वह लड़की


मैंने देखी 
'वह लड़की'
किसी पुस्तक के पन्ने पर
और देखा
एक अप्रकाशित चित्र
उस लड़की का
शब्दों में...।
वह लड़की
वेदना थी जिसके चेहरे पर,
विवशता थी
केले बेचने की,
बचपन जिसका 
खो गया था 
चलती रेल के डिब्बों में..।
मैंने देखा
शब्दों में एक दर्द
उस लड़की के प्रति
जो विवश है 
बचपन को 
मज़बूरी की गोद में 
भेजने के लिये,
खिलौनों और 
गुड़ियों की जगह
फल बेचने के लिये...।
इस दर्द और वेदना को 
कुछ नये शब्द दे दो
चिड़ियों के कोमल पंखों को 
बाज से सशक्त
नये पंख दे दो...।
दर्द की लहर को
सत्ता के गलियारों तक 
पहुँचा दो...।
कम से कम
एक वह लड़की
वेदना से उभर जायेगी
शायद....कल किसी स्कूल 
चली जायेगी...।
कोई नेता अथवा
कोई सामाजिक संस्था
अपने नाम के लिये ही सही
उसका खर्च उठायेगी...।
फिर वही कोई एक
'वह लड़की'
जब समय के साथ
स्त्री बन जायेगी
निश्चित रूप से 
एक परिवार को
शिक्षित बनायेगी...।
और हमारी लेखनी भी
अपने सार्थक प्रयास पर
गर्व से इठलायेगी...।
फिर भी
''वह लड़की''
हमारी अथवा आपकी
रचना की पात्र बन जायेगी
परन्तु
तब दर्द और आहें नहीं
गर्व से सर उठाने वाली
नारी के रूप में 
चित्रित की जायेगी...।