विकलांगता और उत्तराखंड

निरंतर पिछडे पन के कारणों से, अपने मुख्य मानवाधिकारों जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा एवं सुरक्षा के राष्ट्रीय स्तर पर उचित अनुपालन न होने के कारणों से, पर्वतवासीयों ने वर्षाें से संधर्ष कर के अपने अधिकारों के लिये उत्तराखण्ड राज्य की मांग रखी, बडे कठिन संघर्षों के बाद भारत सरकार ने इस प्रदेश को मान्यता प्रदान की। विकसित करने की दृष्टि से कई काम यहां पर किये गये, कई नीतियों का निर्माण किया गया, इन नीतियों के निर्धारण में कर्मचारियों, अधिकारियों एवं कुछ प्रमुख समाज के स्थानीय  बुद्ध जीवियों, जिनकी पहुंच प्रशासन एवं राजनीतिज्ञों तक थी, का विशेष योगदान रहा। उक्त महानुभावों ने अपने तक लागू एवं संचालित नीतियों का निर्माण बहुत अच्छे तरीके से कर लिया, पर जहां पर सामान्य लोगों की पहुंच नहीं थी, या नीतियां नाबालिगों, के लिये बननी थी, वहां नाम मात्र का काम किया गया।
उत्तराखण्ड में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय में संपूर्ण      अधिकारी, कर्मचारी एवं मंत्री नियुक्त हैं, जो कि हर जनपद में कार्यरत हैं, पर प्रदेश की बालनीति अभी तक नहीं बनायी गयी है। हर प्रदेश की बाल नीती स्थानीय पर्यावरण, स्थानीय खान पान की आदतें एवं स्थानीय उपलब्ध भोज्य पदार्थ, स्थानीय खेल कूद एवं अन्य चीजें, बाल विकास पर प्रभाव डालती हैं। बाल नीति न बनाने के लिये कौन है जिम्मेदार?
प्रदेश में 2011-12 से बाल अधिकार संरक्षण आयोग भी कार्यरत है पर उन्हें भी नहीं मालूम की बालनीति प्रदेश में क्यों नहीं बनी है। उत्तराखण्ड बाल अधिकार संरक्षण आयोग का कार्य मात्र उत्तराखण्ड में कार्यरत पब्लिक स्कूलों में गरीब बच्चों के लिये 25 प्रतिशत का आरक्षण करवाना है। इन सीटों पर भर्ती कर दिये गये बच्चों पर क्या मानसिक प्रभाव पडेगा, इस पर उत्तराखण्ड बाल अधिकार संरक्षण आयोग कुछ भी नहीं जानता। इन बच्चों के लिये पब्लिक स्कूलों में यूनीफीर्म कौन बनायेगा? पब्लिक स्कूलों में आये दिन विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं जिसके लिये धन की आपूर्ती अभिभावकों से की जाती है। क्या आरक्षित सीटों के अभिभावक बार- बार धन की आपूर्ति कर सकते हैं? ऐसे कार्यक्रमों में हिस्सा न लेने से बालमन पर प्रतिकूल प्रभाव पडेगा एवं यह कारण बाल विकास में बाधा बनकर बच्चों में अपने अभिभावकों के प्रति हीनभावना एवं कडुवाहट पैदा करेगा। जिसके भविष्य में गलत परिणाम निकलने के आसार अधिक होंगे। 
विकलांगता के क्षेत्र में बहुत ही दयनीय स्थिति उत्तराखण्ड में है। सरकार के पास विकलांगता और विकलांगता के बारे में सही आंकड़े अथवा सही स्थिति की जानकारियां नहीं हैं। लगभग एक करोड़ की जनसंख्या वाले प्रदेश में 11 लाख विकलांग हैं। समूचे प्रदेश के शहरी, ग्रामीण एवं दुर्गम क्षेत्रों में विकलांग एवं विकासीय विलंबता से ग्रसित बच्चों की दयनीय स्थिति है। मुख्यतः विशिष्ठ बच्चे/विकासीय विलंबता से ग्रसित बच्चे निम्न प्रकार से उत्तराखण्ड में हैं-


 1.सामान्य से कम बुद्धिलब्धी।                                     2.निर्देशों को समझने में परेशानी।
 3.अपनी बातों को दूसरे तक नहीं समझा पाना।   4.स्वयं की देखरेख न कर पाना।
 5.स्ंाप्रेषण कौशल की कमी एवं स्वावलंबन   6.हाथ पावों में खिचाव के कारण गति अवरोध।
 7.बोलने एवं सुनने में अवरोध।   8.आंखों से अल्प /न दिखायी देना।
 9.हर कार्य के लिये दूसरों पर निर्भर रहना।   10.एक से अधिक उक्त का समिश्रण।
 11.थैलेसीमिया/हिमोफिलिया ये पीडित बच्चे   12.धीमी गति से सीखने वाले बच्चे 
 13,समाज में शमिल न हो पाना, समाज से अलग थलग पडे रहना। अन्य ।


यदि हम आयुक्त निःशक्तजन उत्तराखण्ड को ही देखें, उत्तराखण्ड बनने से आज तक दो आयुक्तों (स्नेह लता अग्रवाल एवं बी0आर0टमटा) ने इस पद को सुशोभित किया। दोनों ही आयुक्त प्रभारी रहे, एवं मात्र शनिवार को ही कार्यालय में बैठते थे/हैं। द्वितीय शनिवार का अवकाश होता है, शायद एक शनिवार किसी सरकारी अथवा व्यक्तिगत कार्य से अनुपस्थित माना जाये तो आयुक्त महोदय वर्षभर में मात्र 24 दिन ही कार्यालय में बैठे। क्या हम, आप, विकलांगजन या विशिष्ठ बच्चों के अभिभावक मान सकते हैं कि इन्होंनेे विशिष्ठ लोगों के पुर्नवास हेतु वर्षभर उचित आंकलन या कार्य किया होगा? जिम्मेदार कौन?
आयुक्त महोदय के तुगलगी फरमान विभिन्न कार्यालयों के कोनों में पडे दिखायी देते हैं। आयुक्त महोदय ने समस्त जनपदों के उप मुख्य चिकित्साधिकारियों का एक सम्मेलन देहरादून में आयोजित किया, जिसमें पूरे उत्तराखण्ड के एक भी जनपद से उप मुख्य चिकित्साधिकारी ने सिरकत नहीं की, इसका आयुक्त महोदय को कोई खेद भी नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में सर्व शिक्षा अभियान के अन्तर्गत विभिन्न विकास खण्डों में विशिष्ठ शिक्षकों को संविदा में रखकर मात्र विशिष्ठ बच्चों के आंकडे़ जमा करने का काम किया गया। उनके आंकडों के आधार पर सामान एवं व्हीलचेयर खरीद ली गयी। व्हीलचेयर खरीदने से पहले किसी भी बालक का शाररिक आंकलन नहीं कराया गया। यह एक सरासर उनके लिये निर्गत फंड का दुर्पयोग मात्र है। पुनर्वास के उपकरण दे दिये गये, पर उनकी उपयोगिता एवं उनको किस प्रकार उपयोग करें, नहीं बतलाया गया। अतः समुचित उपकरण एवं व्हीलचेयर या तो लाभार्थियों के घरों में पडे हैं या स्कूल के कोनों में धूल फांक कर जंग से खराब हो चुके हंै। मात्र आधा प्रतिशत विकलांग ही पारस्थितिक एवं शारीरिक कारणों से ही स्कूल पढ़ पाते हंै। ऐसे बच्चे या तो पोलियो ग्रसित हैं या दृष्टि बाधित हैं जो दृष्टि बाधितार्थ विशिष्ठ विद्यालयों, जैसे दृष्टि बाधितार्थ राष्ट्रीय संस्थान देहरादून में अध्ययन करते हैं। समस्त भारत में विकलांगता का कार्य भार, आयुक्त निःशक्तजन भारत सरकार देखता है। जो कि समाज कल्याण एवं अधिकारिक मंत्रालय, भारत सरकार का उपक्रम मात्र है। पूरे देश में फंड देने का कार्य समाज कल्याण एवं अधिकारिक मंत्रालय, भारत सरकार करती है। जहां चिरपरिचित संस्थाओं का ही दबदबा रहता है। 
ग्रामीण एवं दुर्गम क्षेत्रों में कार्य कर रही संस्थाओं की पहुंच वहां तक नहीं होती। आयुक्त निःशक्तजन भारत सरकार मात्र एक दिग्दर्शक बन कर कानूनों के दांव पेच बनाती रहती है। उत्तराखण्ड के परिवेश में समाज कल्याण एवं अधिकारिक मंत्रालय भारत सरकार एवं आयुक्त निःशक्तजन भारत सरकार का कार्य मात्र कभी-कभी निर्देशन देना ही रह गया है, उनके द्वारा निगरानी आज तक नहीं की गयी। उत्तराखण्ड के समाज कल्याण मंत्रालय अथवा आयुक्त निःशक्तजन उत्तराखण्ड के कार्यालय से कोई भी प्रश्न अथवा निर्देशन के बारे में कुछ भी नहीं पूछा गया है। उत्तराखण्ड में विकलांगों के लिये रोजगार की भी दयनीय स्थिति है। कुछ दृष्टि बाधित एवं कुछ पोलियो से ग्रसित लोग ही रोजगार पर देखे गये हैं, अन्य या तो भीख मांगकर गुजारा करते हैं या अन्य पर बोझ बने हैं। सरकार की उनके लिये कोई भी योजना नहीं है। समाज कल्याण मंत्रालय उत्तराखण्ड, आयुक्त निःशक्तजन उत्तराखण्ड, समाज कल्याण निदेशालय उत्तराखण्ड, जिला समाज कल्याण अधिकारी और सहायक समाज कल्याण अधिकारी के पास न तो कोई जानकारी है और ना ही समुचित आंकड़े। इन सब का खामियाजा विकलांगजनों को एवं विकासीय विलंबता से ग्रसित बच्चों को भुगतना पडता है।
समाज कल्याण एवं अधिकारिक मंत्रालय भारत सरकार ने विकलांगता एवं विकलांगजनों के लिये कई कानून, उपकानून,नियम, अधिनियम, अधिनियम के अन्तर्गत एक्ट, एक्ट के अन्तर्गत कई नियम एवं उनके विभिन्न पैरा बना दिये हैं। अपने कार्यों के लिये ग्रामीण एवं दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाले विकलांगजनों एवं विशिष्ठ बच्चों के अभिभावक उक्त विभिन्न कानूनों के मध्य फंस कर कुछ भी हासिल नहीं कर पाते। विशिष्ठ बच्चों के अतिशीघ्र हस्तक्षेप का कोई भी कार्यक्रम उत्तराखण्ड में नहीं है। अतः विकलांगजनों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है। थैलेसिमिया एवं हिमोफीलिया से प्रभावित बच्चे एवं स्लो लर्नर को माह अक्टूबर 2012 को शामिल करके विकलांगता अधिनियम 1995 में अब 09 विकलांगता के प्रकार हो गये हैं। आयुक्त निःशक्तजन भारत सरकार के अनुसार समुचित विकलांगों का 75 प्रतिशत भाग ग्रामीण एवं दुर्गम क्षेत्रों में निवास करता है। जहां सरकार का कोई भी कार्यालय या कर्मचाारी नहीं होता। कोई भी विकलांगता का कार्यक्रम वहां आयोजित नहीं किये जाते हैं। 75 प्रतिशत विशिष्ठ विद्यालय एवं कार्यक्रमों का आयोजन शहरों, मैट्रो सिटीज एवं राजधानियों में होता है। 75 प्रतिशत अनुदान शहरों, मैट्रो सिटीज एवं राजधानियों में कार्यरत विद्याालयों एवं संस्थाओं को ही दिया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत संस्थाओं को अनुदान नहीं के बराबर है। अतः व्यावसायिक कार्यकर्ता को बुलाकर कार्य करने में कठनाई होती है। उनका उचित मानदेय देने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। अतः ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत व्यावसायिक कार्यकर्ता शहरों, मैट्रो सिटीज एवं राजधानियों में पलायन कर चुके हैं क्योंकि वहां उन्हें रोजगार मिल जाता है। 
अतः 75 प्रतिशत विकलांग बिना पुर्नवास के ही अपने हालात पर रोने एवं मरने को मजबूर हो जाते हैं। 09 विकलांगताओं में से 04 विकलांगतायें-प्रमस्तिकीय पक्षाधात, मानसिक मंदिता, बहुविकलांगता एवं स्वावलंबन (औटिज्म स्पैक्ट्रम डिसआर्डर) जो कि समस्त विकलांगता का 73.36 प्रतिशत है। ऐसे विकासीय विलंबता वाले बच्चों में अतिशीध्र हस्तक्षेप से उनकी विकलांगता कम की जा सकती है। इन 04 विकलांगताओं के पुनर्वास हेतु समाज कल्याण एवं अधिकारिक मंत्रालय भारत सरकार ने 1999 में राष्ट्रीय न्यास एक्ट का निर्माण किया, ताकि एसे बच्चों में अतिशीध्र हस्तक्षेप करके उनकी विकलांगता कम कर के उनके पुर्नवास का उचित प्रबंधन किया जा सके। पर यह एक्ट भी ग्रामीण एवं दुर्गम क्षेत्रों में सफेद हाथी साबित हुआ। राष्ट्रीय न्यास एक्ट का अलग कार्यालय है। राष्ट्रीय न्यास एक्ट के तहत हर जनपद में एक लोकल लेवल कमेटी गठित की गयी है। जिसके अध्यक्ष जिलाधिकारी, जनपद की एक स्वयं सेवी संस्था एवं जनपद का एक विकलांग सदस्य हैं, जिला समाज कल्याण अधिकारी इस समिति के कन्वीनियर हैं। यह समिति प्रत्येक चैथे माह में जिला           अधिकारी की अध्यक्षता में उक्त चार विकासीय विलंबता वाले बच्चों के कल्याणार्थ एवं उनके पुनर्वास हेतु चर्चा कर मार्गदर्शन करेगी। प्राथमिक विद्यालय, आगनबाडी केन्द्र एवं विशिष्ठ विद्यालय इसमें प्रतिभाग कर सकते हैं। जिससे 0 से 6 वर्ष एवं 7 से 14 वर्ष तक के बच्चे का आंकलन किया जा सकता है। अध्यक्ष द्वारा विभिन्न विभागों को निर्देश देकर लाभार्थियों की विकलांगता कम की जा सकती है। 
राष्ट्रीय न्यास एक्ट ने उत्तराखण्ड में एक संस्था को स्टेट नोडल एजेन्सी सेंटर का कार्य सौंपा है जो कि उत्तराखण्ड में समस्त जनपदों का सिरमौर के साथ-साथ जनपद देहरादून में लोकल लेवल कमेटी का सदस्य भी है। उत्तराखण्ड में एक संस्था स्टेट नोडल एजेन्सी पार्टनर भी है, जो कि जनपद चमोली का लोकल लेवल कमेटी का सदस्य भी है। सृजन स्पास्टिक सोसायटी हल्द्वानी द्वारा उत्तराखण्ड बनने से आज तक के आंकडे राष्ट्रीय न्यास एक्ट के तहत किये गये कार्यों के विवरण हेतु हर जनपद से जमा किये गये। आंकड़े चैंकाने वाले थे।


जनपद         बैठकों की संख्या       बैठकों का प्रतिशत         मुख्य वार्ता


बागेश्वर 30 83.33 अभिभावक प्रमाण पत्र की आवश्यकता, विकलांगों के         विशिष्ठ अधिकार।
नैनीताल 10 30 अभिभावक प्रमाण पत्र की आवश्यकता, पुनर्वास कार्यक्रमों     की आवश्यकता।
चमोली 09 27 प्राादेशिक सरकार में नौकरी का आरक्षण, स्वरोजगार में     ऋण एवं जिला विकलांग पुनर्वास में कार्य।
टिहरी 05 15 अभिभावक प्रमाण पत्र
अल्मोडा 05 15 पुनर्वास पर जोर
देेहरादून 05 15 अभिभावक प्रमाण पत्र
पिथौरागढ 04 12 अभिभावक प्रमाण पत्र
हरिद्वार 04 12 अभिभावक प्रमाण पत्र, अभिभावकों का संघ।
पौडी 02 06 अभिभावक प्रमाण पत्र
रूद्रप्रयाग 02 06 अभिभावक प्रमाण पत्र
उत्तरकाशी 01 03 एल0एल0सी0 का गठन
चम्पावत 01 03 चम्पावत,पाटी,बाराकोट एवं लोहाधाट में कैंप
उद्यमसिंह नगर 01 03 अभिभावक प्रमाण पत्र
उत्तराखण्ड 77 16.45 खाना पूर्ति कर बजट निपटाना।


हर वर्ष 36 बैठकों के सापेक्ष उक्त बैठकें हुई। 10 वर्षों में 396 बैठकों के सापेक्ष मात्र 77 बैठकें हुई। उत्तराखण्ड का जो स्टेट एजेन्सी नोडल सैंटर है वह जनपद देहरादून का लोकल लेवल कमेटी का भी सदस्य है। जनपद देहरादून में ही 10 वर्षों में मात्र 05 बैठकें हुई हैं और उक्त संस्था को राष्ट्रीय न्यास ने उत्तराखण्ड के पर्वतीय एवं दुर्गम क्षेत्रों में अति विशिष्ठ कार्य के लिये 2011 का पूरे देश के सर्वोच्च पुरष्कार से नवाजा। क्या यह उचित था? उत्तराखण्ड सरकार एवं राष्ट्रीय न्यास ने आपत्ति के बाद भी कोई सुधार नहीं किया। कौन है जिम्मेदार? सृजन स्पास्टिक सोसायटी के राष्ट्रीय न्यास एक्ट के उत्तराखण्ड के विश्लेष्ण के आधार पर आयुक्त विकलांगजन उत्तराखण्ड ने अपनी एक रिर्पोट (संख्या 153/आ0नि0ज0/2011, दिनांक 16जुलाई 2011) केन्द्रीय सरकार एवं राज्य सरकार को उचित कार्यवाही हेतु प्रस्तुत करी। रिर्पोट की मुख्य आख्या निम्नवत है।
“सैन्सैक्स 2001 के अनुसार 20,000 प्रादेशिक मानसिक विकलांग व्यक्तियों को पुर्नवास करने में प्रादेशिक सरकार नाकाम रही है। रैफल/स्टेट नोडल एजेंसी सैंटर भी राष्ट्रीय न्यास एक्ट के कार्यों को प्रदेश में लागू करने में नाकाम रही है। प्रदेश के स्वास्थ्य-समाज कल्याण, महिला एवं बाल विकास और अन्य विभागों में समन्वय स्थापित करने में नाकाम रही है। मानसिक विकलांगों के लिये आवाज उठाने में एवं उनके लिये एडवोकेसी करने में नाकाम रही है। अभिभावक संघ बनाने में कभी भी सहयोग स्थापित नही किया। नैदानिक मनोवैज्ञानिक द्वारा मानसिक विकलांगों का कभी भी परीक्षण नहीं करवाया और सरकार के साथ मिलकर एसे व्यक्तियों के लिये कोई पैनल भी नहीं बनाया। कुष्ठ रोगियों के लिये एक सामुहिक घर चलाते हैं पर वहां के कुष्ठ रोगी दर-दर भीख मांगते हुए पाये गये हैं। रैफल संस्था के साथ स्टेट नोडल एजेंसी का अनुबंध करने से पहले राष्ट्रीय न्यास कार्यालय ने राज्य सरकार से कुछ भी नहीं पूछा। एंसी संस्थाओं को स्टेट नोडल एजैंसी बनाने के लिऐ कौन है जिम्मेदार?
समाज कल्याण एवं अधिकारिक मंत्रालय भारत सरकार एवं उत्तराखण्ड शासन द्वारा समस्त जनपदों के मुख्य चिकित्साधिकारियों को विकलांग प्रमाण पत्र बनवाने के लिये लिखा जाता है। कानूनों के तहत हर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र/प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर विकलांग प्रमाण पत्र बनने चाहिये। विकलांग प्रमाण पत्र धारक पेंशन का पात्र 18 वर्ष के ही बाद बनता है, तो विकलांग प्रमाण पत्र उससे पहले क्यों बनता है? बालक के पैदा होने के बाद जैसे ही मालूम पडता है कि वह विकासीय विलंबता का शिकार है, प्रादेशिक सरकार के कार्यालय, जो बालक के विकास के लिये जिम्मेदार हैं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा एवं सुरक्षा, अपने-अपने कर्मचारियों व अधिकारियों के द्वारा उसके रूके हुए विकास में हस्तक्षेप करके उसे सही अवस्था में लाने का भरसक प्रयास करेंगें। यह कार्यक्रम बालक के ठीक होने तक काम करेगा। यदि लाभार्थी 18 वर्ष तक ठीक नहीं हो पाता है तब सरकार उसे विकलांग मानते हुए भविष्य में पंेशन देगी। तो क्या समूचे देश में और हमारेे प्रदेश में विशिष्ठ बच्चों पर अति शीघ्र हस्तक्षेप पर कोई काम हुआ? कौन है जिम्मेदार? अपने पत्र संख्या.क्र0-1/67/रा. न्यास/2012/ दिनांक 25/09/2012 में राष्ट्रीय न्यास ने श्री बची सिंह जीना निवासी ज्योलीकोट को सूचित किया है कि 100 प्रतिशत प्रमाणित विकलांगता वाले अभ्यिर्थी “सरकारी सम्पत्ति के अन्तर्गत आते हैं”। यदि यह सही है तो हमारेे प्रदेश के ग्रामीण एवं दुर्गम क्षेत्र में रहने वाले 100 प्रतिशत प्रमाणिक विकलांगों की हिफाजत सरकारी सम्पत्ति, जैसे ताजमहल, लालकिला, केन्द्रिय एवं राज्य मंत्रियों की तरह क्यों नहीं की जाती है? कौन है जिम्मेदार मेरे विशिष्ठ बच्चों के साथ जो खिलवाड़ कर रहा है?
ज्ञान, रोजगार और धन तीनों में देहात के विकलांग क्षीण होते जा रहे हैं। उनके विकास एवं पुनर्वास हेतु नियम एवं कानून की निर्मित संस्कृति नष्ट हो रही है, और प्रादेशिक विकलांगों एवं उनके अभिभावकों की संख्या असहाय बनती जा रही है। समाज एवं समाज को बनाये रखने वाले सभी वर्गों का बोझ अंत में देहात के विशिष्ठ बच्चों के अभिभवकों पर पड़ता है। 75 प्रतिशत ग्रामीण एवं दुर्गम क्षेत्रों के विकलांगों को देखते हुए, ग्रामीण एवं दुर्गम क्षेत्रों में सुख सुविधाओं का आकलन करके हमें एवं सरकार के विभागों को अपना कार्यक्षेत्र देहात में भी ढूंढना चाहिये। देहात में से कर के रूप में निचोड़ कर लाया गया धन और अभिभावकांे की कार्यशक्ति को फिर से देहात की तरफ मोड़ना होगा। विकलांगों के पुनर्वास एवं विशिष्ठ बच्चों के विकास हेतु समाज, राज्य व केन्द्रीय सरकार को ग्रामीण और दुर्गम क्षेत्रों में पर्याप्त संख्या में व्यावसायिक कार्यकर्ताओं को भेजना चाहिये, ग्रामीण, दुर्गम क्षेत्रों एवं देहातों में कार्यरत संस्थाओं को शक्तिशाली बनाना होगा। समाज, राज्य व केन्द्रीय सरकार को पीपल के सूखे पत्ते की तरह अपने रूख को बदलना होगा, जो कि किसी भी काम का नहीं होता। सभी को मिलकर अपना रूख मेंहदी के पत्तों की तरह बनाना होगा, जो सूखने के बाद भी हथेलियों को एक रंग से भर देती हैं। उत्तराखण्ड में विकलांगों एवं विशिष्ठ बच्चों की विवशता को देखकर कुमार दुष्यंत की कविता याद आती है
मेरे देश में एक आदमी है /जो रोटी बेलता है/मेरे देश में दूसरा आदमी है /जो रोटी खाता है/मेरे देश में एक तीसरा आदमी भी है/वह न तो रोटी बेलता है, न रोटी खाता है/वह रोटी से खेलता है/मैं पूछता हूं /यह तीसरा आदमी कौन है/मेरे देश की संसद क्यों मौन है?