वैचारिकी

दूसरों का धर्मान्तरण कराने की दरिन्दगी चिरकाल से की जाती रही और वर्तमान में भी की जा रही है। कुछ हिन्दू सामाजिक एवं धार्मिक संगठनों तथा साधु-सन्तों ने इस दरिन्दगी के विरूद्ध आवाज उठाई और इसे रोकने का प्रयास किया। इस परिप्रेक्ष्य में गाँधी-नेहरू ने अपेक्षित एवं सार्थक प्रयास नहीं किया। मुस्लिमों और ईसाईयों ने हिन्दुओं के खूब धर्मान्तरण कराये। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने प्रयास किया, तो उनकी हत्या कर दी गई। धर्मान्तरण करने की परम्परा अप्रतिबन्धित है और विकल्प खुला हुआ है। धर्मान्तरण कराना मुसलमानों और ईसाईयों के हित में है। सरकारें मौन साधे रहीं। एक दरिन्दगी से दूसरी दरिन्दगी पैदा हो जाती है और दरिन्दगियों से वातावरण विषाक्त हो जाता है तथा समाज आक्रान्त हो जाता है। धर्मान्तरण  से राष्ट्रान्तरण भी हो जाता है। धर्मान्तरण करना और धर्मान्तरण कराना अलग-अलग बातें हैं। धर्मान्तरण कराने की छूट तो होनी ही नहीं चाहिए। धर्मान्तरण करने की छूट का प्रयोग भी बहुत सोच-समझ कर करना चाहिए। वास्तव में जो अपेक्षाकृत सापेक्ष दृष्टि से सच्चाई अच्छाई व भलाई के मार्ग पर है, उसे न धर्मान्तरण करने की आवश्यकता है और न धर्मांन्तरण कराने की आवश्यकता है। मुसलमानों और ईसाईयों को अपनी-अपनी आबादी बढ़ानी है, इसलिए वे धर्मान्तरण कराने की दरिन्दगी करने से बाज़ नहीं आयेंगे। दूसरों को ही सावधान एवं सजग रहना होगा। सामाजिक सरोकारों से ही जिसका जुड़ाव न हो, उनका देश-हित से जुड़ाव कैसे हो सकता है? जिनके विचारों की दिशा ठीक न हो, उनके आचरण की दशा कैसे ठीक हो सकती है?जन्माधारित जाति-व्यवस्था के चलाने और उसके दृढ़ हाते जाने से सर्व का कल्याण कैसे होगा? स्वार्थपरता बढ़ती रही तो विकास का लाभ जरूरतमंदों तक कैसे पहंुचेगा? अब वर्तमान प्रधानमंत्री ही बतावें कि सरकार द्वारा आवंटित धन में से कितने पैसे जरूरतमंदों तक पहंुच रहे हैं? वह अर्थशास्त्री हैं, सब जानते हैं, छिपावें नहीं बतावें। यह भ्रमात्मक कथन है कि इस्लाम में आतंकवाद की कोई जगह नहीं है। किसी काफिर को मारकर जन्नत में जगह पाई जा सकती है, तो काफिरों को मारने की होड़ तो होगी ही। सारी धरती को इस्लामिक भूमि बनाना धर्म एवं कर्तव्य बताये जाने पर जिहाद रूपी मार-काट और खून-खराबा तो होगा ही। मुसलमान उससे अलग कैसंे रह सकते हैं, जबकि मुस्लिम समस्या है सर्वत्र मुस्लिमों का वर्चस्व कायम करना और इस्लाम का परचम लहराना? इसी से उपजे हैं मुस्लिम या इस्लामिक आतंकवादी संगठन, मजहबी उन्मादी एवं मुस्लिम आतंकवादी। सारे मुल्कों को मिलकर इनका सफाया करना चाहिए। अन्य कोई रास्ता विकल्प नहीं है।
पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर मुस्लिम बाहुल्य है ही और भारत अधिकृत कश्मीर भी मुस्लिम बाहुल्य हो गया है। विकास हेतु जो धन दिया गया व दिया जाता रहा उसका दुष्प्रयोग हुआ और होता रहा। विकास कार्य या तो शुरू ही नहीं हुए या शुरू हुए तो पूरे ही नहीं हुए। बस चुनाव होते रहे धन दिया जाता रहा और आतंकवाद बढ़ता रहा तथा आतंकवादी बढ़ते रहे। कश्मीर मुद्दे पर वार्ता होती रही, परन्तु कोई समाधान नहीं निकला। कोई समाधान निकालेगा भी नहीं। लागू रखिए संविधान की धारा-370 देते रहिए धन, लड़ते रहिए इस्लामिक आतंकवाद से और पूरा करते रहिए अपना कार्य-काल वर्ना करते-करते केवल हिन्दू-मुस्लिम या मुस्लिम-हिन्दू एकता की बात क्यों की जाती है? शरीर के सारे अव्यव एकता के सूत्र में बँधे हैं। सब एक ही सत्ता की संतान हैं। गैर का खयाल भी गलत है। फिर भी गाँधी जी ने कहा कि उनकी एक आँख मुस्लिम और दूसरी हिन्दू है। उन्होंने दोनों में एकता का प्रयास किया, किन्तु विफल रहे, आधार धर्म एवं जाति का था, सिद्धान्त का नहीं, वेदान्त का नही,ं इसलिए परिणाम रूप में विफलता ही हासिल होनी थी। विभाजन पर आबादी की अदला-बदली होनी ही चाहिए थी जो कि गाँधी के कारण नहीं हुई। अब क्या वार्ता से एकता हो जायेगी? कदापि नहीं। इन्सानियत दूसरी चीज है। बेईमानी एवं भ्रष्टाचार के जरिए कोई व्यक्ति खुशहाल भले हो जाए पर वास्तव में उसकी खुशहाली मूर्खता से अर्जित की गई ही होगी। बेईमानी एवं भ्रष्टाचार से कोई देश तरक्की नहीं कर सकता और समाज खुशहाल नहीं हो सकता। सिद्धान्त एवं आदर्श को छोड़कर विकास में लगे हुए हैं बेईमानी एवं भ्रष्टाचार के बल पर! ऐसे विकास का भगवान ही मालिक है। गाड़ी चलती हुई सी दीख रही है कुछ अपेक्षाकृत सापेक्ष दृष्टि से सच्चे अच्छे व भले लोगों के कारण नितान्त बेईमान भ्रष्ट एवं बदमाश लोगों के कारण नहीं। आजकल नारियां आवाज बुलन्द कर रही है कि उन्हें स्वतन्त्रता चाहिए। कैसी स्वतन्त्रता और किससे स्वतन्त्रता? देश स्वतन्त्र है और सारे नागरिक स्वतन्त्र हैं। फिर से परतन्त्र कैसे और क्यों हैं? किसने उन्हें परतन्त्र कर रक्खा है? बात कुछ समझ में नहीं आती। शायद स्वतन्त्रता की मांग न होकर उच्छंृखलता की चाहत हो? परतन्त्र तो सभी है अपने संस्कारों, वासनाओं, संकल्पों, कामनाओं आदि से। मलिन स्वार्थ एवं मलिन अहंकार से सभी ग्रस्त हैं। अब वैसी चोरियां कहां जो चोरी बेईमानी एवं भ्रष्टाचार से अर्जित धन घर में लाने में बाधा बनती थीं और उसका तिरस्कार करती थीं। अब तो अवैध धन कमाने वाले और परिवारीजन की इच्छाओं की पूर्ति करने वाले का परिवार में समादर होता है। नारियां भी माया के बन्धन में है और पुरूष भी। कौन मुक्त होना चाहता है इस बन्धन से? अन्य रूप से स्वतन्त्रता मिल जाय, तो उससे क्या? परतन्त्रता तो अन्य रूप में कायम ही रहेगी। नारियां शक्तिरूपा हैं, उनसे बेहतर सोच की अपेक्षा है।