिन को नहीं भूला था जब अस्पृश्य, शुभ अवसरों पर बाजा बजाने वाली बाजगी जाति के मौतुंग दास नामक व्यक्ति ने उसे शरण दी थी। उसने अपना अधिकतर राव-रस्म और नौकर-चाकर इसी जाति से रखे और उसने इसी जाति के मंगतू नामक बाजगी की बहिन से अपना विवाह भी किया। इस पत्नी से 
उसे कोई संतान न होने के कारण उस ने मंगतू की पुत्री से दूसरा विवाह किया, जिससे उसे तीन बच्चे प्राप्त हुए। 
विल्सन एक अत्यन्त महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसे चैन कहां, उस के
सामने तो ईस्ट इण्डिया कंम्पनी का उदाहरण था। ठीक है, उस के सर पर ब्रिटिश सरकार का हाथ न हो, भगवान का हाथ और स्थानीय सहयोग तो था। उसकी व्यापारिक बुद्धि में पहाड़ों पर बिखरे पड़े हरे सोने, देवदार के वृक्षों, पर पड़ी तो उसने अपना सम्पूर्ण ध्यान इस सोने के दोहन पर लगाने का निश्चय किया। अपनी अन्य व्यापारिक गतिविधियों के साथ-साथ उसने देवदार की लकड़ी के दोहन को अपना एकमात्र लक्ष्य बना कर योजनाबद्ध तरीके से उस के ऊपर काम शुरू किया। उसने पाया कि इस लकड़ी को मैदानी क्षेत्र में सोने के भाव बेचने में एकमात्र बाधा उस का परिवहन है। सुदूर पर्वतीय क्षेत्र से मैदानी क्षेत्र हरिद्वार तक देवदार की लकड़ी पंहुचाना एक बेहद श्रमसाध्य और बेहद खर्चीला, लगभग असंभव कार्य था। 
उसने अपनी अंग्रेज बुद्धि को इस समस्या के निदान के लिए लगाया तो उसे लगभग ना मालूम खर्च पर ही सुदूर पर्वतीय क्षेत्र से हरिद्वार तक लकड़ी के परिवहन की जुगत सूझ गई। यह जुगत थी भगीरथी और उसकी सहायक नदियों में देवदार के डेढ-दो मीटर के लट्ठे बहा कर उन्हें हरिद्वार में इकट्ठा कर देश के कोने-कोने में अन्य       संसाधनों से भेज देना।  इस योजना को उसने सबसे छुपा कर रखा और महाराजा टिहरी के पास देवदार के जंगल काटने के परमिट के लिए निवेदन कर दिया। परिवहन की कोई व्यवस्था न होने के कारण इतनी कीमती लकड़ी के जंगल या तो स्थानीय आवश्यकताओं की आपूर्ति के काम आते थे या फिर सूख कर सड़ जाते थे। कोई इन जंगलों के कटान की बात सोच भी नहीं सकता था। महाराजा टिहरी
को यह भगवान बद्री विशाल का आशीर्वाद लगा और उन्होंने कहीं से भी और कभी भी, जंगल कटान की अनुमति मात्र 400रु० में प्रदान कर दी। यह अनुमति प्राप्त करने से काफी पूर्व से ही विल्सन अपना मुख्यालय कहें या व्यापारिक राजधानी हरसिल में बना चुका था। उसने एक बड़े भूखण्ड पर एक विशाल महलनुमा भवन अपना आवास बना लिया था। अब वह वहीं से अपना आर्थिक साम्राज्य चला रहा था। देवदार के लट्ठों की जल परिवहन व्यवस्था पर विल्सन ने बहुत बारीकी से विचार कर उन-उन स्थानों पर, जहां-जहां लट्ठों के जल परिवहन में अवरोध होने की सम्भावनाएं हो सकती थीं, वहां-वहां उसने अपने निरीक्षक, मजदूरों के साथ नियुक्त करके बड़ी संख्या में मजदूरों को देवदार के समूल नाश के लिए लगा दिया। भगीरथी और 
उसकी सहायक नदियों के किनारे के पर्वतों को नंगा कर दिया। हरिद्वार में देवदार के लट्ठों का अम्बार लग गया। अब हरिद्वार और उस के आसपास के गांव-कस्बे इमारती लकड़ी की बड़ी मंडियां बनने लग गईं थीं। पहाड़ के इन नदियों के सीमावर्ती क्षेत्र जो हिमाच्छादित हिमालय की ऊंची चोटियों से हरिद्वार के मैदान तक था, में एक नई सत्ता ने जन्म लिया और वह थी हरसिल के राजमहल की सत्ता...हरसिल में अपना दरबार लगा कर दिन प्रारम्भ करने वाला फैड्रिक विलसन इस सत्ता का बेताज बादशाह था। 
विलसन की महत्वाकांक्षाएं, असंख्य नौकरों और महाराजा टिहरी के नौकरों द्वारा उससे पैसा लेकर उसकी चाकरी करने से, अंगड़ाई लेने लगीं। वह महाराजा के समानान्तर आवरणयुक्त सरकार चलाने लगा था। उसने अपने चांदी के अपने नाम के सिक्के चलाना प्रारम्भ कर दिए जो वर्षों तक चलते रहे। हरे सोने के लगभग मुफ्त में प्राप्त होने तथा लगभग मुफ्त परिवहन के चलते विलसन ने अकूत दौलत कमाई। वह महाराजाओं की तरह जीवन जीता था। दरबार लगाता था। मुकदमे सुनकर अपना फैसला देता था, उसका कार्य, व्यवहार और चर्या बिलकुल मुकुटविहीन राजा-महाराजाओं की सी थी, वह सरकारी और गैर-सरकारी अफसरों को, समाज के प्रतिष्ठित लोगों को और नामी गिरामी लोगों को अक्सर बढिया दावतें देता था तथा सुख-सुविधा और मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराता था। जिससे उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। उसके सिक्के चलाने की शिकायतें जब महाराजा टिहरी और अंग्रेजी शासन तक पहुंची तो उसके खिलाफ जांच बैठा दी गई किन्तु विलसन के 'चांदी का जूता, चांद नरम' सूत्र, हर जांच में अपने लिए क्लीन चिट प्राप्त करता रहा। इस अकूत सम्पदा के काफी बड़े भाग से विलसन और उसके बड़े बेटे चार्ली जो उसका सबसे योग्य बेटा था, ने उत्तराखण्ड के लगभग सभी शहरों में सारी सुख सुविधाओं से सम्पन्न होटलों और कोठियों का निर्माण कराया। मसूरी में उसके बनाए होटल चार्ली में पिछले कई दशक से 'लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक प्रशिक्षण अकादमी' जिसमें आई.ए.एस.प्रशिक्षित होते हैं, चल रही है। वर्तमान में विलसन के कुछ वंशज अभी भी देहरादून में रहते हैं।