उत्तराखण्ड किधर?


(यह लेख उतराखण्ड राज्य के स्थापना: वर्षों के आसपास लिखा गया था... परन्तु लेख के सर्वकालीन तत्वों को देखते हुए डाॅ मठपाल द्वारा उठाये प्रश्न अभी भी प्रासंगिक लगते हैं.... (सम्पादक)
प्रजातंत्र के गणित की बलिहारी, जहां 51 प्रतिशत माने शत-प्रतिशत और 49 प्रतिशत माने शून्य। प्रजातन्त्र के चयन की भी बलिहारी। बिना प्रमाणपत्र 6 माह तक शासन कर लो फिर जनादेश मांगो। ग्राम प्रधान के लिए भी  स्थानीय नागरिकता आवश्यक है। विधायक के लिए नहीं। चुने प्रतिनिधि को प्रलोभित कर, उपचुनाव के भारी खर्चे से कहीं से भी जनप्रतिनिधि बन सकते हो। न आयु सीमा न शैक्षिक योग्यता और न ही चरित्रा प्रमाण पत्रा। नीतिगत विरोध में चुनाव लड़ो सत्ता हेतु शासक दल में वूफद पड़ो। जिसके पास सत्ता है वहीं समर्पण कर दो। भारतीय प्रजातंत्रा की ये सारी विशेषताएं दो वर्ष के उत्तराखण्ड राज्य में साकार हो गई है। इस राज्य का दुर्भाग्य है कि जो अन्त तक राज्य निर्माण विरोधी थे और उत्तराखण्ड की अस्मिता को लूटने वालों को बचाने वाले थे उन्हीं के हाथों में सत्ता आ गई। यदि मैं तानाशाह होता, सत्ता उनको सौंपता जिन्होंने राज्य निर्माण संघर्ष में सर्वस्व खोया। मुख्यमंत्राी बनाता तो गढ़वाल के सुदूर आंचल की किसी गौरा को जिसने रामपुर तिराहे की त्रासदी झेली थी। यदि यह सम्भव न होता तो हिमाचल के परमार की भांति किसी पहाड़ी कृषक को सत्ता देता, जो इसको हरा-भरा बनाने का सपना देखता। समृ( सम्पन्न भावी उत्तराखण्ड हेतु कई सुझाव दिए जा सकते हैं, पर इनकी सार्थकता तभी सम्भव है जब वर्तमान शासन प्रशासन को इन्हें लागू करने हेतु बाध्य भी किया जाए। 
वुफछ वर्ष पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष ने खटीमा की एक सभा में उत्तराखण्ड के सर्व प्रमुख भावी कार्यों का खुलासा किया कि हर दो सौ की आबादी पर एक मदरसा खुलेगा, हज कमेटी बनेगी, उर्दू अकादमी, वक्पफ बोर्ड अल्पसंख्यक आयोग, उर्दू-पफारसी बोर्ड और अल्पसंख्यकों हेतु अलग वित्त निगम यथाशीघ्र बनाया जाएगा। क्या देवभूमि की समृ(ि की आधारशिलाएं ऐसे ही कार्य बनेंगे, हर उत्तराखण्डी को सोचना होगा। इसके बाद भी इस सठियाए पहाड़ी की बात सुनना ही चाहते हैं तो सुनिएµ
स वर्तमान सत्ता के चलते सबसे पहला कत्र्तव्य है कि हमारे चारों धामों, पंचकेदार और पंच प्रयागों तथा अन्य मन्दिर समूहों की यथेष्ठ सुरक्षा व्यवस्था हो। जेहादी इन्हें कभी भी निशाना बना सकते हैं।
स गंगोत्राी और बद्रीनाथ में मन्दिर परिसर तक राजमार्ग बन जाने से उनकी पवित्राता, परिस्थितीय सन्तुलन और पर्यावरणीय शुचिता पर पर्याप्त आंच आई है। अतः केदारजी और यमुनोत्राी तक राजमार्ग बनाने की कोई योजना न बने। एक निश्चित स्थान के बाद पदयात्रा अनिवार्य है। इससे प्राचीन चट्टीवाली अर्थव्यवस्था पुनः पनपेगी।
स देहली और अन्य महानगरों से ठेके पर पर्यटकों को डीलक्स बसों में एक सप्ताह में उत्तराखण्ड की उड़ती सैर कराने वाली व्यवस्था पर अंकुश लगे। इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था चैपट हो रही है।
स किसी भी तीर्थस्थल या सौन्दर्यस्थल पर आने वाले आगंतुकों की पोषाक, खानपान और व्यवहार हेतु कुछ मानकों का निर्धारण हो। पश्चिम की नग्नता से हमारी संस्कृति प्रदूषित हो रही है।
स जो ताल अभी प्रदूषित नहीं हुए हैं, उन तक पर्यटकों की भीड़ आकर्षित करने से पूर्व वहां प्रदूषण रोकने के अविलंब कदम उठाए जाएं।
स उच्च हिमालय में आरोही और हिमनदों में सामान्य पर्यटक जिस प्रकार कचरा छोड़ रहे हैं और कैंपपफायर आदि में वन सम्पदा का खुला विनाश कर रहे हैं, उसको रोकने का प्रयास हो।
स हर दर्शनीय गुपफा या पर्यटक स्थल पर कुछ टिकट हो जिससे उसकी देख-रेख व सापफ हो सके। यूरोप में 100 रुपये से 240 रुपये तक गुपफाओं में शुल्क है। पुराने गिरिजाघरों में भी टिकट है। यहां तक कि लघु शंका हेतु भी 70-80 रुपये देना पड़ता है। यहां एक रुपये से 10 रुपये तक शुल्क रखा जा सकता है। विदेशियों से पांच गुना तक शुल्क वसूला जा सकता है। सार्वजनिक गन्दगी वालों पर अर्थदण्ड का प्रावधान हो।
स पुरातत्व विभाग ने धार्मिक स्थलों से मूर्तियां या तो उठाकर संग्रहालयों में भेज दी है या पिफर वहीं गोदामों में पटक दी है सभी मूर्ति सम्पदा केन्द्रों पर क्षेत्राीय संग्रहालयों बनाकर उनका प्रभारी इतिहास, कला पुरातत्व में दीक्षित उत्तराखण्डी युवकों को बनाया जाए ताकि शिक्षित बेरोजगारी की समस्या कुछ हद तक सुलझें।
 हर जनपद की एक निर्देशिका तैयार की जाए, जिसमें उस क्षेत्रा की भौगोलिक, ऐतिहासिक, पुरातात्विक व पर्यटन सम्बन्धी सारी प्रमाणिक जानकारी हो। इसकी छपाई का खर्च होटलों के विज्ञापनों से ही निकल सकता है। यहां का पर्यटन विभाग इसे आगंतुकों को 15-20 रुपये में बेच सकता है।
स संस्कृति विभाग हमारी प्राचीन मूर्तियों की प्लास्टर प्रतिकृतियां विभिन्न पोषाकधारी नर-नारियों की लघु मूर्तियां ;खिलौने या गुड़ियाद्ध, मुखौटों, डिकरों व लोक देव-देवियों के पेपरमैसी के शोपीस तथा कितना अन्य साज समान बनवाकर पर्यटकों हेतु उपलब्ध कर अर्थोपार्जन कर सकता है।
स हर नए बनने वाले होटल, सरकारी या सहकारी भवन, अस्पताल बैंक, विकास खण्ड व विद्यालय भवनों में उत्तराखण्डी काष्ठ शिल्प को प्रतिनिधित्व दिया जाए। काष्ठ शिल्प प्रतिमानों को टाइल के रूप में और साज-सज्जा की आसानी से ले जाई जा सकने वाली सामग्री के रूप में बनवा कर अर्थोपार्जन किया जा सकता है।
स मुलायम सिंह को जमाने में एक सुनियोजित योजना के तहत हजारों अध्यापकों, बस कंडक्टरांे व अन्य कर्मचारियांे को उत्तराखण्ड भेजा गया। इनमें कई अध्यापक आपराधिक पृष्ठभूमि वाले थे। यथाशीघ्र ऐसे लोगों का स्थानान्तरण कराया जाए ताकि यहां के प्रशिक्षित अध्यापकों को स्थान मिल सके।
स पूर्व सैनिकों की योग्यता, बल और अनुभव का कोई उपयोग नहीं दिया जा रहा है, क्यों न निर्माण कार्यों के ठेके इनको दिए जाएं?
स एक सौ वर्ष पूर्व तक हमारे गांव अनाज, साग-सब्जी, पफल-पूफल और दही-दूध में कहीं अधिक सम्पन्न थे। कितने प्रकार के धान्य तिहलनें, राजमा व अन्य दालें यहां पैदा होती थी। इस कृषि व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। आज हमारी रही सही उपज मिट्टी के भाव जाती है। सीजन पर आलू एक रुपये किलो बिकता है, जबकि पर्यटक हमारे सामने ही 350 रुपये किलो का बम्बई में बना अंकल चिप्स खाता है। मुझे प्रतिवर्ष अपने बगीचे की नाशपातियां 10 रुपया कट्टा बेचनी पड़ती है जबकि 24 किúमीú दूर हल्द्वानी में 10-12 रुपये किलो बिकती है। 24 गुना मुनापफा बिचैलिया खा जाता है।
स पिछले दशक में बाहर के कई व्यवसायी पहाड़ में होटल व्यवसाय से मालामाल हो गए हैं, जबकि स्थानीय लोगों को इनमें चैकीदारी भी नहीं मिलती। कार्बेट पार्क के पास ढिकुली आदि स्थानों पर गरीब पहाड़ी लोगों की परित्यक्य टूटी झोपड़ियां जब व्यवसायियों के हाथ पड़ी तो उन्हीं झोपड़ियों को कुछ सुधार तक 4000 रुपये प्रति रात प्रति झोपड़ी का कमाने लगे। समीपवर्ती महरागांव के जिन बंजर खेतों में 100 रुपये सालाना आमदनी होती थी, महाराष्ट्र के एक उद्यमी ने 'कंट्री इन' खोलकर लाखों कमाना शुरू कर दिया। हम आपसी रागद्वेष वश गरीबी में पड़े रहते हैं, जबकि वा“यागत इसी भूमि से धनकुबेर बन जाते हैं। हमें इस व्यावहारिक अर्थशास्त्रा की भी आवश्यकता है।
स यहां प्राकृतिक संसाधनों की कमी नहीं है। जल विद्युत से ही कितना कमाया जा सकता है। जो भी उद्योग धन्धे या कृषि बागवानी विकसित की जाए वह स्थानीय माल पर आधारित हो। यहीं उसका प्रसंस्करण भी हो। वृक्षों, बांस, रिंगाल और औषधीय वनस्पति का क्षेत्रा विस्तार किया जाए। इन पर आधारित कुटीर उद्योगों को स्थापित करना होगा। यतुर्वेद, प्रबन्ध कोष शुक्रनीतिसार, ललितविस्तार और कामसूत्रा में वर्णित सभी कला शिल्प प्राचीन उत्तराखण्ड में प्रचलित थे। डबलरोटी, बिस्कुट साबुन से लेकर नित्य उपयोगी हर चीज का निर्माण उत्तराखण्ड में करने की सोचें तो हमारे आर्थिक ड्डोत विस्तृत हो जाएंगे और रोजगार के अवसर स्वतः बढ़ जायेंगे।
स उत्तराखण्ड में प्रतिभा व साहस की कमी नहीं है। यहां की विद्वत् परम्परा, आयुर्वेद परम्परा, ज्योतिष परम्परा और आध्यात्मिक परम्परा को पुनर्जीवित कर इसे सही अर्थो में देवभूमि बनाया जा सकता है। यहां की सहज भाषा देवभाषा है अतः संस्कृत को अनिवार्य बनाया जाए। यहां से वैदिक विद्वान और ज्ञानी पुरोहित देश देशान्तरो में जाकर यश और लक्ष्मी प्राप्त करेंगे। महाराष्ट्र से विदुषी महिला पुरोहित पश्चिमी देशों में आप्रवासी भारतीय के कर्मकाण्ड सम्पन्न कर रही है।
स उत्तराखण्ड आज अवैध लोगों का मुक्त चारागाह बनता जा रहा है। कहीं कोई तलाशी पूछताछ नहीं होती, कितनी मूर्तियां, छत्रा और घंटे मन्दिरों से गायब हो चुके हैं। सारी प्राचीन सम्पदा घर-घर से दलालों द्वारा उठाकर बेची जा रही है। अल्मोड़ा से ही कीमती धातुओं के प्राचीन बर्तनों का एक ट्रक प्रति माह देहली पहुंच रहा है ऐसी सूचना मिली है। यह सब कब तक चलेगा राम जाने।
ऐसी लगता है कि अभी सुविचारित विकास का ऐसा कोई खाका यहां नहीं बना है। सभी दल सत्ता की होड़ में लगे हैं और प्रशासक अपना-अपना घड़ा भर रहे हैं। हमारे एक ओर सुविकसित हिमाचल प्रदेश और दूसरी ओर खस्ताहाल नेपाल, हमें क्या बनना है यह हमारे विवेक पर निर्भर है। जय उत्तराखण्ड, जय भारत!!