उत्तराखंड की विनाशलीला :एक संस्मरण


बंधुओं! सन २०१३ में आई उत्तराखण्ड में आई उस  विनाशलीला को कुछ लोग प्रकृति के साथ मानव की छेड़छाड़ व पर्यावरण का अतिक्रमण जैसी रटी रटाई बात कहकर इसके मूल कारण से ध्यान भटका रहे हैं। ग्लोबलाइजेशन, वार्मिंग व क्लाइमेट चेंज जैसे शब्दों से अब आम आदमी भी अच्छी तरह से अवगत हो गया है। परन्तु हर बात में विज्ञान की सार्थकता जतलाने वालों को मालूम होना चाहिए कि आधुनिक विज्ञान हमारे लोक विज्ञान, लोक-धारणाओं व आस्थाओं के सामने हर जगह नहीं टिकता है। भूकंप आता है और उसके वैज्ञानिक कारण होते हैं, हम सब इसे मानते हैं। इसी प्रकार नदियों में बाढ आना, बादल फटना, बांधों का टूटना जैसी कई आपदाएं हैं, जिसके पीछे वैज्ञानिक, मानवीय या प्राकृतिक कारण हो सकते हैं। इसे सभी स्वीकार करते हैं। परन्तु एक साथ व एक ही समय चारों धामों में जल प्रलय का आना व पूरा उत्तराखण्ड का एक साथ तहस-नहस हो जाना, कोई मामूली बात नहीं है। इससे पहले कभी किसी एक गंगा पर या गंगा की सहायक नदियों, गाड, गधेरों या नयारों पर बांध टूटने से, चट्टान खिसकने से या किसी भी प्राकृतिक कारण से विपदा आती रही है। कहीं भूस्खलन, तो कहीं भूकंप, एक आम विपदा की बात सी हो गई थी। गत दो-तीन शतक के अंदर बिरह की बाढ़, सतपुली की बाढ़, भगीरथ में बाढ़, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ में भूकंप आदि कुछ ना कुछ लगा रहता था। ये विपदाएं किसी एक नदी या सीमित क्षेत्र तक ही प्रभावी होती थीं। पर इस बार ऐसा क्यों हुआ कि चारों धाम एक साथ प्रवाहित हुए। जो लोग इसे प्रकृति के साथ मानव की छेड़छाड़ व पर्यावरण का अतिक्रमण कह रहे हैं, उन्होंने या तो केदारघाटी देखी ही नहीं है या फिर ये केवल अपनी वैज्ञानिक बौद्धिकता को सिद्ध करना चाहते हैं। अब इन्हें कौन समझाए कि दुकानें व होटेल केदारधाम, रामबाड़ा या गौरीकुण्ड़ में हैं, परन्तु प्रलय तो केदारनाथ के ऊपर स्थित गांधीताल के भी ऊपर उस शिखर से प्रारंभ हुआ है, जहां आज तक कोई मानव जा भी नहीं पाया है। अब अगर केदारनाथ, रामवाड़ा व गौरी कुण्ड में धर्मशालाएं व होटेल नहीं होते तो क्या यह सैलाब नहीं आता। जो लोग इसे मानवीय गलती का परिणाम मान रहे हैं, उनको यह तो पता चल ही गया होगा कि इस दौरान अगर भगीरथी व भिलंगना के वेग को टिहरी बांध ने नहीं रोका होता तो पहाडों के साथ-साथ मैदानी क्षेत्रों में भी भयंकर प्रलय आ सकता था। बांधों ने तो उफनती नदियों के वेग को रोका है। हां बांध के कारण नुकसान अवश्य होते हैं, परन्तु इस महाप्रलय की वजह बांध भी नहीं है। इसी के साथ कई प्रकृति प्रेमी व पर्यावरण संरक्षक इसे प्रकृति के दोहन का कोपभाजन मान रहे हंै। उनका मानना है कि नदियों के किनारे बने घरों, होटलों, सड़कों आदि के कारण यह विपदा आई। यह बात सही है कि इस प्रलय में कई घर, दुकान व सड़कें नष्ट हो गए हैं। परन्तु माना ये घर, होटेल व सड़कें यदि नदी के किनारे नहीं होते तो क्या यह प्रलय नहीं आता। हां, सैलाब के कारण कई घर, दुकानें व धर्मशालाएं अवश्य बह गए। काफी जन-धन का नुकसान हुआ है, इससे बचा जा सकता था। परन्तु इन घरों, दुकानों व धर्मशालाओं के कारण सैलाब आया, यह सोचना ही हास्यास्पद बात है। अगर ऐसा है तो फिर पहाडों के वो गांव व घर क्यों धंसे जो कि गंगा से कई कई मील ऊँची चोटियों में बसे थे। हां, हम इससे पूर्णतः सहमत हैं कि प्रकृति के साथ अधिक छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। प्रकृति का संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। परन्तु हर बात में मानवीय गलतियां व प्रकृति से छेड़छाड़ कहकर हमें पल्लू भी नहीं झाड़ना चाहिए।
भू-गर्भ शाास्त्री इसे हिमालय का शैशवकाल या कच्चापन कह सकते हैं। परंतु हिमालय तो हिमाचल में भी है, कश्मीर में भी है और यही हिमालय भारत के पूवोंत्तर राज्यों में भी है। वहां ऐसी विपदाएं क्यों नहीं होती हैं? वहां तो बादल फटने का समाचार भी कम ही आता है। परन्तु क्या कारण है कि उत्तराखण्ड में बारिश पडते ही बादल फटना आम बात होती जा रही है। इसका उत्तर एक आम उत्तराखण्डी आसानी के साथ दे सकता है कि उत्तराखण्ड के देवी-देवता जितनी जल्दी मान जाते हैं, उतनी ही जल्दी रुष्ट भी हो जाते हैं। हजारों उदाहरण मिल जाएंगे, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि गंगा में आया यह महाप्रलय कुछ और नहीं बल्कि दैविक प्रकोप का ही एक संकेत भर है। आखिर क्या कारण है कि दिनांक 16 जून की शाम को 6 बजे धारी मां की मूर्ति को हटाते ही रात्रि 8 बजे प्रलय आ जाता है। वह भी केदारनाथ, बदरीनाथ, गंगोत्री व यमनोत्री, चारों धामों में एक साथ। यह आश्चर्य की बात है। चारों धामों व तीर्थयात्रियों की रक्षा करने वाली आज मां धारी रुष्ट हुई तो शिव ने अपनी एक जटा हिलाकर अपना रौद्ररूप दिखाकर हमें अवगत करा दिया है। समझने वाले समझ गए। अगर अब भी नहीं समझे तो यह वही केदार घाटी है, जिसने जल प्रलय के समय भी अपनी स्थिरता को बनाए रखा था और पुनः सृष्टि की रचना की रचनाकार बनी। धरती पर जल प्रलय के बाद राजा सत्यव्रत की नाव ने यहीं शरण ली थी और फिर यहीं से सृष्टि की पुनर्रचना हुई थी। पुराणों के अनुसार जब सृष्टि की रचना हुई थी तो ब्रहमा जी ने देवताओं के आग्रह पर इस भूमि को देवताओं के लिए सुरक्षित रख दिया था। प्राचीनकाल में यहाँ या तो देवता वास करते थे या फिर ऋषि मुनि तपस्या हेतु आते थे। आखिर क्या कारण है कि सृष्टि को बचाने वाली केदारघाटी ने आज अपना विकराल रूप धारण कर महाविनाश किया है।
उत्तराखण्ड देव भूमि है। हम बड़े गर्व के साथ यह बात कहते भी आए हैं। प्राचीनकाल में यहां लोग साधना के लिए आते थे। शांति के लिए आते थे। प्रभू के चरणों में शेष जीवन अर्पित करने हेतु आते थे। यहां ऋषि, मुनि व तपस्वी आते रहे। राम अपने भाईयों के साथ यहीं आए। युधिष्ठर भी अंत में अपने भाईयों के साथ यहीं आए। महाभारत के युद्ध में पस्त, विजेता एवं पराजित सिपाही भी इसी घाटी में आकर बसे। लेकिन उन्होंने इस क्षेत्र की पवित्रता को कभी भी व कहीं भी ठेस नहीं पहुंचाई। उन्होंने एक भी देवालय या पवित्र स्थल का दोहन नहीं किया। समस्त धरा पर यदि देवताओं के वास हेतु कोई स्थल है, तो वह उत्तराखण्ड हैं। परन्तु आज देवालय तोड़े जा रहे हैं। बांध निर्माण या नदीय रिसोर्ट बनाने हेतु मंदिर तक तोडे़ जा रहे हंैं। पहले तो हमने भौतिक सुख-सुविधाओं की खातिर गांवों में अपनी बूढी मां को रूलाया। अब हमारा दुस्साहस देखिए, हम धारी मां तक को रूलाने लगे हैं। हम भूल गए कि हमारा उत्तराखण्ड हमें आध्यात्मिक शांति देता है। यह भौतिक सुविधा प्रदान करने वाला राज्य नहीं है। जबकि वर्तमान में भगवान बद्री का धाम भी फाइव स्टार सुविधाओं से सुसज्जित होने लगा है। बेल पत्र द्वारा पूजे जाने वाले भोले बाबा के दर्शन हेतु लोग बड़ी शान के साथ हेलिकाप्टरों से आ रहे हैं। उत्तराखण्ड दैविक एवं अलौकिक शक्तियों से भरा सम्पन्न प्रदेश है। यहां अगर गाय दूध न दे तो हम उसे पशु चिकित्सक के पास ले जाने से पहले गोडमंत्र करते हैं, बच्चे बीमार होते हैं तो हम डाक्टर के पास जाने के साथ ही उसकी गणत करवाते हैं, राख की चुटकी लेकर मंत्र पढते हैं। जहां केवल मुट्ठी भर चावल का 'उचाणां' रखने से हम इंद्रदेव को वश में कर सकते हैं, जहां जागर जगाकर हम देवताओं व पितरों को भी बुला व नचा सकते हैं, वह उत्तराखण्ड, आज इतना बेवस क्यों हैं। उत्तराखण्ड में देवी देवता ही नहीं, कई अलौकिक शक्तियां भी विचरण करती हैं। पितृ, पूर्वज व अछरियों के डांडों से भरा है, देवभूमि उत्तराखण्ड। आखिर इस           धरा पर कोई तो ऐसा क्षेत्र सुरक्षित हो जहां देव व पितर शांति से विचरण कर सकें। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह सीमांत क्षेत्र भी हैं। अब इस क्षेत्र की सुरक्षा कितनी सजग है यह हमने इन पांच छह दिनों में देख लिया हैं। हम अपने खोए हुए यात्रियों को नहीं ढूंढ पा रहे हैं। कल अगर हमारे दुश्मन देश चीन ने इस क्षेत्र पर हमला कर दिया तो क्या होगा। यह तो तब है जबकि हम आज के युग को विज्ञान का युग कहते हैं। बड़े-बड़े उपग्रह, सेटेलाईट, कर लो दुनिया मुट्ठी में, सब धराशाही हो गए। आज विज्ञान धर्म के सम्मुख नतमस्तक हो गया है। अब करो तुलना धर्म की विज्ञान से। आज यह कहते ही विज्ञान शर्मसार हो जाता है।
पहाड़ों की धार्मिक पवित्रता को सुरक्षित बनाए रखना केवल पहाडों या हिंदुओं के ही हित की बात नहीं है, बल्कि यह समस्त भारत विशेषकर उत्तरी भारत की सुरक्षा के लिए भी आवश्यक है। उदाहरण के लिए यदि कभी टिहरी बांध टूटा या दो-तीन बांधों में दरार आ जाए तो उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे बड़े प्रदेशों का क्या हाल होगा, इसकी कल्पना करना भी दिल को झकझोरने वाली बात है। बाढ़, धर्मनिरपेक्षता की चादर लेकर नहीं आती है। वह तो समस्त मानव जगत, जीव-जंतुओं व प्रकृति के विनाश का कारण बनती है। हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विचार करना होगा कि जिस देवभूमि में सुबह का सूरज शंखों की गूंज व घंटियों की ध्वनि से उगता था वहाँ आज क्या हो रहा है, यह बात कहने की आवश्यकता नहीं है। सब, सब समझते हैं। बात धर्म की ही नहीं, धार्मिक पवित्रता की अधिक है। क्या आप मक्का मदीना में शंख-घंटी बजा सकते हैं या इटली के वेटिकन सिटी में ढोल, मजीरा बजाकर कीर्तन कर सकते हैं। यह करना तो दूर, आप यह सोच भी नहीं सकते हंै। मुसलमानों एवं ईसाइयों ने अपनी आस्था के मूल केन्द्रों को इस सम्पूर्ण धरा पर सुरक्षित रखा है। जबकि हिंदुओ की देवभूमि उत्तराखण्ड में आज क्या हो रहा है, यह कहने की अब अधिक आवश्यकता नहीं है। उत्तराखण्ड के मामले में झूठे अहंकार, महामानवतावादी व उदारवादी का ढोंग ना रचें, बल्कि इस सच्चाई को स्वीकार करें कि इस धरती पर भारतभूमि का उत्तराखण्ड देवभूमि है एवं इस भूमि की पवित्रता बनाए रखना हमारा कर्तव्य है। हमारे राजा-महाराजा भी सदियों से इस देवभूमि की पवित्रता व लोक-संस्कृति का सम्मान करते आए हैं तो वर्तमान की लोकतांत्रिक सरकारें भी समाज की व समाज के लिए ही होती हैं। हमारे उत्तराखण्ड को भारत में इसे ठीक उसी तरह से सुरक्षित व विशेष अधिकार सम्पन्न वाला क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए, जैसे कि सउदी में मक्का को व इटली में वेटिकन सिटी को किया गया है। 
उत्तराखण्ड में दिनांक 16-17 जून को आई भारी तबाही व दैविक प्रकोप को देखते हुए समय आ गया है कि इस प्रदेश को भारतीय संविधान के अंतर्गत विश्ेाष अधिकार सम्पन्न धार्मिक राज्य घोषित किया जाना चाहिए। तभी इस क्षेत्र की पवित्रता व राष्ट्र की पहचान बची रह पाएगी तथा हम दैविक प्रकोपों से बच सकेंगे।