अब त उठा गढ़वाळियो !

 


                                 


अज्जकाल कलम कम ही चलणी छ, काफी बगत सुद्दी बर्बाद ह्वे  जांद ,छवीं बत्थौं अर ब्यूंत विचार मा । छवीं बत्थौं अर ब्यूंत विचार तैं विद्वान अपड़ी अपड़ी समझ अर सुविधा हिसाबन लिंदीन ,कुछ छवीं बत्थौं अर ब्यूंत विचार तैं छवीं बत्थौं अर ब्यूंत विचार रूप मा लिंदीन ,त  कुछ  घपरोळ त कुछ बकैती - बकलोळी रूप मा । खैर छवीं बत्थौं अर ब्यूंत विचारौं मि पुराणु मरीज छौं,येकु बि इन्नी  चस्का हूंद जन्न नेतागिरी कु, मंच- माला अर मैकौ  हूंद ।


मि पैदाइशी छवीं बत्थौं अर ब्यूंत विचारौं प्रेमी छौं ,स्कूलोंम  मैक कब्जौंणु गुरुमंत्र मीन अपड़ि पैली पाठशाला मा अपड़ा गुरु अर गढ़वाल सभा सहारनपुर का पूर्व अध्यक्ष स्व मनोहरलाल ध्यानी जीक स्नेह आसिरबादन्  तब्बि  सीखी याल छौ जब मीन प्रवासी दुन्यौ असमान मा  नै नै उड़ान भोरणी सीखी छौ अर मि हिंदी बि अक्वै  नि बोली समझी सकदू छौ,मितैं अज्यूँ तलक बि याद छ ध्यानी गुरुजीन  बोली छौ जब बोल्दु छै ना ब्यटा कै विषय फर त सामणि  यू ना देख  को छ बैठयूं ? कतगा बडू आदिम छ ? बस इन्न समझ खाली त्वे तैं सुणणौ  कु ही छन् बैठ्यां सब ,यू तेरि कळा फर  छ कि  वू कब तक रैंदी बैठ्यां।


वेक बाद मीन इन उड़ान भोरि कि  स्कूल, कालेज, यूनिवर्सिटी कक्खि  बि मितैं मैक खुणै  प्रपंच अर जुगाड़ नि कन्न प्वाडा पर माळा से मि सदानि दूर ही रौं ,ईं से म्यारू बस सिर्फ जयमाळा दिनौ ही रिश्ता रै ।  ईश्वर साक्षी छ कि मीन जिन्दगी मा वेक अलावा कब्बि कैका नौ लेकि माळा  नि जपीं,ना सच्ची ना झूठी  ।


ध्यानी गुरुजी से एक बात हौरि जु हमुन सीखी वो छ सवाल खडा कन्नु  ?


वू जब पढौंन्दा छाई त वेक बाद जोर दिंदा छाई कि अब सवाल पूछा  ? कब्बि कब्बि त मार बि  खाण पोडदी छाई हमुतैं  कि सवाल क्यों नि पूछणा ?


गुरु जीकु  बुन्न छौ कि अगर तुम सवाल नि कन्ना  त मैंन समझी लिण कि  तुमतें सब समझ आई ग्ये ये विषय फर , फिर मीन सवाल कन्न ,अगर जबाब नि देला त फिर अपड़ि खैर मनैंया ?


खैर सवाल जब खड़ा हुदींन  त अच्छा अच्छा लोगों का हत्थ खुट्टा अडगटे जांदिन ,कुछ लोगों का गिच्चा तक ट्याडा ह्वे  जांदिन  बस सवाल ढंग कु हुण चैंद।


स्कूलै बाबु से लेकि प्रिंसपल साहब तक,तसीलदार से लेकि डी एम साहब,पार्षद, विधायक, सांसद,चांसलर,रजिस्ट्रार,कण्ट्रोळै दुकनि दुकनदार से लेकि जिला आपूर्ति अधिकारी ,सरकरी डागटर से लेकि मुख्य चिकित्साधिकारी अर कंपनी का चपडसी से लेकि सी ई ओ,बड़ा बड़ा साहित्यकारों से लेकि लोकभाषा आन्दोलनकारियूँ  तक का तजुर्बा का बाद एक बात  मी डंकै चोट फर बोली सकदू,सवाल ढंगौ हो त अच्छा अच्छौं  हवा खराब ह्वे  जांद,चिट्ठियों फर चिट्ठी भेजिक बि जवाब नि मिलदू साब ।


छवीं बत्थौं अर ब्यूंत विचार से पैली म्यारु एक हौरि पुराणु प्रेम  छ जैतैं ये सूरत शहर मा खुज्यान्द खुज्यान्द अपड़ि निजी किताबौं थुपडों बटि  भैर निकलिक मि पहुंची ग्यो  साब सूरत महानगरपालिकौ  केन्द्रीय किताबघर मा । सदस्यता लीणा बाद अब खूब छंद आणु अर इन्न लगणु जन्न म्यार पंच्यां अंगुला घ्यू मा अर मुण्ड भदोला मा हो। अब आप सोचणा ह्वेला अब आज इन्नी बि  क्या बात ह्वे कि मि अद्धारति मा लार्ड रिपिनै रचना करण वळा स्व लीलानंद कोटनाला जीक आत्मा तैं सम्लौंणु छौं अर हर्बी हर्बी स्व रतूड़ी जीक आत्मा तैं  सम्लैंकि धाद मन्नू छौं - उठा गढ़वालियो !


अब गढ़वाळि समाजै अर साहित्यकारों नींद खराब ह्वोली या नि ह्वोली  पर कुछ दिनों से मेरि त भै भारी नींद बिचलीं  चा।


जबारि हमारा सांसद श्रीमान बलूणी जी धै लगाणा छाई कि भारे अब्बा दा इगास अपड़ा अपड़ा गौं मा मनौंण त तबारि सरकरी फर्मान जारी ह्वे  ग्येनि बल इगास तुम जब मनैला तब मनैला पैली झट्ट छठ मनावा। भोल बल उत्तराखण्डे छुट्टी रैली ,झणी क्यो उत्तराखण्ड सरकार सदानि पहाडै छुट्टी कन्न फर तुलीं रैन्द ?


पर मेरि नींद छठै छुट्टीन थोड़ी बिचलीं चा ।असल मा ये किताबघर देखी मितैं भारी खुशि ह्वे  अर इतगा खुशी ह्वे  कि म्यारु सीना बि   56 इंची ह्वे  ग्ये  किलैकि किताबघर  कु नौ ही इन्नी छौ कि सुणिक कै बि भाषा साहित्य प्रेमी कु मन खुश ह्वे जौ। जी हां ये किताबघरौ  नौ एक कवि का नौ फर छ अर ना केवल नौ बल्कि ये भव्य किताबघर मा कविराजै मूर्ति अर रच्याँ साहित्यौ दर्शन कैकी मन खुश ह्वे ग्याई। मितैं यख आण फर भारी खुशी हूंद नौ छ कवि नर्मद केंद्रीय पुस्तकालय।


नर्मद जी गुजराती भाषा का आधुनिक साहित्य का जनक छन, आधुनिक युग मतलब नर्मद युग। ना केवल सूरत बल्कि सर्या गुजरात मा कवि नर्मदौ नौ बड़ा आदर भाव दगड़ि लिए जांद। सन 1833 मा सूरत मा पैदा ह्वे छाई नर्मदाशंकर लालशंकर दवे। गुजरात्यौ  युग प्रवर्तक साहित्यकार बिल्कुल वि आदर ठौ  जु हिंदी मा भारतेन्दु जिकु छ। कुशल वक्ता,समाज सुधारक अर विद्धवान साहित्यकार अर कवि श्रीमान नर्मद जी। क्या गद्य क्या पद्य ,साहित्यौ  कुई फांगी नर्मद जीन इन्नी नि छोड़ी जख वूकी कलम नि चली हो। हिंदी तैं राष्ट्रभाषा बणाणौ विचार बि नर्मद जीक ही देन छौ।


22 सालै उमर मा अपड़ि पैली रचना रचण वळा नर्मद जीन कब्बि  गुजराती मा महाकाव्यौ सुपिन्या देखा छाई इलै नर्मद जी तैं 'आधुनिक कु मूल ' बोले जांद। कवि नर्मद जौंन गुजरात कु राज्य गीत 'जय जय गरबि   गुजरात' लिखी,जौंन 1500 पंक्तियों मा काव्य 'हिन्दुओनी पदवी ' लिखी,जु गुजरात्यौ पैला निबन्धकार छाई जौंन 'मारी हकीकत' नौ से पैली गुजराती आत्मकथा लेखी अर जु गुजराती का प्रथम कोश निर्माता छाई जौंन सामाजिक ऐब -दोषों  खिलाफ 'डांडियों' पत्रिका निकाली अर 'बुद्धिवर्धक सभा ' तकै  स्थापना करि । वीर रसै  कवि नर्मद का नौ फर चौक से लेकि किताबघर , सम्लौंण्या ठौ  ठिकाणा ,अर दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय तक छन । लगभग ये ही दौर का वार  ध्वार ईसाई मिशनरयुन बाईबिल (न्यू टेस्टामेंट) कु गढ़वाळि  मा अनुवाद करिक अनुवाद की पवांण लगैकि हम गढ़भाषा साहित्य प्रेमियूँ तैं कृतार्थ करि। नर्मद जीक जन्म का  लगभग एक दशक बाद लीलानंद कोटनाला अर फिर हैंका दशक मा जल्मयाँ हरिकृष्ण दौर्गादत्ति अर महंत हर्षपुरी जी गढ़वाळि साहित्य मा बीज - बिज्वाड लगैकि नै फसल पात त्यार कन्ना छाई,गढ़वाळि  साहित्य मा विकासै सुपिन्या देखणा छाई,नै नै गाणि कन्ना छाई। मतलब गढ़वाळि कवितौ उद्भव हुणि बैठी ग्ये छौ। ये दौर मा हरिकृष्ण दौर्गादत्ति जीन 1875 का वार ध्वार गंगा चंपक , चेतावनी,प्रार्थना अर शिक्षक रचना करी  त जयकृष्ण  दौर्गादत्ति जीन 1884 मा वेदान्त सन्देश कु सृजन करि। येका बाद 1876 मा ' गास्पेल आफ मैथ्यू ' कु गढ़वाळि  अनुवाद छपै।


 ज्वा गढ़वाळि  भाषा गढ़वाळै राजभाषा रै,जैमा राजाओंन् शिलालेख लिखिंं,घण्टालेख लिखिंं,ताम्रपत्र दीं, दानपात्र दीं, फर्मान जारी करिं, चिट्ठी-पत्री लीखिन्,जैमा पंडित गोविन्द प्रसाद घल्डियाल जीन 1901 मा 'हितोपदेश' कु 'राजनीति पैलो भाग ' नौ से गढ़वालि अनुवाद करि अर 1905 मा विश्वम्भर दत्त चन्दोला  जीन ' गढवाली पत्र ' शुरू करि अर जै भाषा मा छतपुत्त रंगैकि 1905 मा सत्य शरण रतूड़ी जीन राष्ट्रप्रेमे धाद मारी छाई -


'उठा गढ़वाळियो,अब त समय यो सेणा कु नि छा


तजा ईं मोह निंद्रा कु,अजीं तैं जु पड़ी  छ '


लम्बा चौड़ा कालखण्ड मा ग्वाई लगैकि,हिटदा हिटदा, फलदा फूलदा आजै ये दौर मा अब्बि  तलक बि हम  गढ़वालि लोग अर खासकर गढ़वालि लिख्वार सियाँ छन, बौंहड पोड़याँ छन,हरकणा फरकणा,हिसोरणा,लमडणा त जरूर छन पर उठणौ  कत्तै त्यार नि छन ।


हे प्रभु क्या हमुन 1906 मा हरिकृष्ण जीक अर 1910 मा सूरदत्त सकलानी जीक  ' चेतावनी ' सैद  ठीक से नि पैढ़ी सुणी जु हम गढ़वाळि लिख्वार अर हमारु    समाज अब्बि  तलक बि  फसोरिक  सियूँ लगणु छ, 1921 मा आत्माराम गैरोला जीक "सदेई -एक जाग्रत स्वप्न ' पैढिक बि  क्या हमारि आत्मा नि जग्गी जु गढ़वाळि भाषै अर लिख्वारों हालात देखिक बि  हमुतैं  कळकळी नि लगणि । गढ़वालि किट्स प0 चंद्रमोहन रतूड़ी जीक  ' विरह बसन्त विलाप '  हम लोगोंन इतगा सुणी कि हम लोग अज्यूँ तक पलायन फर ही विलाप कना छौ ,समाधान फर हमारि कलमैं स्याही क्यो सुख ग्याई ? उन्न त मंच ,माला,मैक अर कौथिगों से हमुतैं  फुर्सत बि कख मिलणी ह्वेली  ?  मि 'गढ़वाल का सच्चा कवियों से प्रार्थना ' करदु कि हे छुचो हमुन पलायन का गीत भौत लगै यलिं अब हमुतैं जरा गढ़वाल,गढ़वाळि ,अर गढ़वाळै समस्याओं समाधान फर बि कुछ ध्यान लगाण चैन्द  ,प्रभु तब्बि  मिललु 'दरबान सिंह कु विक्टोरिया क्रॉस' हमुतैं ।


हे प्राणप्रिय ,ह्रदय मा विराजमान गढ़वाळि  कथाकारों सन 1913 मा सदानन्द दाजीक लग्यां 'गुन्दुरु कौंका स्वाला ' रस्कैकि मनयाँ ' गढ़वाळि  ठाठ '  हम क्यो बिसरी ग्यो ? हे म्यारा गढ़देशियो,गढ़वाळि  भाषा साहित्यै ' जुन्यालि रात ' मा बि  हमुन  'बुरांश की पीड़' क्यो  नि जाणि ? सर्या दुनिया सामणि  गढ़वाळि  तैं बोली बोलिक कमतर अंकण समझण वळा हे विद्धवान गढ़वाळि  मनखियों हमुन ना गढ़वाली कथा साहित्यै जोन देखी ना ' जुन्यालि रात ', इनमा हमुन देखण त छोड़ा पुछण बि क्यो छाई कि आखिर  ' जोनि फर छाप किलै ' ?


 हे गढ़वाळि का श्री पट्टी अर फट्टी  धारी, मंचावतारी कलमकारों , बिना ' एक डुंडा खच्चर की कथा ' लग्यां बिगैर गढ़वाळि भाषा साहित्य का ' लुगत्या बछुर ' बोड हमुन  कन्नुक्वे सम्भलणि -स्वरणि ? जरा बतावा त सै ? गढ़वाळि  साहित्य का अपड ' ढांगा से साक्षात्कार ' बि  हमुन  क्यो कन्न अर कराण? अपड़ा लुगत्या बछुरौं तैं ' एक ढांगा आत्मकथा'  बि  हमुन क्यो अर कब सुणाण ?


हे मंचासीन,पुष्पार्पित,माल्यार्पित, लिफफ़ाधारी समर्पित लिख्वारों हमुन अपड़ा पुरखों तैं इन्न बणवास क्यो दियूं ? इन्न दुःख त ' सीता बणवास '  मा राम जीन अर सीता माता जीन बि नि सै , हे  'नागखेत कु नागदेव' ह्वेलि  तू सच्चु त कब्बि  त खत्म ह्वोलु  यू साहित्यिक बणवास ।


हे गढ़वाळि साहित्यौ 'कोठभितर्या ' लिख्वारों कब्बि  कोठा भैर बि  त देखा । देखा गुजराती साहित्यौ आज कख्यौ कख पहुंची ग्ये । क्या दशा दिशा छ वींक ? चौक मा लग्गिं गुजरात गौरव कवि नर्मदै मूर्ति मितैं यख रोज धै लगाणि छ -'उठा गढ़वाळियो ! ' ,' उठा गढ़वाळियो !


क्यो केंद्रीय पुस्तकालय बटि कवि नर्मदै मूर्ति धै लगाणि छ हे गढ़वाळि साहित्यौकारो कख छन आपक पुरखा ? हम वुतैं कन्न बिसरौं पट्ट कैकी ?


वीर नर्मद दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालयै  गेट बटि दुख्यारि जिकुड़ी कैकि  कवि नर्मद सवाल कन्ना छन - हे हिमालयपुत्रों हे देवभूमि का म्यारा भै बन्धो ,हे गढ़वाळि साहित्यौ  'बुद्धिवर्धक सभा ' का धर्माधिकारियों यू नौ निसाब तुमन ठीक नि कै अपड़ा पुरखों अर म्यार दगड़ियों दगड़ि ?


हे गढ़वाळि साहित्यौ  कुकुटध्वजों,कब खत्म ह्वोलु  यू अन्ध्यरु,कब खत्म ह्वेलि  या रात ? आँखा खोला अर भैर देखा ' कुरेड़ी फटैगी' कि  ना ?


कब ह्वेली हमारि साहित्यिक ' चंद्रैण ' ?


हे 'गैत्री की ब्वै' , हे 'सुम्मी' ,या 'अमिथ्या' कब खत्म ह्वेली  ?


कब ह्वोलु  नौ निसाब ?


हे ' धार माकि गैणी ', हे ' ब्वारी ',हे ' म्वारी ', कन्न कपाल लग्ग या गढ़वाळि   साहित्यै ' गारि ' ?


हे गढ़वाळि  लिख्वारों छुचो कुछ त बतावा 'म्यारी मूंगा कख ह्वेली ' ? कन्न ह्वेली  ?


हे आठवी अनुसूचि का लोकभाषी झंडाबरदारों कब ह्वेली अर कन्न ह्वेली  हमारि ' जय विजय' ?


जब ह्वेली तब ह्वेली ' जय विजय' पर हे विद्ववान आन्दोलनकारियूं ! पैली आप अफ्फु तैं लोकभाषा साहित्यकार अर गढ़वाळि तैं लोकभाषा लिखणु बोलणु बंद करा भै । गढ़वाळि फर लोकभाषा कु जैकु बि यू स्टिगर चिपगैयूँ ये स्टीकर तैं उतारिक अपडू अपडू साहित्यिक चंद्रैण कैरिक पैली आप लोग गढ़वाळि  भाषा साहित्यकार बणा, किलैकि  लोकभाषा कु स्टीकर, झण्डा,बिल्ला लगैकि आठवी अनुसूची की मांग कन्नु गढ़वाळि  साहित्यकारों दुमुख्यापन्न छ। पैली त आप गढ़वाळि भाषा साहित्यकार बणा गढ़वाळि लोकभाषा का ना।


हे मंचासीन ' गढ़वीरों ' हे म्यारा 'गढू सुम्यालौ' पैली गढ़वालि भाषा साहित्यै विकास 'बाट कि गोडाई' करा नथिर हमारि 'रामी बौराणी ' का स्यार पुंगड़ा सब्बि बंजै जणि। हे मंचीय 'पाखा घसेरी' एक दा दुबारा 'सिंहनाद' करा। हे पुराणा 'मौछंग'धारी आजै मंचावतारी याद करा लाहौर का अपड़ा भाषा साहित्य प्रेमी पुरखों तैं जौंन 'गढवाली साहित्य परिषद ' मा 'गढ़वाली भाषा गवेषणा समिति' बणैकि गढ़वाळि कु पैलु शब्दकोश बणै छौ। हे भाषा आन्दोलनकरियूं हे साहित्यकारो याद करा,'गढवाली साहित्यौ परिषद,लाहौर' तैं,याद करा 'गढ़भारती (दिल्ली )' तैं,'गढ़वाली प्रचार मण्डल ( इन्दौर )' तैं , 'गढवाली साहित्यौ मण्डल ( दिल्ली )' तैं,'गढवाली साहित्यौ कुटीर (मंसूरी)' तैं अर गढ़वाली तैं । याद करा गढ़वाळि शब्दकोशै  सब चुलै पैली गाणि कन्न वळा स्व प्रो बलदेव प्रसाद नौटियाल जी तैं,गढ़वाळि  भाषा व्याकरण लिखण वळा स्व रामप्रसाद भट्ट जी तैं।


हे गढ़भाषा विद्ववानों आज या नौबत क्यो आणि छ? क्यो आज एकदा फिर 'गढवाली साहित्य की भूमिका ' दूबर से देखण, सोचण अर पढ़ण पोड़णी चा ?


हे मेरि खोपड़ी ,'क्या गोरी क्या सौंली'


हे भै हम उल्टा खूट्टों क्यो हिटणा ?


ज्वा बात लोग राजशाही टैम नि बोल्दा,लिखदा छाई हम आज बीसवी सदी मा बोलिक लेखिक अफ्फु तैं बडू लोकभाषा आंदोलनकारी क्यो चितौणा छन ?


ज्वा बात हमारा  साहित्यिक पुरखा 65 साल पैली 'गढ़वालि साहित्य की भूमिका' मा नि लेखी वेका वास्ता हम लोकभाषा आंदोलन लिखणा अर जु बात वून लिखी,छांल छांट कैरिक साफ करि वा बात ना हम बोलणा, ना बिंगणा,ना कन्ना आखिर क्यों भै ? भाषा संस्थान अर साहित्य अकादमी का 'गढ़वाळि  भाषा सम्मान' अर पौड़ी मा उर्रयाँ 'गढ़वाळि  भाषा सम्मेलन' का बाद बि अगर हमारि गढ़वाळि तैं गढ़वाळि लोकभाषा ल्यखणै लत्त नि छूटणी क्या या शर्म की बात नि छ ?


हमारि बस  द्वी बात ही अंठा धैरीं छन, लोकभाषा आन्दोलन अर आठवी अनुसूची । हे भै पैली आजै गढ़वाळि भाषा साहित्यै दशा दिशा त देखा । क्या हम उल्टा खुट्टों नि हिटणा ? कतगा हम पढदों, कतगा छन अर कख छन गढ़वाळि  साहित्यौ  पाठक,कतगा छन हमारा बोलण वळा अर कतगा छन हमारा किताबघर  ,साहित्यौ करा जरा हिसाब किताब ल्यावा ज़रा लेखा जोखा पिछला द्वी दशक कु ? कक्खि  मंच,माला अर मैक ,अखबार अर सोशियल मीडिया तक त सीमित नि ह्वे  ग्यो हम ?  बोला क्या करि अपड़ा पुरण साहित्यकारों भगीरथ योगदान तैं सम्लौंण वास्ता हमुन  ? क्या करि हमुन अर हमारा समाजन ? कतगा दुर्लभ अर अप्रकाशित साहित्यौ खोजिक प्रकाशित करिं,कतगा समग्र प्रकाशित करीं,क़तगा स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित करिं। क्या छ हमारि साहित्यिक पुरखों पछ्याण समाज अर दुन्या बि  च मा ? बतावा कतगा हमारा पुरखों का नौ फर चौक छन, कतगा वूंंकी मूर्ति,कतगा किताबघर अर कतगा सम्लौण्या ठौ ठिकाणा   ?


मंच,माला अर साहित्यिक आत्ममुग्धता मा हम इतगा लीन ह्वे  ग्यो कि अपड़ा आम समाज तै नै पीढ़ी तैं इतगा बि नि बतै सका कि कु छाई स्व शिव प्रसाद डबराल 'चारण' , कु छाई स्व गोविन्द 'चातक' अर कु छाई स्व गुणानन्द पथिक, कु स्व छाई भजन सिंह ,कु छाई स्व सुदामा प्रसाद प्रेमी कु छाई स्व भगवती प्रसाद जोशी हिमवंतवासी,कु छाई स्व हरिदत्त भट्ट ,कु छाई स्व मोहनलाल  बाबुलकर अर कु छाई स्व पूरण पन्त 'पथिक'।


क्या छाई युंक गढ़वाळि भाषा साहित्य मा योगदान ?


हे छुचो !  हौरि त हमुन बिसरि बिसरि पर हम इतगा खुदगर्ज कन्न ह्वे सक्दो कि हमुन अपड़ा प्रिय भै  बी० मोहन नेगी जी तैं बि दुःख मा यखुली छोड़ि दे ,क्या स्व बी० मोहन नेगी कला ,संस्कृति अर साहित्यौ हमारू एक ज्युन्दु  जागदु अर चल्दु फिरदु संस्थान नि छौ  ? क्या जैं गढ़वाळि साहित्यौ हमारा अपड़ा अपड़ा झण्डा अर डण्डा खड़ा कर्यां ,वीं दुन्या मा स्व बी० मोहन नेगी जीकु कै से कुछ बि कमतर योगदान रै ह्वोलु  ? इन्नु कु साहित्यकार अर कवि ह्वोलु  जैकी कविता बी० मोहन नेगी जी अपड़ा पोस्टर मा नि रंगी सका ह्वोला  ? झणी कतगा पोथियूं का मुखपृष्ठ तैं बी० मोहन नेगी जीक कुँची कलमन दड मिली ह्वोलु  ?


आज बि जब हम यूँ पोथियूँ  तैं अपड़ी जिकड़ी लगैकि पढ़णा छौ त आखर चाहे जैं बि  कलमन निकल्याँ हो पैली अन्वार जिकड़ी मा स्व बी० मोहन नेगी जीक ही आन्द ,पर बी० मोहन नेगी जीन ना कब्बि अफ्फु तैं भाषा साहित्यौ आन्दोनकारी अफ्फु घोषित कै ना कब्बि कन्नै कोशिश करि, फिर्बी आखिर इन्नु क्या ह्वे कि हमारि आँख्यौं पाणि अर कलमै स्याही द्वी, बी० मोहन नेगी जीक नौ फर पट्ट सुखी ग्यीं ?  सैद दुन्या कवितौं तैं रंगण वाला बी० मोहन नेगी जी कुछ लोगों की जिकुड़ी अपड़ा प्रेम मा नि रंगी सका ह्वोला कि ? माफ़ कर्यां भैज्जी हम आपै साधनौ मोल नि समझी साका हम अपड़ा  झण्डा डण्डा आपै कळा  सम्मान मा तक नि झुकै लुकै साका।


 


ई  कैकी गलती छन  समाजै या  साहित्यौकारो/बुद्धिजीवियूँक   ? भै समाजै ऐना त साहित्य ही हूंद कि ना ? त निकाला भै भैर अर दिखावा समाज तैं ऐना ? पर पैली वे ऐना मा हम सब्यूँ तैं अपड़ि अपड़ि अन्वार बि जरूर देखण चैन्द। याँ से काम सौंगु जरूर ह्वोलु ?


हे म्यार पूज्य गढ़वाळि कवियों जरा बतावा धौं ईं दुन्यो  सबसे आत्ममुग्ध प्राणी को ह्वोलु ?  ईं आत्म मुग्धता का आत्मकेंद्रित दोलणो बटि भैर निकली ज़रा दुन्या देखा,दुन्या साहित्य पढ़ा अर दुन्या नि त कम से कम अपड़ा दगड़ियों कु लिखयूं साहित्य त पैढा। या सप्रेम भेंटणे ज्वा बढ़िया परम्परा छाई ,द्वी आखर लेखिक ईं परंपरा कु सम्मान करण त सीखा । छुचो आलोचना ही सै कुछ त लिखा। बुरु मन्या चाहे भलु गढ़वाळि  तैं जतगा जरूरत लिख्वारौं  छ वे से ज्यादा जरूरत पढ़णै ढब रखण वलौं ,साहित्य तैं आदर दिण वाला साहित्यकारों कि  छ ।  हे गढ़वीरों, ' तू मेरि पीठ खज्यै मि तेरि ' परम्परा से भैर निकला नथिर हमन एथिर नि बढ़णु। दुन्या आपै साहित्य अर साहित्यकारों कु आदर सम्मान तब करली जब करली पैली आप लोग त अपड़ा साहित्यौ ,अपड़ि भाषा अर अपड़ा अग्रज साहित्यकारौं  सम्मान करा,दिवंगत साहित्यकारों तैं सुमिरण करा।


हे दशकों बटि अफ़्फ़ु तैं अफ्फी आंदोलनकारी घोषित करण वळा प्रथम पूज्य प्राणीयों ,ना बिसरा कि  अपडू मुण्ड अफ्फी नि मुंडेन्दू ,प्रभु आत्म प्रचार का ये गिजार ये कीच बटि भैर निकलिक अपड़ि जिकुड़ी जाला साफ कैरिक,मन तैं न्वा-धुँवा अर तपैकि लक्ष्य फर सोर नमान लगावा ,अपड़ा अग्रज -दिवंगत साहित्यकारौं नौ सुमिरण करा,अफ़्फ़ु तैं माध्यम माना कर्ता ना, त कन्न नि ह्वोलु सबकु कल्याण ।


 


हे कवि श्रेष्ठ ! गीतों अर कविताओं का ,फूलों से लकदक सज्याँ मंचो,गुलदस्तों,फूल माळाओं , लिफफों अर मैक मोह तैं छोड़िकी जरा मंच बटि उतरी धर्ती मा अपड़ि फूल सी कुंगली खुट्टी धरिक जरा सी ध्यान अफ़्फ़ु फर, अपड़ा साहित्य सृजन फर अर साहित्यिक अध्ययन फर बि धैरा दी,


 क्या सिर्फ मंच अर मंचो की वाह वाह से ही बचण गढ़वाळि  भाषन ? क्या खाली याँ से मिली जैली हमरि भाषा तैं मान्यता वी 8 वी अनुसूची मा जैकी माँग का लेबल हम सब्यूँन् अपड़ि रचनाओं की फेसबुकी दुन्यौ  दिवालों फर सब चुलै पैली लोकभाषा आंदोलन दगडी अर आखिर मा अपड़ा नौ का मूड लोकभाषा साहित्यकार लेखीक मजबूती से चिपग्यां छन,यू लोकभाषा कु फेविकोल इतगा मजबूत छ कि कुछ कविश्रेष्ठ जु अफ्फु तैं मानस का रचयिता पूज्य तुलसीदास से बि बडा कवि समझदिन ये फेविकोल से पट्ट अंग्वाल बोटिक बिल्कयाँ छन अर समझै समझै कि बि  नि समझ सकणा छन।


हे मा सरसुती का साधको ! इन्न क्या बात छ कि यूँ भव्य अर सुसज्जित मंचों मा हम अर हमरा झंडाबरदार अज्यूँ तक साहित्यिक विमर्श तैं ठौ स्थान नि दिणा, सै बोलू त नि दे सकणा छन ।


हे जण्या मण्या गिण्या चुण्या साहित्यकारो ! जब हम सब भल्लि कै जणदो कि गढ़वाळि  मा हम अफ्फि लिख्वार छौ,अफ्फि पढ़वाक अर अफ्फि सम्पादक अफ्फि प्रकाशक, तब बि  हम  एकजुट नि व्हे सकणा,हम साहित्यकार त बण ग्यो पर साहित्यप्रेमी अर साहित्यसेवी नि बण सकणा । अलग अलग काठों डांडों मा अलग अलग नौ से हमारि अलग अलग योजना एक ही उद्देश्य वास्ता चलणी छन ,एकजुट एक मुठ ना हम कब्बि  ह्वे  साका , ना हमारि  संस्था अर समाज ।


हे परमेश्वर महाराजो !,गढ़वाळि  भाषा कु अपडू शब्दकोश हुण चैन्द सब चुलै पैली कब्बि या कल्पना 'गढवाली साहित्यौ परिषद' लाहौर का कर्मठ सदस्य प्रो बलदेव प्रसाद नौटियाल जीन करि छाई। येक बाद वूंका सयोंजन मा  ' गढ़वाळि शब्द गवेषणा समिति ' बण जैका सदस्य प0 श्रीधरानंद घिल्डियाल ,व्यकरणाचार्य प0 शिव प्रसाद घिल्डियाल अर हौरि बि  परिषद से भैर का विद्धवान जैमा प0 चक्रधर बहुगुणा जी, प्रो भगवती प्रसाद पांथरी जी, कविवर महंत योगेंद्र पुरी शास्त्री जी,प0 श्रीधरानन्द नैथानी जी अर श्री भक्त दर्शन रावत जी खास छाई। हालांकि यू शब्द कोश प्रकाशित नि ह्वे साकु।येक बाद जयलाल वर्मा जीन 1982 मा अर फिर मालचंद रमोला जीन 1994 मा दूसर गढ़वाळि  हिन्दी शब्दकोश प्रकाशित करि। फिर तीसर शब्दकोश श्री अरविन्द पुरोहित अर श्रीमती बीना बेंजवाल जीन प्रकाशित करि। फिर श्री भगवती प्रसाद नौटियाल जी ,श्री अचलानन्द जखमोला जी अर  श्री शिवराज सिंह रावत  'नि:संग' जीन  6 वर्षों  मेहनत करि वृहत त्रिभाषीय (गढ़वाली-हिन्दी-अंग्रेजी) शब्दकोश अखिल गढ़वाल सभा देहरादून का सहयोग से प्रकाशित करि। येक बाद अब्बि हाल मा बेंजवाल दंपत्ति कु शब्दकोश प्रकाशित ह्वे । गढ़वाळि समाज सदानि यूँ सब्बि कोश निर्माण कर्ताओं कु ऋणि रालु।


क्या मितैं सुद्दी 'कबलाट' हुयूं ,जैतैं आप 'कव्वा ककडाट ', समझिक सुद्दी हवा मा उडौणा ,अरे दीदा मि 'खीर मा लूण ' रलैकि खाण वल्लू आदिम छौं आपसे कुछ नि चांदो बस खाली 'एक कौंळि किरण'  ,मि त ' तिम्ळा फूल ' छौं आपन देखणु बि कन्नुक्वै छ ,पर छुचो या 'जळडा रै जांदिन ' अपड़ा जळडा कब्बि ना बिसरयाँ, हे रूपा ! मिल त त्वै खुणि 'चल रूपा' बि बोली छौ ,हे पर कख चली ग्ये तू


'गढ़वाळि भाषा अर साहित्य की विकास जात्रा ' मा 'छवीं -बत्थ ' बि   खूब लगणी छन , 'हर्बी हर्बी' 'बीं ' बरोबर ही सै पर कुछ दमदार साहित्यिक घाण बि   लगणी  छन,' दस सालै खबरसार ' बि   मिली ,२३ साल बटि बरोबर 'रन्त-रैबार ' बि मिलणा छन अर कब्बि कब्बि ' हमारि चिट्ठी-पत्री' बि जरूर आणि रैंदी पर फिर्बी जरुरत अपड़ी भाषा साहित्य फर 'अंग्वाळ ' बोटणा छ, हौरि कुछ ना सै कम से कम भै हुंगरा त दिण ही प्वड़ला नथिर गढ़वाळि  भाषा साहित्यै या 'धै' या 'धाद' कैन सुणण। 'समस्या खड़ी च ' कि हमर त 'अड़ोस -पड़ोस' मा बि  'आर -पारै  लड़ै' लग्गीं छन ,कुछ लोग छन कि  अब्बि तलक बि   'टुप्प टप्प' 'लग्यां छन' एक हम छां जु कौथिगेर बणिक रोज वी 'कुळळा-पिचकरी' कन्ना ,च्या 'पाणि' पीणा ,समोसा खाणा ,गढ़वाळि  भाषा साहित्यै जलडों फर खाद पाणि दिणे बड़ी बड़ी बत्था त कन्ना पर हमारि मैं मैं का बीच  ये भाषा साहित्यै  'डाळै बिप्दा' तक हम बिंगी नि जणणा  ,हमारि बि सदानि वी बल  'पाँच पराणी ,पच्चीस छवीं' ,बल 'हरि सिंघौ बाग्गि फस्ट ' अर बस येका बाद जो च कि हम सब अफ्फु तैं हरि सिंह ही चितौणा -बतोंणा, वे से कम कत्ते ना,हम सब्युंक अपड़ा अपड़ा हरि सिंघ छन अर सब्युंक अपड़ा अपड़ा बाग्गि छन,जु हमरा फस्ट बणयाँ छन । क्या  'अबारि अर तबारि' मा बि  हम क़्वी फर्क सचै  नि चिताणा व्होला ? 


हमर मन त सदानि आप  खुणैं 'चाठौं घ्वीड़' बणिक 'धै' लगाणु रैन्द ,कब्बि कब्बि 'धाद'  बि  मार  दिंद ,ज्यू मेरु बि बोल्दु कि मि बि  'उडी जौं अगास' पर डैर बि लगद क्यो कि मि अपड़ा खुट्टा धर्ती मा ही रखण चांदु ,कब्बि कब्बि सोच्दु कि मेरि इतगा फ़िरडा फिरडी  'कै खुणि ' खैर पैली पैली  ब्वलै वूमा ही जांद जौंसे 'आस  'हुन्द। जब लोग सुणिक बि अणसुणि करदीं तब इन्नी त बोले जांद कि 'वूंमा बोली दे' ,आपन हमर प्रेम 'अँज्वाल' तैं ना  कब्बि समझी ना कब्बि बिंगी ,हमर मनै 'उलार' मन मा ही रै ग्येनि पर आपै जिकुड़ी फर ना कब्बि प्रेम ' पराज '  लगा,ना अपड़ा मनै 'फंछी'  कब्बि आप खोली साका । सैद भाषा साहित्यौ प्रेम का 'रुद्री ' रूप से आपौ अब्बि परचो नि नथिर 'लोक का  बाना' इतगा 'उदरोळ '  'घपरोळ ' क्यो हुणु छौ ? हम बि खुश रैंदा  ,'गीत गौं का' लगौंदा ,हमरु बि क्या छ 'आंदि जांदी साँस' छ ,'बच्याँ रौला त गोर चरौला'


बक्कि  त फण्ड फूका पर येक बाद बि अगर हम अफ्फु तैं लोकभाषा गढ़वाळि  साहित्यकार बताणा त हमरु भगवान ही मालिक छ ।


 भै का सौं ,'इनमा कनकवै आण बसन्त' ,मि सुद्दी  'घपरोळ' नि कन्नु छौं ,'धाद' मारिक बुन्नू छौं ,'नाराज ना हुयाँ' ,'बक्कि तुमारि मर्जी'


हे सामाजिक संस्थाओं का पूज्य प्रधनों,प्रमुखों हम  क्यो बिसर ग्यो कि गढ़वाळि भाषा साहित्यौ विकास मा सब चुलै  बड़ी भूमिका अर मिळवाक सामाजिक संस्थाओं अर ये समाज की ही हूंण। हे प्रभु, हे म्यार प्रधान  जी ,भाषा साहित्यौ मूल मसलों फर हम आधुनिक दौर मा क्यो सुनिन्द सियाँ छौ ? क्यो सांस्कृतिक आयोजन मा बि सुद्दी हिंदी फूकणा ? आखिर क्यो ये मामला फर हम इतगा उदासीन छौ अर क्यो हमर एजेंडा साल द्वी साल मा एक सांस्कृतिक आयोजन या गीत संध्या तक सीमित छन। हे प्रभु हमुन यु क्या करि ? ज्वा किताबघर  हमर पुरखोंन् आजादी का दौर मा सभा कार्यालय मा खून पसीना एक कैरिक खोली छौ हमुन त वो बि बंद करि यली वख त जाला लग्यां। हे कन्न मोरि हमरि मत्ति ? क्यो समाजै अर संस्थै मट्टी पलित कराणा हम भै  प्रधान जी ?


प्रभु या घनघोर निराशै बात छ कि हमरि आजै संस्थाओं मा भाषा साहित्यौ का प्रति वू समर्पण संकल्प भाव नि दिखेणु जु लाहौर की संस्था मा छाई, या जु अखिल गढ़वाल सभान दिखाई  ।


हुण त इन्नु चैंणु कि सामाजिक संस्थाओं का एजेन्डा मा अपड़ि मातृभाषा मा संवाद कु नियम हो,वुंंक कार्यकारणी मा भाषा अर साहित्यिक प्रतिनिधि नियुक्त हो।अर सब्बि बड़ी संस्थाओं का एजेंडा मा अपड़ि भाषा संस्कृति ,साहित्यौ सब  पोथि जरुरी रूप से एक किताबघर मा रखे जावन ।


साहित्यिक परिषद का वार्षिक एजेंडा मा भाषा साहित्य ब्यूंत विचार कार्यक्रम उर्याणु ,दिवंगत साहित्यकारो साहित्यौ पर वूंकि जयन्ती या पुण्यतिथि पर साहित्यिकसुमिरण कन्नु ,अनुपलब्ध दुर्लभ या अप्रकाशित साहित्यौ तैं प्रकाशित कन्ना कु कार्य बि अपड़ि अपड़ि सक्या हिसाबन  शामिल हुण चैन्द। नै छवालीं तैं जोड़ना वास्ता गढ़वाळि वाद विवाद प्रतियोगिता, प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता,नाट्य प्रतियोगिता या अन्य सांस्कृतिक प्रतियोगिता कु आयोजन भाषा साहित्य संस्कृति परिषदै एजेंडा मा  शामिल हुण चैन्द ।कोशिश या बि  हो कि दिवंगत प्रमुख साहित्यकारों फर डाक टिकट , पोस्टर,कलेंडर जारी करे जाव या स्मारक आदि कु निर्माण  करे जाव ।


सामाजिक संस्था क्या केवल चुनाव अर चन्दा वास्ता छन ? 


हे भै समाज कनै जाणु ,ये तैं हम कनै लिजाणा?


दिशा को छ दिणु ? कैल दिण सार्थक दिशा?


क्या येकु ही बणि छौ हमर अलग राज्य ?


हमरि भाषा, हमरि संस्कृति हमर साहित्यौ कु क्या ह्वोलु ? 


हे छुचो कुछ त कारा भोल आण वळी पीढ़ी तैं  मुख  दिखाण च कि ना ?


हे मेरि सरकार,कुछ त कैर,कख छ हमरू भाषै संस्थान ? अरे हौरि कुछ ना त एक केंद्रीय किताबघर  ही बणै द्यावा,जिला मा जु किताबघर छन् वख  हमारि भाषै साहित्यौ उपलब्धता अनिवार्य कैरि द्यावा हे परमेश्वरा। दिवंगत साहित्यौकारों नौ फर बि  एक आद सड़क,पुल, किताबघर  या संस्था,संस्थान बणै द्यावा,वूंक  अप्रकाशित साहित्यौ तैं ही छपवे द्यावा । हे परमेश्वरा, जु काम कन्ना ज़रा कब्बि  वूंक बि ख्याल ख़बर रखा,भलु त मनेंद जब आप द्वी चार शब्द या भाषण हमरि भाषा मा खैति दिंदो।


हे माराज जी शुरू शुरू मा आपन बि भाषै मुद्दा फर खूब ताण दे खूब ढोल बजाई ,कख सियाँ छौ अज्जकाल ? क्या यु सिर्फ एक चुनावी मुद्दा छाई ?


हे गुरु भौत उम्मीद छन भै आपसे सिन्न नि करा नट्टा काम।


हमर पीड़ा तुम लोगोंन नि जणणी त कैल जणण ?


हम फर त गुरमुला उपडयां भै ?


हे तिरु दा ,हे परमेश्वरा ! कुछ त बोला ?


छुचो दिल्ली तैं देखा,जख् तुमरि सदानि नज़र रैंद


जु हमुन नि कैरी सको वू वे दिल्ली वळा उस्ताजन करि  दे,हे छुचो पर हमारा क्यो बुजयाँ आँखा ?


 हे प्रभु बखाणा ठगाणा कु ही करा पर कुछ त कैरा ?


 


अब त उठा गढ़वाळियो !