वाग्देवी का आशीष है वसंत


माघ के माह शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि वसन्त पंचमी के रूप में मनाई जाती है। यह हेमन्त की जड़ता पर वसन्त की आहट है। यह वसन्त का प्रवेश द्वार है, खोली है। भारतीय जन मानस उत्सव धर्मी रहा है। वसन्त पचंमी की यह बेला हेमन्त से बसन्त की सन्धि कराने वाली  है। वसन्त नींद के बाद जागकर तरोताजा होने जैसा है। शीत ऋतु में प्रकृति जड़ हो जाती है, ठहर सी जाती है। यह प्रसवधर्मी वसुधा का प्रसव काल जैसा है।वसन्त की कोंपल किसलय नवागत नवजात शिशु की आह्लादमयी किलकारी है। लोक संस्कृति में वसन्त पंचमी धरती के पूजन का पर्व है। इस समय जौ और गेंहू के छोटे-छोटे पौधे खेतों में उग आते हैं। किसान खेत में जाकर पत्र -पुष्प, धूप दीप, गन्धाक्षत से धरती की पूजा करते हैं। ओडे (दो किसानों की जमीन के बीच उनके स्वामित्व की सीमा को प्रदर्शित करने वाला जमीन में रोपा गया पत्थर) पर पिंठाईं लगाई जाती है। गढ़वाली में एक कहावत है-'ओडा तक लवोणु अर बांठा तक खाणु' अर्थात ओडे तक ही अपने हिस्से की फसल काटी जाती है और जितना इन्सान का दाना पानी होता है, उतने तक ही वह जीवित रहता है। ओडा खिसकाने को महापाप समझा जाता है। यह पहाड़ की कृषि के स्वामित्व को लेकर हाने वाले विवादों को नियन्त्रित करने का एक  धर्म प्रेरित विचार है। वसन्त पंचमी के दिन जौ के पौधे घरों के प्रवेश द्वारों पर रोपे जाते हैं। ''आइ पंचमी मौउ की, बाॅंटी हर्याळि जौउ की'' कृषक धरती का सच्चा पुत्र है। ''जय जवान-जय किसान'' का नारा देकर शास्त्रीजी ने किसान के महत्व को रेखांकित किया है और उसकी देशभक्ति को गरिमा प्रदान की है। वसन्त पंचमी से मौसम में बदलाव आने लगता है। वसन्त के आसन्न आगमन से शीत की जकड़न शिथिल होने लगती है। भगवान सूर्य उत्तरायण में प्रवेश कर चुके हैं। उत्तरायण देवताओं का दिन और दक्षिणायन देवताओं की रात्री मानी जाती है। देवताओं का एक अहोरात्र हमारा एक वर्ष होता है। इस प्रकार उत्तरायण में वसन्त ऋतु देवताओं का प्रभात है। पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने पर दिन रात होते हैं तथा सूर्य के चारों ओर घूमने से ऋतु परिवर्तन होते है। ऋतुओं का प्रक्रम 'चक्रारपंक्तिरिव' चलता रहता है। वेद के एक मन्त्र में वसन्त का उल्लेख इस प्रकार आया है-
'वसन्तोऽस्यासीदाज्ज्यंगग्रीष्मऽइध्मःशरद्धविः' 
उस विराट पुरूष के यजन में वसन्त घृत, ग्रीष्म समिधा और शरद हवि बनी थी। वसन्त पंचमी भगवती सरस्वती के प्रकटीकरण पर्व के रूप में भी मनाई जातीहै। माता सरस्वती ष्वेत वस्त्रावृता हैं। 'माघी डांडी अर भादी गाऽड (छोटी नदी) यह कहावत लोक में प्रचलित है। माघ में हिमधवल पर्वत श्रेणियां सूर्य की स्वर्ण रश्मियों से अलंकृत हो अद्भुत रूप छवि से सुसज्जित दृष्टिगोचर होती है। 'या कुन्देन्दु तुषार हार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता' प्रकृति सरसवती हो उठी है। वह सरस और रसवती हो गई है। ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की। बहुत प्रकार के प्राणी स्थावर, जंगम, जलचर, थलचर और नभचर बनाए, विभिन्न वनस्पतियाॅं बनाई। फिर सृष्टि में सबसे बुद्धिमान प्राणी मानव की रचना की। उन्हंे अपनी रचना पर सन्तोष था। परन्तु जब उन्होंने मनुष्य को इस चित्र-विचित्र सृष्टि में भी नीरस, बेमन और उदास देखा तो देवी सरस्वती से  इसका कारण पूछा-हे देवी ! इतनी सुन्दर सृष्टि को देखकर भी मानव आनन्दित क्यों नहीं है? देवी सरस्वती ने उत्तर दिया हे प्रभो! सब कुछ होते हुए भी मनुष्य में सौन्दर्यबोध का अभाव है। परन्तु आप चिन्ता न करें इस अभाव की पूर्ती मैं कर दूंगी। देवी ने अपनी वीणा को झंकृत कर मनुष्य को वाणी का वरदान दिया। उसे ज्ञान, सौन्दर्य, कला और सुरूचि का बोध प्रदान किया। मनुष्य अपने चारों ओर की सृष्टि को देखकर आनन्द से भर उठा। उसे नदियों के कल-कल में, पक्षियों के कलरव में, भौंरों के गुंजन में दिव्य संगीत की अनुगूंज सुनाई देने लगी। उसके कण्ठ से मधुर स्वर फूट पड़े। वाणी की अधिष्ठात्री के वरदान, सुधामयी वाणी से उसने अपने रचयिता की प्रार्थना की। सृष्टि की सौैन्दर्यपूर्ण रूप छवि का माधुर्यपूर्ण वर्णन किया। देवी सरस्वती के श्वेत वस्त्र स्वच्छता के प्रतीक हैं, वीणा-संगीत, पुस्तक-ज्ञान, श्वेत कमल का आसन-
कीचड़ के मध्य भी निर्लिप्त और निर्मल रहने की शिक्षा देता है। स्फटिक की माला-चिन्तन मनन का प्रतीक और उनकी अभय मुद्रा साधक को सिद्धि का सुफल देने वाली है। हम सरस्वती के उपासकों के लिए बसन्त पंचमी कृतज्ञ वन्दना का पर्व है। मां सरस्वती ने हमें काव्य कला, सौन्दर्य एवं संगीतादि का वरदान प्रदान कर उपकृत किया है। हमारा कर्तव्य है कि हम सारस्वत उपलब्धियों को प्राप्त कर
लक्ष्मी के वाहन (उल्लू) न बनें। अनुचित साधनों से धन कमाने की प्रवृति हमेशा पतन करती है। कहा भी गया है-
अकृत्वा परसन्तापमगत्वा खल मन्दिरम्।
अनुल्लंघ्य सतां मार्गम्  स्वल्पमपि तद्बहुः।।
हम सभी मानव एक ही ईश्वर की सन्ताने हैं। सभी जीव जन्तुओं सहित अपनी सम्पूर्ण उपादानों के साथ यह प्रकृति हमें अपने आॅंचल में आश्रय देती है। हम सम्यक चिन्तन करें तो अनुभव कर पाएंगे कि नेत्रहीनों के लिए प्रकृति का मनोमुग्धकारी सौन्दर्य अलभ्य है। बहरे के लिए श्रुतिमधुर संगीत व्यर्थ है। जिसकी घ्राण शक्ति नष्ट हो गई है उसके लिए चन्दन चमेली आदि की मोहक सुगन्ध निष्प्रयोज्य है। जिसकी स्वाद कलिकाएं नष्ट हो गई हों उसके लिए सुस्वादु पदार्थों के स्वाद का कोई अर्थ नहीं है। जिसका शरीर अचेत हो गया हो उसको हरित, श्यामल सुकोमल दूर्वा  के स्पर्श का क्या बोध हो सकेगा? स्वस्थ शरीर के साथ ज्ञान और सौन्दर्य बोध की क्षमता, परमात्मा का सर्वोत्कृष्ट वरदान है। इसके समक्ष सोने चांदी के भण्डार और रूपयों के ढ़ेर मूल्यहीन हैं। यह सारस्वत बोध जीवन को उल्लास से भरकर समलंकृत तो करेगा ही साथ ही सृष्टि को और सुन्दर, भ्रष्टाचार मुक्त सदाशयता, करुणा और प्रेम तथा भ्रातृत्व की भावना से भी भरेगा। यह अहंकार के स्थान पर विनम्रता, शत्रुता के स्थान पर मैत्री की मधुरता, दम्भ के स्थान पर सहयोग और समभाव को सम्पुष्ट करेगा। सरस्वती विचार शक्ति है। कृषि कर्म की साधना है। श्रम की प्रतिष्ठा है। कृषि पर्व और सरस्वती पर्व का यह संगम हमारा सांस्कृतिक पर्व है।