वर-वधु चयन और ज्योतिष

वर-वधू चयन का उत्स सुसंस्कृत जीवन चिंतन है जिसके मूल में संतुलित आत्मान्वेषी दृष्टि है। ज्योतिष विज्ञान में ज्योति ;आत्माद्धको इसमें आधारभूत माना है। भारतीय जीवन दर्शन सभी शास्त्रों की आधारशिला है। आत्मदीप के आलोक में धर्म-आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत। ;महाभारत-व्यासमुनिद्ध, अर्थ-श्री सर्वकल्याणकारक-मा गृधःकस्यस्विद धनम्, काम-अव्यक्त को व्यक्त करने एवं सृजन का माध्यम काम बने। अहं बहुस्यामि-सार्थक हो। मोक्ष-सतत सत्य का बोध एवं विराट चेतना उन्मुखता...सर्व भूतानि चात्मति ;गीता, 6/39द्ध। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरूषार्थों की सि(ि इष्ट ध्येय है। शरीर रथ का स्वामी आत्मा है। बु(ि सारथी है। इन्द्रियां अश्व हैं जिनकी लगाम मन के हाथ में हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता वेद उपनिषदों का सार है। जिस प्रकार महाभारत के यु( में प्रवेश करने से पूर्व अर्जुन का मन चांचल्य, अस्थिरता आदि का अनुभव करने लगता है, तथा अपनी पीड़ा श्रीकृष्ण भगवान के सम्मुख रखता है। विवेकपूर्ण मन की लगाम श्रीकृष्ण के हाथों में सौंप देता हैै। 'करिष्ये वचनं तव' कहकर अधर्म के सामने धर्मयु( में समर्पित हो जाता है। 'वर-वधू चयन' सद् गृहस्थ आश्रम जीव का प्रवेश द्वार है। गृहस्थाश्रम समाज की आधारशिला है। प्रत्येक गृहस्थाश्रमी को नित्य पांच यज्ञ संपादन करने का विधान है। देवयज्ञ-गायत्री अनुष्ठान, सर्वजन हित एवं अन्तःकरण शु(ि होमादि / ब्रह्म यज्ञ-वेदशास्त्र स्वाध्याय एवं मनन / पितृयज्ञ-पितृ-मातृ-श्वसुर वंश, आप्तजन सेवा सत्कार, पूजन, श्र(ांजलि अर्पण / भूतयज्ञ-सृष्टि एवं प्राणिमात्र हित कर्म तथा / मनुष्य यज्ञ-अतिथि सत्कार, व्रत-उत्सवयज्ञ, यात्रादि आयोजन। अर्थात दम्पति धर्मपालन सहित परिवार, समाज, देश, राष्ट्र  और सृष्टि के प्रति आत्मचैतन्य के साथ स्व-दायित्व-निर्वाह सम्पन्न करे। नव दम्पति मन में 'मै', अहम्, ममतादि से ऊपर उठ निष्काम भाव से दायित्वबोध के साथ गृहस्थाश्रम का पालन करे। इस महान उद्देश्य सि(ि में वर-वधू दीर्घायुपूर्ण मधुर, सार्थक, सफल, निर्विघ्न मंगलमय निरोगी, नित्य नव्य शक्ति उन्मेषक, विवेकपूर्ण, अद्वैतमीतियुक्त, वासनारहित, कल्याणमय,जीवन जियें। इसमें ज्योतिषविज्ञान का मार्गदर्शन सदा वरदानमूलक रहा है।
ज्योतिष में वर-वधू चयन में मेलापक प्रक्रिया विशु( वैज्ञानिक है। विवाह धार्मिक संस्कार है। वैदिक युग से अद्यपर्यन्त विवाह एक धार्मिक अनुष्ठानात्मक उत्सव है। वैदिक धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न करने में ज्योतिषशास्त्र की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। ज्योतिष के अनुसार सृष्टि में जन्म लेने वाली इकाई पर चैबीस तत्व यानि-पांच कर्मेन्द्रियां ;हाथ, पैर, जिव्हा, गुदा, उपस्थद्ध, पांच ज्ञानेन्द्रियां ;त्वक, चक्षु, कर्ण, जीभ, नाकद्ध, पांच तन्मात्रा ;स्पर्श, रूप, शब्द, रस, गंधद्ध, पंच महाभूत ;पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाशद्ध तथा मन, बु(ि, अहंकार एवं आत्मा विधायक हैं।
                     चतुर्विंशति तत्वानां यदेकं तत्वमुत्तमम्,
 अनुपाधि परं ब्रह्मतत्पर ज्योतिरोमिति।;गायत्री तत्व स्तोत्रम्द्ध
चैबीस तत्वों में श्रेष्ठ है उपाधिरहित परम ब्रह्म ज्योतिरूप ओऽम। हमारे जीवन में अपरा प्रकृति संतुलन-असंतुलन में चैबीस तत्व तन-मन-बु(ि, अहंकार और चित्त को सतत प्रभावित करते हैं। इन्हीं तत्वों के अवयवों से पिण्ड का निर्माण होता है। जीव मां के गर्भ में प्रवेश कर सर्वप्रथम मां के शरीर से पृथ्वी तत्व द्वारा अन्नमय कोष, जलतत्व से प्राणमय कोष, वायुतत्व से मनोमय कोष, अग्नितत्व से विज्ञानमय कोष, तथा आकाश तत्व से आनंदमय कोष का निर्माण होता है। जन्म लेने के पश्चात जीवात्मा शरीरधारी के रूप में इन्हीं के संयुक्त रूप में विद्यमान रहता है। जाग्रत अवस्था में जीव के पांचों कोष जाग्रत रहते हैं, सुषुप्ति अवस्था में जीवात्मा का अन्नमय कोष शिथिल हो जाता है और अन्यकोष जाग्रत रहते हंै। इसीलिये इस अवस्था में स्वप्न आकार लेते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान अनुसार निद्रा में इन्द्रियां बाह्यजगत से कोई उद्यापन नहीं लेती हैं उद्यीपन आधारित मानसिक क्रियाशील चेतना के अभाव में पूर्वगृहीत अनुभूतियां स्वप्न का रूप धारण करती हैं। आत्मसजग प्रज्ञा पुरूष भूत, वर्तमान एवं भविष्य को जागृत चेतना द्वारा देखने में समर्थ होते हैं।
प्रत्येक ग्रह एवं राशि के तत्व निर्धारित हैं। वे जीवात्मा के जन्मकाल में किस प्रकार की स्थिति बनाये हुये हैं, इस आधार पर वर -वधू के समग्र व्यक्तित्व का आकलन किया जाता है। मनुष्य योनि का अर्थ है- यह जन्म भोग के लिये नहीं, पुरूषार्थ सि(ि हेतु है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस के उत्तरकाण्ड में श्रीराम के मुख से कहलवाया है-
एहि तन फल विषय न भाई
स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।
हे भाई! इस शरीर को प्राप्त होने का फल विषय भोग नहीं है। स्वर्ग के भोग भी बहुत स्वल्प हैं, और अंततः दुखदायी हैं। पशुयोनि मात्र भोगयोनि है, मानव पुरूषार्थ करने में स्वतंत्र है। विवाह संस्कार का ध्येय धर्म, अर्थ, काम, निर्वहन द्वारा मोक्ष पुरूषार्थ सि(ि है। यह संस्कार बहिर्मुखी चित्त को अन्तर्मुखी बनाने का श्रेष्ठ साधन है। योगवाशिष्ठ में स्पष्ट निर्देश है-
पौरूषं सफलं नृणाम् ;3/17द्ध
विवाह संस्कार द्वारा वासना का परिसंस्कार होता है। गृहस्थाश्रमी का गृहस्थ धर्म पालन से वासना तत्व, कर्म में परिणित होता है।
य मनोवासना पूर्वं बभूव किल भूरिशः
सवैयं कर्म भावेन नृणां परिणति गतां।
मन में जिस प्रकार अनेक वासनायें जन्म लेती हैं, वही वासनायें कर्म में परिणित होती हैं। अर्थात वासना सूक्ष्म है पर कर्म में परिणित होने पर स्थूल बन जाती है। कर्मरूप में परिणित वासना को ही कायिक एवं वाचिक कहते हैं। इन्द्रियों का मन में लय होता है। धर्म पालन करने में अनासक्ति आ जाती है। अनासक्ति से मोह का नाश होता है, मोह निवृत्ति से सत तत्व को बोध होता है। तत्व बोध से जीवन मुक्ति, जीवन मुक्ति से विवेक कुसुम खिल जाता है। विवेक उन्मेष से मोक्ष पुरूषार्थ सि(ि का द्वार खुल जाता है। विवाह संस्कार से पूर्व वर-वधू चयन में विवेक कितना महत्वपूर्ण है, सहज ही बोध होता है।
दाम्पत्य जीवन का प्राणतत्व प्रेम है। प्रेम से सद्भाव और सद्विचार अंकुरित होते हैं। सद्भाव से सेवाधर्म का दायित्वबोध स्वतः हृदयस्थ होता है। हृदयस्थ दायित्वबोध बु(ि और चित्त-चेतना को सदा चेतनवंत रखता है। वर-वधू इसी इसी सुसंस्कृत प्रेम से जुड़ते हैं। वधू-गृहप्रवेश का अर्थ है-माता बनने का सौभाग्य और परस्पर समर्पण आनंद प्राप्त करना। परस्पर हृदय अर्पण में देहातीत प्रेम अनुभूति है जिससे कि  'अहं ब्रह्मास्मि' शिवोकेवलोऽहम्' व्यापक फलक पर त्याग और कर्तव्य का अहोभाग्य स्वतः क्रियाशील रहता है। ज्योतिष शास्त्र में शुक्र, चंद्र और बुध केन्द्र त्रिकोस्थ स्वगृही, उच्चस्थ अथवा शुभ ग्रह की दृष्टि के अन्तर्गत होते हैं तो सहितस्य भावः साहित्यम् कला, संगीत और संस्कृति तत्व प्रतिभा के रूप में सदा अनुप्रेरक रहते हैं। इनमें गुरू ज्ञानबोधक और सूर्य आत्म बोधक के रूप में अन्तस की गुत्थियों को खोलते जाते हैं। ज्ञानबोध और आत्मबोध के अभाव में 'प्रेम' का मांसल रूप उद्दाम स्वरूप ले लेता है। वर -वधू चयन इन गहन तथ्यों को आत्मसात कर ज्योतिष शास्त्र सदा मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वाह करता है।