उत्तराखंड के दुग्धसंघ संकट में

उत्तराखण्ड राज्य की मांग के समय उत्तराखण्ड की आर्थिक व्यवस्था चलाने हेतु पशुपालन को भी एक ऐसा व्यवसाय माना गया था जो पर्वतीय क्षेत्र में रोजगार का साधन बनता। राज्य बनने के बाद इस व्यवसाय की ऐसी दुर्गति हुई कि इससे जुड़े दुग्ध संघ एक-एक कर बन्द होते जा रहे हैं। पहले चमोली, अब श्रीनगर और अब धीरे-धीरे अन्य भी बन्दी के कगार पर हैं।
पशु पालन में जहां आम कृषक को रोजगाार मिलता है वहीं उससे जुड़े दुग्ध संघ जो कृषकों द्वारा उत्पादित दूध का विपणन करते हैं, उससे सैकड़ों कर्मचारियों को रोजगार मिलता है। किन्तु राज्य बनने के बाद भी हम इस व्यवसाय से जुड़े तीन विभाग...कृषि, पशु पालन एवं दुग्ध विकास अपनी-अपनी ढ़पली बजाते रहे हैं। इसी के कारण भारी-भरकम बजट के बावजूद कृषि क्षेत्र निरन्तर सिमटता जा रहा है। पशु पालन से लोग विमुख हो रहे हैं तथा दुग्ध उत्पादन निरन्तर गिरता चला जा रहा है। दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा देने एवं उसके विपणन के लिये गठित दुग्ध विकास विभाग किंकर्तव्यमूढ़ हो दुग्ध संघों की बिगड़ती स्थिति को मूक दर्शक बनके देख रहा है। यही विभाग स्वयं कहीं तो दुग्ध संघों की कठिनाईयों को बढ़ा रहा है तथा कहीं दुग्ध संघ एवं दुग्ध विकास विभाग आपसी तनातनी के चलते एक दूसरे को गरियाते अपना बेड़ा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।
कृषि एवं पशु पालन विभाग सरकारी विभाग हैं, उनकी अपनी चाल है, घाटा-नफा उनके लिये कोई मायने नहीं रखता। इसलिये इन सरकारी विभागों की कमियों का आम जनता पर भले ही सीधा प्रभाव न पड़ रहा हो, किन्तु उनके कर्मचारी अपनी उसी दुलकी चाल से चलते रहे हैं। पर दुग्ध संघ की अगर बात की जाये तो उसका सीधा सम्बन्ध जनता से भी जुड़ा है और राजनीति से भी। जब तक मामला जनता से जुड़ा हो और जनता की बात हो, तब तक सब ठीक चलता है। पर यदि राजनीति हावी हो जाये तो फिर जनता के हित पीछे रह जाते हैं। यही हाल राज्य बनने के बाद दुग्ध संघों का हुआ।
राज्य बनने के बाद संघ की प्रबन्ध कमेटी बनाने के लिये लोगों को पकड़-पकड़ कर लाना पड़ता था, वहीं अब दुग्ध संघों में सरकार से नामित सरकारी पार्टी के कार्यकर्ता कभी प्रशासक बनकर दुग्ध संघों को चलाते हैं तो कभी नामित सदस्य बनकर अध्यक्ष बन जाते हैं...भले ही उन्होंने कभी पशुपालन के नाम पर पशु की शक्ल भी न देखी हो। यही कारण है कि पहले सिमली (चमोली) दुग्ध संघ बन्द हुआ, फिर श्रीनगर और अल्मोड़ा, देहरादून, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़, चम्पावत भी कमोवेश बन्द होने की कगार पर खड़े हैं। अब सवाल उठता है कि सरकार आखिर चाहती क्या है? क्या अपने-अपने कार्यकर्ताओं को कभी नामित कर, कभी धन बल-जन बल और कभी शासन बल के सहारे इनको पदासीन करने की कीमत पर दुग्ध संघों की बलि चढ़ाना चाहती है सरकारें? क्या सुधार की कोई गुंजाईश या फिर वर्तमान की तरह बदहाली, यह हमारी प्रदेश सरकारों को तय करना है। सरकार यदि इन संघों को बन्द करना चाहती है तो उसे कुछ करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि ऐसा अपने आप हो रहा है और यदि सरकार कुछ सुधार चाहती है तो उसे सबसे पहले कुषि, पशुपालन, दुग्ध विकास, दुग्ध संघों को एक कड़ी में पिरोना पड़ेगा। उसके बाद सरकार को यह समीक्षा भी करनी होगी कि आखिर सरकार द्वारा चलाई गई श्वेत क्रांति योजना से लेकर मिनी डेरी, बिग डेरी, आईआरडीपी, से पशुओं की खरीद, स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना से दुधारू पशु खरीद, स्पेशल कम्पानेन्ट प्लान से पशुओं का वितरण, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना से दुधारू पशु वितरण, सहित अनेकों निजि डेरी योजनाओं हेतु करोड़ों का ऋण एवं अनुदान दिये जाने के बावजूद आखिर दुग्ध उत्पादन घट क्यों रहा है। सरकार की इन योजनाओं में आखिर क्या कमी थी।
कमी का आकलन करने के बाद सभी सम्बन्धित विभागों के समन्वयन से दुधारू पशुओं की खरीद, उनके चारे-दाने की व्यवस्था उत्पादित दूध की सही कीमत से लेकर विपणन हेतु प्रभावी एवं ठोस नीति बनानी होगी। यहां पर ख्याल रखना भी आवश्यक होगा कि इससे राजनीतिक हस्तक्षेप के स्थान पर इस क्षेत्र के वास्तविक विशेषज्ञों की राय तथा कार्यों मंे सहयोग किया जाय। जैसा कि गुजरात में डा0 बर्गीज कुरियन ने किया। डा0 बर्गीज सा कोई चमत्कारी यहां न भी हो तो भी दुग्ध संघों में ऐसे लोगों की तलाश सरकार को करनी होगी जो वास्तव में इस कार्य हेतु आगे आना चाहते हैं। यहां एक समस्या और आ सकती है। अनियोजित विकास के चलते गांवों से अन्धाधुन्ध पलायन हुआ है...ऐसी स्थिति में पशु पालन, दुग्ध उत्पादन के लिये लोगों को कैसे प्रेरित किया जाये, इसके लिये गांव में रह रहे लोगों को पशुपालन के लिये ऋण, चारे-दाने अनुदान, विपणन हेतु समुचित व्यवस्था कर सही कीमत दिलानी होगी। इसके साथ ही डेरी व्यवसाय के लिये उचित प्रशिक्षण देकर युवाओं को इसके लिये प्रेरित करना होगा। इसके लिये सरकार को उनको हर तरह की सहायता सुलभ करना। यह इसलिये भी जरूरी है कि आज गांव से जिस कदर पलायन हुआ है, जिस तरह गांव के गांव खाली हो रहे हैं, उसका एक ही उपाय है कि इन खाली पड़े खेतों को पशु चारागाहों के रूप में विकसित किया जाये...क्योंकि डेरी उद्याोग ही इसका विकल्प है। इस सबके परिणाम तभी सामने आयेंगे जब सरकार कर कोशिशें ईमानदार हों, दुग्ध संघों में रानीतिक हस्तक्षेप बन्द कर उनकी कठनाईयों का निराकरण यथा समय किया जाये तथा कृषि, पशुपालन एवं डेरी उद्याोग को एक सूत्र में पिरोया जाये।