उत्तराखण्ड विनाश की ओर

 



मैंने उसे तड़पफते देखा था, तिल-तिल करके मरते देखा था, अभागिन....निरभाग....गायों के लिए घास के लिये गयी थी, उसे अपने छः महीने के बेटे के जागने से पूर्व गोधूलि समय पर घर लौटना था, ताकि वो टुकर-टुकर....गोशाला की राह न देखता रहे, अभी-अभी तो उसने बच्चे को सुलाया था, भगवान दैणा नहीं हुआ...खड़ीक के पेड़ से 'धम्म' गिर गयी...दूर कही कंटीली झाडियों में, शाम घिर आयी थी, अकेली, ऊपर से औगड़ सास की डर....इसी उधेड़बुन में कमजोर टांगें उसका भार थाम न सकी और...। दबी आवाज में कहा जा रहा है, 'गुम चोट लगी है।' सास बिचारी.... को घास मयस्सर नहीं हुई....अलग ही नाक चढ़ाकर बैठ गयी, उसे बहू की चिन्ता क्योंकर हो? मैंने पूछा- चाची कैसे हो गया?...'पता नी बेटा....जब काम कनतै राजी नी त इनि होण तब' मैं दंग रह गया, आग्नेय नेत्रांे से उस 'सपेफद मुण्ड' वाली चुडै़ल को देखने लगा...काली...का विकराल रूप....बुडली....। छः महीने का छोटू कहीं एक कोने में बैठा दहाड़े मारकर रो रहा था। बहू को चारपाई पर लिटाया जा रहा था, अब 4 किमी चढ़ाई चढ़कर कच्ची सड़क आयेगी...पिफर जीप/बस का अस“य इंतजार....तब कहीं जाकर 'डाॅक्टर साब' देखंेगे, बहू की चीखें सुनकर नजदीक गाँव की घसेरों ने बहू को उसके घर तक पहुँचाया था।
4 किमीú की अस“य चढ़ाई के बाद कच्ची सड़क के दर्शन हुए, बहू की कराहटें....चीखांे में परिष्कृत हो गयी...चीखें चढ़ती गयी चढ़ती गयी और अचानक एक हिचकी के साथ थम गयी....नब्ज टटोली...नब्ज गायब....।
भाई जी....रूको...रूको....ये कोई कहानी नहीं है, नाटक-कदापि नहीं...पिफल्मी सीन तो हो ही नहीं सकता, बल्कि गढ़वाल के कतिपय इलाकों के जनजीवन का आईना है, इधर इलाज उचित समय पर न होने के कारण छः महीने का छोटू मातृत्व सुख से विहीन हो गया, नजदीक अस्पताल होता तो वो जरूर बच जाती...। मैं सोच रहा था।
गढ़वाल के कई इलाकों में ऐसी घटना आम है। देहरादून में, रींगने वाली कुर्सी पर बैठे 'धन्ना सेठ' सपेफदपोशों का इनसे कोई सरोकार ही नहीं है। जनवरी 2007 में उत्तरांचल का विलय, उत्तराखण्ड में हो गया, तमाम पेण्टरों को, रबड़ की मुहर बनाने वालों को, प्रिंटिग प्रेस वालों को बहुत-बहुत बधाई। हमें क्या मिला? आम जनता का दुःख दर्द, अर्थोपार्जन के कम होते साधन और मूलभूत सुविधाओं से कोसों दूर होते ग्रामीण क्षेत्रों को स्थिति जस की तस बनी हुई है और हम राजधानी और आंचल/खण्ड के त्रिभुज में कैद कई करोड़ रुपयों को बीड़ी की तरह पूँफक चुके हैं। खास बात ये है, कि यदि इस गन्दी राजनीति से दूर इन रुपयांे का सदुपयोग करते तो सरकार का ये सुधारात्मक रवैया होता।
2 अक्टूबर, 1994 इतिहास का एक ऐसा क्रूरतम दिन जिसकी तुलना अंग्रेजी हुकूमत के समय कें 'जलियांवाला बाग' हत्याकाण्ड ;1919द्ध से भी हम नहीं कर सकते। तत्कालीन ;उúप्रúद्ध मुख्यमंत्राी मुलायम सिंह तथा पुलिस सांठगांठ की बदौलत मुजफ्रपफरनगर के रामपुर तिराहे पर जो गोलीकाण्ड हुआ, महिलाओं को निर्वस्त्रा करके खेतों में ले जाकर बलात्कार किया गया, उसकी बदौलत हमें उत्तराखण्ड राज्य प्राप्त हुआ...। एक शीर्ष नेता ने यह तक कहा कि उत्तराखण्ड हमारी लाश पर बनेगा, उसी राजनेता ने उत्तराखण्ड की बागडोर थामी। ताज्जुब ये कि अभी तक उनकी लाश भी नहीं हुई। युगपुरुष! आप के अभी तक जीवित रहने की बधाई। ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, जिसके कथनी और करनी में अन्तर न हो वो नेता कैसा? जहाँ...गुलाब जामुन देखा लार टपकाने उधर ही बढ़ जाते हैं, ये अलग बात है कि कई बार उन्होंने....गुलाब जामुन बनाने वाले 'स्टोव' की आँच कम करने की कोशिश की। राज्य की धौंण में चढ़कर वे गगनगोल ;सेहतयुक्तद्ध और चैकस होते जा रहे हैं। जनता तो धूल है, माथे पर लगाने से कोई पफायदा भी तो नहीं है।
उत्तराखण्ड जहाँ एक ओर परिसीमन, मूल निवास प्रक्रम, बेरोजगारी, मूलभूत असुविधायें एवं अन्य महत्वपूर्ण ;पिछले कई वर्षों सेद्ध मुद्दों से लड़ने का बिगुल बजाकर पाँव वापस खींचकर अपनी पीठ दिखा चुका है, वहीं दूसरी ओर राज्य की प्राचीन दो पार्टियाँ भाजपा और कांग्रेस अपने ही अस्तित्व बचाने में जद्दोजहद करती नजर आती हैं, मुद्दे जो अस्तित्व मंे आने से पहले थे, वही अब भी हैं, कोई अन्तर नहीं ;जमीनी स्तर परद्ध।
जल, जंगल और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद भी हमारा विकास स्तर लगातार गिरता जा रहा है, ये महत्वपूर्ण प्रश्न मंुह बायें अभी भी अडिग हंै, क्योंकि जल से उत्पादित ऊर्जा लोगों का घर उजाड़कर उúप्रú/दिल्ली भाग गयी है, हम सरकार द्वारा प्रदत्त कोठियों में भांगड़ा कर रहे हैं निपट अंधेरे में, 'जंगल' में पेड़ों के कटान का इस तरह ग्रापफ बढ़ रहा है कि लगता है, वे सभी जंगलों में सीमेण्ट पोतकर 'सीमेण्ट जंगल' बना देंगे, 'जमीन' पर भू मापिफयाओं का जबरन कब्जा, बड़े अधिकारियों/मंत्रियों से इनकी सांठगांठ का कारण अंगद का पैर हो गया, आलम है, कि हम अपनी जमीन को गर्व से अपनी भी नहीं कह पाते हैं और सै(ान्तिक तौर पर, 'कश्मीर' की तरह ये मुद्दा ही मंत्रियों के लिये 'संजीवनी' का काम कर रही है।
महिलाओं की ओर ध्यान दें, तो आज इस राज्य में ऐसा कोई दिन नहीं, कि जिस दिन किसी महिला की चीख, किसी जंगल, सुनसान रास्ता, या बड़ी-बड़ी कोठियों के बंद दरवाजे के पीछे से न आती हो, उसके पास अस्मिता से बढ़कर कोई चीज ही नहीं होती है, जो आये दिन लुटती ही जा रही है, कहाँ सुरक्षित हैं महिलायें? और आप उन्हें 30» आरक्षण देेकर इस बेहतरीन प्रश्न से अपना पल्ला झाड़ रहे हैं। 'निठारी' यहाँ हर शहर बन रहा है, वो अलग बात है, कि अपराधियों और पुलिस की सांठगांठ अभी प्रकाश में नहीं आयी है।
देहरादून से दूर ;तिवाड़ी जी ध्यान आकृष्ट करें!द्ध हमारे माननीय मुख्यमंत्राी जी ने कभी भी रूख किया ही नहीं, अगर उन्हें यथार्थता का अनुभव होता, तो देहराूदन से भी दूर भाग जाते, उन्हें अपनी सेहत की चिन्ता है, इसलिए वो तुम्हारे वोकटयूं ;भेड़द्ध के गाँव नहीं आते, उनका कोट कुर्ता/पायजामा की क्रीज खराब हो जाती है। 'टिहरी आगमन'- एक अपवाद है। डूबते टिहरी को देखकर गढ़वाल घूमने की सारी कमियों  को 'स्यूं जोर' पूरा कर दिया। यदि दो दिन के लिए उन्हें कहीं ग्वाड़ दें, तो वो देखते कि कण्डी ;घास/लकड़ी के लिये बना रिंगाल काज्ञद्ध में कैसे महिलाएँ 4/5 किमीú चढ़ाई चढ़कर सिलेण्डर बोकते हैं? कैसे दूर जंगल जाकर घास/लकड़ियों के लिये अथक परिश्रम करते हैं? कैसे 'गर्भवती स्त्राी' की 'स्त्राी  विशेषज्ञ डाॅक्टर' न होने के कारण अस“य दर्दनाक चीखें कार/जीप से आ रही हैं? और कैसे अपने बच्चों को पीठ पर बाँधकर तपती दुपहर में खेतों में अपने शरीर का दोहन कर रही हैं? मगर उन्हें क्या पड़ी है...उन्हें तो रींगने वाली कुर्सी को छोड़कर घूमना कितना अखरता है, पूछो जरा उनसे? और सरकार नित नये-नये सपनों को दिखाकर जनता को किस तरह बरगला रही है, बोट ;बैंकद्ध लूट लें, ग्रामीण जनता भाड़ में जायें। ये राज्य केवल पंूजीपतियों का है, मंत्रियों का....हम तो...केवल जनता है। बल्कि ;कर्मामारा जनसंख्या है, उनके बच्चे सभ्य बच्चे/इंजीनियर/डाॅक्टर और हमारे बच्चे जनसंख्या..वो कभी कोट की तरह....।
बीमारी की जद्दोजहद में अनेक व्यक्ति ;ग्रामीण तबके केद्ध अस्पताल दूर होने के कारण जीवन का परित्याग कर चुके हैं। कतिपय गाँव तो अभी भी विकास की किरण से अछूते हैं। दुनिया कहाँ पहुँच गयी है, और उनके रहन-सहन का ढंग आदिवासियों सरीखा है, मनोरंजन के लिए महज एक टूटे रेडियो पर आश्रित हंै। जिसके सेल...लाने के लिए उन्हें कापफी दूर जाना पड़ता है और आप कहते हो कि प्रत्येक गाँव को सड़क से जोड़ा जायेगा....विडम्बना ये है कि....अपने वायदे ..अमल में कब लाओगे? इन गाँवों में जीवन जिया नहीं जाता, बल्कि ये घिसट-घिसटकर मजबूरी में जी रहे हैं।
अभी भी गोबर डालती महिलायें/लड़कियों का कल, आज और कल केवल खेत/गायों तक ही सीमित रह गया है, उच्च शिक्षा प्राप्त करना सपना ही रह गया है, क्योंकि स्कूल/काॅलेज गाँव से कोसों दूर हैं, शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं है, इनको सरकारी नीतियों से कोई सरोकार नहीं है, उन्हें तो अपने बच्चों के लिए/बेचने के लिए 'दूध' और 'क्षुधा पिपासा' शान्त करने हेतु 'खाद्यान्न' का जुगाड़ करना अहम् रह गया है और देहरादून में पले-बढ़े हमारे 'भै-बन्द' कह रहे हैं....'पलायन' क्यों हो रहा है? ....कोई उनको भी समझाओ यार!
नये विधान सभा चुनाव की तैयारियाँ पूरे शबाब पर थीं। चुनाव लड़ रहे सभी प्रत्याशियों की नजर 'लाल बत्ती' पर टिकी हंै। सभी पार्टियाँ 'गरीबो का रहनुमा' कहकर वोट जुटाने में लगी थीं। पिफर वही शोर-शराबा....वही वायदे....कई अटकले.कई कयास..गन्दी राजनीति....देहरादून ऐशगाह-आराम तलब जिन्दगी...सर्र{{...सर्र{{ रींगती कुर्सी...और हमें क्या मिला? बेरोजगारों के हक-हुकूक की लड़ाई..वही जंगल...वही काॅडे-मूण्डे वही निरभाग बहू....वही खंड़ीक का पेड़...सब्बा खैर.....