वरिष्ठ भाषाविद् डा0 अचलानन्द जखमोला की दो कृतियां


मध्यकालीन हिन्दीकोष साहित्यः एक विवेचनात्मक और तुलनात्मक अध्ययन तथा उत्तराखण्ड की लोक भाषाएँ के प्रकाशन के लिए मैं परम विद्वान लेखक को हार्दिक शुभ कामनाएँ व बधाइयाँ देती हूँ। इन दोनों पुस्तकों के प्रकाशन से भाषा व्याकरण व भाषा विज्ञाान के क्षेत्र में अध्ययन व अनुसंधान करने वाले अनु संधित्सुओं के लिए अत्यन्त व्यापक व महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध है।
दोनों पुस्तकें विशेषज्ञों की महामंडली में दिनों दिन चर्चा परिचर्चा की विषय सामग्री समेटे हुए है। प्रथम ग्रन्थ 'मध्यकालीन हिन्दी कोष' साहित्य लेखक की श्रम साधना, अथाह जिज्ञासा,अध्ययन-अध्यवसाय मौलिक उद्भावनाओं की अत्यन्त नवीन दुनिया में पाठकों का अभिनन्दन करता है। क्या नहीं है इसमें? यहाँ इतिहास, भाषा विज्ञान, अर्थविज्ञान, ध्वनिविज्ञान व्याकरण संस्कृति तथा संस्कृत, अंग्रेजी, अरबी-फारसी , ब्रज, अवधी, लैटिन के कोशों से चुन-चुन कर अत्यन्त रोचक, ज्ञानवर्धक, उपयोगी जानकारियाँ एक साथ पाठकों के लिए विद्यमान हैं।
ग्रन्थ में काषों के कार्य, प्रकार मौलिकता महत्व तथा भारतीय वांग्मय की कोष परंपरा में 2600 वर्ष पूर्व यास्क विरचित निघण्टु से लेकर अमरकोश, अनेकार्थ, ़ित्रकाण्डकोश, हारावली, वर्णदेशना,अभिधान रत्नमाला, वैजयन्ती कोश, विश्वप्रकाश, नानार्थ शब्दकोश, अभिधान चिन्तामणि, शब्दरत्न समुच्चय, शब्दकल्पदु्रम तक तथा पारसी प्रकाश, राज व्यवहार कोश, लोक प्रकाश आदि द्विभाषीय कोशों के साथ ही पालि एवं प्राकृत कोशों की गौरवशाली स्वर्णिम परंपरा का विस्तृत उल्लेख है। इस विवेचन में विवक्षित कोशों की विविधताएँ, भाषा, इतिहास का विस्तृत व रोचक विवरण उपलब्ध है। लेखक ने 1500 से 1850 ई0 तक के कालखण्ड में रचित एक भाषीय, द्विभाषीय, त्रिभाषीय हिन्दी कोषों को अपने अध्ययन का विषय बनाया है और अत्यन्त तार्किक व प्रामाणिक पद्धति से अनेक हस्तलिखित कोशों की रचना तिथि, वर्गीकरण, विषयवस्तु तथा उसकी मौलिकता व प्रामाणिकता पर अपनी मूलगत उद्भावनाएँ प्रस्तुत की हैं। सचमुच यह सब चमत्कृत कर जाता है। आश्चर्य होता है कि जब सन् 1958 में लेखक ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी जैसी ख्याति प्राप्त संस्था में अपना शोध प्रारंभ किया था तब के अत्यन्त सीमित साधनों एवं अनगिनत विघ्न-बाधाओं के बीच कैसे यह सामग्री संकलित की गई होगी? यह पुस्तक लेखक की दुर्निवार जिजीविषा तथा दृढ़ संकल्प शक्ति का स्वतः बोध करा देती है। सबसे रोचक व विस्मयकारी है इंडिया आॅफिस लंदन से उपलब्ध हस्तलिखित फ़ारसी ग्रन्थ 'तुह़फ़तुल् हिन्द' अर्थात् 'भारत का एक उपहार' जिसकी रचना 1675 ई. में मिर्जा़खाँ ने की थी। यह अमूल्य ग्रन्थ शब्दार्थशास्त्र, ध्वनिशास्त्र व ब्रजभाषा व्याकरण की दृष्टि से अप्रतिम है। इसके अंतिम अध्याय 'खा़तिमा' (परिशिष्ट) में 'लुग़एकतये हिन्दी' शीर्षकान्तर्गत, 88 बड़े पत्रों वाला, लगभग 3500 मूल हिन्दी शब्द समेटे हुए एकद्विभाषीय कोश है जिसके अन्तर्गत फा़रसी भाषा में अर्थ और व्याख्याएं दी गयीं हैं। साथ ही फारसी वर्णमाला के अकारादि क्रम में नियोजित यह अद्भुत कोश विशिष्ट पद्धति द्वारा शब्दों का शुद्ध व्याकरण सम्मत व परिनिष्ठित उच्चारण विधि भी प्रदान करता है। इतना ही नहीं यह एक ऐसा पूर्ण कोश है जिसमें भारतीय जन समुदाय का तत्कालीन जीवन, तौर-तरीके, धर्म, खेल, विश्वास, अंधविश्वास, खुशियाँ, गम, व्यंग्यवाग्वैदग्ध्य आदि आंतरिक तत्वों का समाहार होता है। भाषा का इतिहास व संस्कृति का रोचक व लाभप्रद समुच्चय इन विवेच्य कोशों में हो जाता है। 
दूसरी पुस्तक 'उत्तराखण्ड की लोक भाषाएँः स्वरुप और चुनौतियाँ' भी पहली पुस्तक की विशिष्टताओं को आगे बढ़ाती है और उल्लेख
नीय तथ्य यह है कि इन दोनों पुस्तकों के रचनाकाल में लगभग अर्द्धशताब्दी का अन्तराल होते हुए भी लेखकीय सामथ्र्य, जिजीविषा, दृढ़ता, ज्ञानकुशलता, ज्ञानगरिमा, अध्ययन, अध्यवसाय जैसी विशेषताएँ जस की तस हैं जिसके लिए मैं लेखक को साधुवाद देना चाहती हूँ।
इस पुस्तक में गढ़वाली का भाषायी क्षेत्र, उसकी सामथ्र्य, प्रकृति, प्रवृत्ति, पौराणिक व ऐतिहासिक आधार, भौगोलिक स्थिति व सीमाएँ, शब्द भंडार, देशज शब्दसंपदा गढ़वाली के शब्द निर्माण की विलक्षण शक्ति का अत्यन्त रोचक वर्णन, उसका उद्गम-प्रभाव, स्वरुप विकास गढ़वाली ध्वनियाँ, ध्वनियों की प्रकृति व प्रवृत्ति, पद संरचनात्मक प्रवृत्तियाँ, वाक्य विधान, अभिव्यंजना शक्ति व भाव प्रवणता के साथ ही चुनौतियाँ व भविष्य पर भी व्यापक सामग्री प्रस्तुत की गई है । यह समस्त विवरण पाठक को बाँधे रखता है। जरा सा भी विचलित, विभ्रमित या ऊबने का प्रश्न ही नहीं उठता।
इसी प्रकार कुमाँउनी भाषा और बोलियों का भौगोलिक क्षेत्र, स्वरुप और सौष्ठव, बोलियाँ-बोलियाँ, शब्द भंडार, भाषिक विकास, ध्वनियाँ,         ध्वनियों की प्रवृत्तियाँ, विशिष्टताएँ, चुनौतियाँ आदि पर गहन अध्ययन तथा शोधपरक दृष्टि से प्रस्तुत मौलिक चिन्तन इन सभी अवयवों का तार्किक व गवेषणापूर्वक मूल्यांकन के साथ ही बोली, लिपि भाषा के चुनौतिपूर्ण प्रश्नों पर गंभीर चिंतन व समाधान इस सम्पूर्ण प्रयासार्थ वैभिन्य आदि पक्षों पर गंभीर चिन्तन है। इस संदर्भ में डाॅ. उमाशंकर सतीश व प्रो.डी.डी. शर्मा द्वारा किये गये कार्यों का विवरण, जौनसारी ध्व्नियाँ जौनसारी का पश्चिमी (हिमाचली) पहाड़ी व मध्य पहाड़ी-गढ़वाली कुमाउँनी से तुलनात्मक अध्ययन, के अतिरिक्त इस भाषा की संरचना और विन्यास, वर्तमान और भविष्य आदि विषयों पर भाषा वैज्ञानिक और लोकोपयोगी आधार पर प्रस्तुत करने की श्लाघनीय व वन्दनीय स्थापनाएँ भी की गई हैंै। पुस्तक में की गई गढ़वाली कुमाउँनी के साम्य व वैषम्य पर विस्तृत चर्चा उल्लेखनीय है। दोनों भाषाओं पर किये गये भाषा वैज्ञानिक अध्ययन की विवेचना अत्यन्त उपादेय है। दोनों के शब्द भंडार, समान वर्तनी होते हुए भी अर्थ वैभिन्य, क्रियाएँ ध्वनिगत विशिष्टताओं व विविधताओं के स्वरों व व्यंजनों का अत्यन्त विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है। 
इस पुस्तक में केवल भाषा व बोलियों पर ही नहीं, उत्तराखण्ड की संस्कृति पर भी विचार करते हुए भाषा व संस्कृति की अन्योन्याश्रितता
आर्य संस्कृति का मूल स्रोत- उत्तराखण्ड, गायन, वादन, नाटक, नृत्य आदि कलाओं का उद्भव स्थल, यहाँ की प्रमुख बौद्धिक व सांस्कृतिक परंपरा की अवनति, वर्तमान वाग्व्यवहार में लोक भाषाओं का ह्रासीकरण बंगाणी, मार्द्या, तोलछा, ज्याड़ा, बुक्सा, रड़्, जोहारी, राजी, थारु आदि सीमान्त बोलियों के अस्तित्व पर मंडराते खतरों पर भी गंभीर चिन्ता व चिंतन व्यक्त किया गया है। विद्वान लेखक ने इस पुस्तक में गढ़वाली -कुमाँउनी के मानकीकरण का प्रश्न भी गंभीरता से उठाया है। मानकीकरण की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए इस दिशा में अब तक किए गए प्रयासों का विवरण उपलब्ध है। दोनों बोलियों के उच्चारण व वर्तनी, स्वर जनित वैभिन्य, वैशेषिक चिह्न, व्यजंन ध्वनियों की विविधता, विभक्तियाँ, परसर्ग, क्रियापद, संज्ञापदों में उकार/ओंकार, अनुस्वार शिरोबिन्दु अनुनासिकता या चन्द्रबिंदु, आगत शब्दों की वर्तनी, समाधान व सुझाव आदि पर अत्यन्त सटीक, सारगर्भित व व्यावहारिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। यही नहीं लेखक ने उत्तराखण्ड की भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि की उपयुक्तता की जोरदार पैरवी करते हुए इस पक्ष के विरोधियों को करारा व अकाट्य उत्तर दिया है।
कुमाउँ-गढ़वाल में पहाड़ अनेक अन्तर्मन, दिल धड़कनें और दर्द एक निबन्ध पुस्तक के सम्पूर्ण कलेवर में मिश्री सी घोल जाता है। इसमें सभी प्रासंगिक तत्वों पर उपयोगी व दुर्लभ जानकारियाँ हैं। कैसे बने पहाड़, विश्व के पहाड़, प्राचीन ग्रन्थों में पहाड़, महाहिमालय शिखर, दर्रे और हिमनद, महत्ता, क्षमता, समता, विपन्नता और विविधता में एकता, कुमाँउ और गढ़वाल परिक्ष्ेात्र-पर्वत श्रृंखलाएँ, नद, महानद, तथा बुग्याल आकर्षण का केन्द्र बिन्दु, देवतुल्यं नराणाम, सुलगते सवाल, उलझते जवाब, ह्रास और विलुप्ति शीर्षकों के अन्तर्गत  डाॅ. जखमोला ने गागर में सागर भरा है। अनावश्यक विस्तार से यथा संभव बचते हुए क्रमबद्ध रुप से अनेक प्रासंगिक बिन्दुओं पर गंभीर मंथन प्रस्तुत किया है। 
'उत्तराखण्ड की भाषाओं की संवैधानिक स्थिति' आलेख में पहाड़ी भाषाओं के पहाड़ों जैसे ही ऊँचे, दृढ़, अचल, विस्तृत साहित्य का  उल्लेख तथा मान्यता न मिलने पर भी अपना स्थान बनाता, सम्मानित होता, अपनी छाप छोड़ता, सराहना पाता,उल्लिखित व रेखांकित होता उत्तराखण्डीय साहित्य व भाषा साहित्य के मर्मज्ञों का ध्यानाकर्षण करने में सक्षम है। उपर्युक्त दोनों पुस्तकों को हाथ में उठा लीजिए। हर पृष्ठ पर आपको ज्ञानवर्द्धक, चैंका देने वाली, चमत्कृत कर देने वाली नई-नई जानकारियाँ प्राप्त हो जायेंगी। मैं समस्त हिन्दी, गढ़वाली, कुमाऊँनी व जौनसारी साहित्स जगत की ओर से कर्मठ भाषाविद, कोशकार व साहित्यकार डाॅ. जखमोला को कोटिशः               धन्यवाद देना चाहती हूॅँ जिन्होंने अथक परिश्रम, मौलिक चिंतन तथा निष्पक्ष मूल्यांकन से कोश एवं लोक भाषाओं के सांस्कृतिक व भाषिक पक्षों का विश्लेषण व विवेचन भावी साहित्य साधकों के लिए प्रस्तुत किया है।