*पर्वतीय फल शोध केंद्र* का भविष्य
 




 

*उत्तराखंड ने अपने उन्नीस सालों का सफर पूरा कर बीसवें बर्ष में प्रवेश कर लिया।*

*जिन सपनों को लेकर पहाड़ी राज्य की स्थापना की गई थी वे सपने आज भी सपने बन कर रह गए हैं।* जी हां ! मैं बात कर रहा हूं ब्रिटिश शासन काल में खोले गए भारत बर्ष के शीतोष्ण फलौं के प्रथम फल शोध केंद्र चौबटिया की जो आज एतिहासिक धरोहर मात्र बनकर रह गया है। ब्रिटिश शासन काल में बर्ष 1932 में पर्वतीय क्षेत्रों में फलौ के उत्पादन सम्बन्धी ज्ञान  , जैसे पौधों को लगाना, पौधों का प्रसारण , मृदा की जानकारी ,खाद पानी देने, कटाई छंटाई,कीट व्याधियों से बचाव आदि के निराकरण हेतु *पर्वतीय फल शोध केंद्र* चौबटिया रानीखेत जनपद अल्मौड़ा में स्थापना की गई। शुरू के बर्षौ में उद्यान ,भू -रसायन,कीट एवं पौध रोग अनुभाग इस शोध केंद्र के अधीन खोले गए।शोध केंद्र का वित्तीय भार भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा बर्ष 1932 - 55 तक निर्वहन किया गया । बाद के बर्षौ में पौध दैहिकी (प्लान्ट फिजियोलाजी),पादप अभिजनन (प्लांट ब्रीडिंग),भेषज, मशरूम तथा कला एवं प्रचार प्रसार अनुभाग इस फल शोध केंद्र के अधीन खोले गए।

भारत रत्न पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त ने उत्तर प्रदेश में अपने मुख्यमंत्री के कार्य काल में पर्वतीय क्षेत्रों के विकास का सपना देखा व उसे वास्तविक रूप से धरातल पर उतारने के लिये  रानीखेत में सन् 1953 में माल रोड़ रानीखेत (अल्मोड़ा) में किराए के भवनों में उद्यान विभाग का  निदेशालय  *फल उपयोग विभाग उत्तर प्रदेश रानीखेत* की स्थापना की यह निदेशालय उत्तर प्रदेश सरकार का एक मात्र निदेशालय था जिसका मुख्यालय पर्वतीय क्षेत्र रानीखेत में स्थापित था।

डाॅ0 विक्टर साने इसके पहले निदेशक बने लम्बे समय तक समस्त उत्तर प्रदेश का उद्यान निदेशालय  रानीखेत रहा। 1974 में चौबटिया फल शोध केन्द्र के अधीन पौड़ी गढ़वाल में श्रीनगर व कोटद्वार, चमोली में कोटियाल सैंण, टेहरी में सिमलासू, उत्तर काशी में डुंडा ,देहरादून में ढकरानी व चकरौता, नैनीताल में ज्योलिकोट व रुद्रपुर अल्मोड़ा में मटेला ,पिथौरागढ़ उप अनुसंधान केन्द्रौं की स्थापना की गई। इन शोध केन्द्रौं में शीतोष्ण समशीतोष्ण फलौ ,सब्बजियौ, मसाला फसलौं पर किसानों की समस्याओं के निदान हेतु शोध कार्य किये जाते रहे हैं। सन् 1988 में उत्तर प्रदेश सरकार ने निदेशालय का भवन चैबटिया में बनाने का निर्णय लिया और सन् 1992 में यह भवन बन कर तैय्यार हुआ। बर्ष 1990 में निदेशालय का नाम *"उद्यान एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग उत्तर प्रदेश"* कर दिया गया।

शोध केन्द्रौ की राज्य बनने से पहले की स्थिति-

A. चौबटिया-

कार्य रत अनुभाग-

1.उद्यान

2.प्लानट ब्रीडिंग

3.भूरसायन

4.प्लान्टपैथालौजी  

5.एन्टोमालाजी(कीट)

6.प्लान्ट फिजियोलाजी

6.भेषज(ड्रग)

7.मशरूम

8.कला एवं प्रचार प्रसार

केन्द्र पर एक मैट्रियोलाजी औबजर्बेट्री भी स्थापित की गई जिससे मौसम में होने वाली तब्दीलियां बिशेष रूप से पाला,ओला पढ़ने ,आंधी आदि की जानकारी एकत्रित की जा सके। विभिन्न अनुभागों का संचालन ख्याति प्राप्त बैज्ञानिकौ द्वारा किया गया जिनमें डा०सुनील कुमार बोष ,डा०जितेन्द्रनाथ सेठ एवं डा० आर के पाठक जो बाद में फैजाबाद कृषि विश्वविद्यालय के कुल पति भी रहे द्वारा किए गए शोध कार्यों का आज भी समय समय पर वैज्ञानिक जगत में उल्लेख होता है। केन्द्र के वैज्ञानिकौं द्वारा पांच सौ से अधिक शोध पत्र राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय शोध पत्रौं में प्रकाशित किए गए।

चौबटिया फल शोध केंद्र आगरा, कानपुर व कुमाऊं विश्वविद्यालय से विद्या बाचस्पति (पी एच० डी ०)की उपाधि के लिए पंजीकृत किया गया अब तक 25 व्यक्तियौं ने इस केन्द्र पर शोध कार्य संपादित करके पीएच० डी० की उपाधि ग्रहण की है।

मैंने भी बर्ष 1971- 1979 तक इस शोध केंद्र पर ज्येष्ट शोध सहायक के रूप में सेवा की है तथा यहीं पर कार्य करते हुए बर्ष 1979 -80 में कुमाऊं विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। केन्द्र पर एक अच्छे पुस्तकालय की भी सुव्यवस्थित स्थापना की गयी जिसमें विभिन्न बिषयौं से संबंधित उच्च कोटि की बारह हजार से भी अधिक पुस्तकों के साथ साथ 15 देशी विदेशी शोध पत्रिकायें नियमित रूप से आती रही है। चौबटिया शोध केन्द्र से *प्रोग्रेसिव हार्टि कल्चर* के नाम से एक अंग्रेजी भाषा में त्रैमासिक पत्रिका नियमित रूप से प्रकाशित की जाती रही है जिसमें शोध केन्द्रौ में चल रहे शोध प्रयोगों के परिणाम प्रकाशित किए जाते रहे हैं। केन्द्र द्वारा अन्य पर्वतीय राज्यों हिमाचल प्रदेश,जम्बू काश्मीर, मणिपुर, सिक्किम तथा पड़ोसी देश भूटान,नैपाल, अफगानिस्तान को फल पौध रोपण सामग्री उपलब्ध कराई गई साथ ही इन राज्यों व प्रदेशौं के प्रसार कार्यकर्त्ताओं को प्रशिक्षण दिया जाता रहा।  शोध केंद्र द्वारा विकसित विभिन्न तकनीकी विधियों को

विभागीय अधिकारियों कर्मचारियों व उद्यानपतियौं तक पहुंचाने के लिए   समय-समय पर प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन किया जाता रहा है। फल शोध केंद्र चौबटिया की कुछ अन्य मुख्य मुख्य उत्तकृष्ट उपलब्धियां -

* चौबटिया पेस्ट बागवानौ की पहली पसंद व प्रभाव कारी फफूंदी नाशक।

* सेब नाशपाती, गुठली दार एवं गिरीदार फलौ के पौधौ के प्रसारण हेतु मूल वृन्तौ का चयन आज भी सेब के फल वृक्षों के लिए प्ररेऊ (मैलस बकाटा बेराइटी हिमालिका)नामक सेब की जगंली प्रजाति मूल वृन्त वाले पौधों की बागवानौ द्वारा मांग रहती  है।

*सेब की चौबटिया प्रिंसेज, चौबटिया अनुपम खुबानी की चौबटिया मधु और चौबटिया अलंकार उन्नतशील किस्मै बिकसित की।

* सभी पर्वतीय जनपदों का सर्वेक्षण कर मृदा परीक्षण किया तथा सोयल मैप तैयार किया।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सेवानिवृत्त प्रधान वैज्ञानिक डा०रतन सिंह चौहान ने भी चौबटिया शोध केन्द्र के बारे में लिखा है कि -

"मुझे भी इस प्रतिष्ठित फल शोध केंद्र चौबटिया पर 23-11-70 से 14-8-75 तक भू- रसायन अनुभाग में जयेष्ठ शोध सहायक तथा घाटी फल शोध केन्द्र श्रीनगर गढ़वाल में 18-8-75 से3-4-85 तक मृदा विशेषज्ञ के पद पर कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैंने मृदा विज्ञानं में पी-यच-डी- की उपाधि चौबटिया केंद्र पर शोध करते हुए पर्वतीय क्षेत्र कीअम्लीय मिट्टियों के गुण,वर्गीकरण एवं चूने की आवश्यकता सम्वन्धी विषय पर वर्ष 1980 में आगरा विश्वविद्यालय से प्राप्त की। परीक्षकों द्वारा कार्य की भूर भूर प्रशंसा की गई। मुझे इस कार्य के लिए पुरुष्कृत भी किया गया।मुझे डॉ यस यस तेवतिया, डॉ बोस, डॉ सेठ, डॉ आर पी श्रीवास्तव, डॉ पाठक, डॉ यम यम सिन्हा (सभी निदेशक) के निदेशन में कार्य करने का अवसर मिला। यही नही मेरे द्वारा किये गये शोध कार्यों के परिणाम स्वरुप मेरा चयन भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद में वरिष्ठ वै ज्ञानिक के पद पर 1985 में हुआ।वहाँ से 2008 में प्रधान वैज्ञानिक के पद से सेवा निवर्त  हुआ । दुःख है कि आज चौबटिया केंद्र बन्द होने की कगार पर है।1935 से 1940 के मध्य डॉ मुकर्जी व डॉ दास द्वारा कृषि रसायन विज्ञान के क्षेत्र में किये गए कार्यो का शोध कार्य का प्रकाशन अंतराष्ट्रीय पत्रिकाओं का उदाहरण आज भी दिया जाता है। डॉ कुकसाल बधाई के पात्र है  जिन्होंने बहुत अच्छी जानकारी वर्ष 1932 से 2019 तक की अपने लेख से दी है।इस पर राज्य सरकार को गम्भीरता से सोचते हुए आवश्यक कदम उठाने चाहिये।जिससे वागवानों का हित हो सके।"

चौबटिया शोध केन्द्र की राज्य बनने के बाद की स्थिति-

बर्ष 2004 में शोध केंद्रौं को गोविंद बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय पन्त नगर के अधीन कर दिया गया पुनः बर्ष 2012 -13 में शोध केंद्रौं को उद्यान विभाग के अधीन कर दिया गया पुराने अधिकतर वैज्ञानिक/अधिकारी सैवा निवृत्त हो गये है नये पद भरे नहीं गये तथा उनको सुनियोजित ढंग से समाप्त कर दिया गया। आज अधिकतर अनुभागों में चतुर्थ व तृतीय क्षेणी के कर्मचारी विना विज्ञान विषय पढ़ें बरिष्ट वैज्ञानिकों /प्रशिक्षण अधिकारियों के पद सम्भाले हुए हैं केन्द्र की सारी गतिविधियां बंद पड़ी है। चौबटिया गार्डन जो फल शोध केंद्र चौबटिया का प्रायोगिक प्रक्षेत्र भी है मैं बर्षौ की मेहनत के फलस्वरूप विदेशों से व अन्य राज्यों से संकलित सेव, नाशपाती आड़ू प्लम खुबानी चेरी आदि की विभिन्न किस्मों के हजारों फल वृक्षों को समूल काट कर नष्ट कर दिया गया। राज्य के हुक्मरानों ने कहीं भी इन बहुमूल्य बेशकीमती फलौ की प्रजातियां का संकलित कर सुरक्षित नहीं रखा।

B. प्रयोग एवं प्रशिक्षण केन्द्र श्रीनगर-

इस केन्द्र की स्थापना 1972 - 73 में उद्यान,भू- रसायन एवं मशरूम अनुभागों को खोल कर की गई राजकीय पौधालय श्रीनगर को इस शोध केंद्र का प्रयोगिक प्रक्षेत्र बनाया गया, जिसका उद्धघाटन स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के कार्य काल में बर्ष 1975 में किया। बर्ष 1979 मैं इस केन्द्र पर मुख्य उद्यान विशेषज्ञ का पद सृजित कर मंडलीय शोध केंद्र का दर्जा दिया गया तथा प्लान्ट ब्रीडिंग, पौध रोग व कीट अनुभाग भी खोले गए । प्रयोगिक प्रक्षेत्र पर  किन्नो संतरा व अन्य नीम्बू वर्गीय फल पौधों की विभिन्न किस्मौ का रोपण किया गया साथ ही अनार आंवला , आड़ू (लो चिलिंग ) की विभिन्न किस्मौ का रोपण किया गया।

इन प्रयोगों के काफी उत्साह बर्धक परिणाम रहे आड़ू, आंवला, संतरा व अनार की उन्नशील किस्मौ का चयन किया गया तथा क्षेत्र में लगाने की संस्तुति की गई। केन्द्र द्वारा स्थानीय कृषकों को उन्नतशील सब्जियों की पौध व फल पौध उत्पादन कर वितरित किया जाता रहा। मृदा परीक्षण प्रयोगशाला में मृदा परीक्षण का कार्य तथा मशरूम का स्पान बनाकर मशरूम उत्पादकों को वितरित किया जाता रहा। राज्य बनने के बाद आज सभी अनुभाग बन्द पड़े हैं प्रायोगिक प्रक्षेत्र की घेरबाड बर्ष 2013 जून में अलकनंदा में आयी बाड़ से छतिग्रस हो गई थी जो आज तक नहीं बनी प्रक्षेत्र के एक हिस्से में नगर पालिका का कूड़ा डाला जा रहा है तथा बाकी फार्म में आवारा पशुओं का आवागमन बना रहता है।

C. डुणडा, उत्तरकाशी -

इस शोध केंद्र पर बादाम पिक्कनट व अखरोट फलौ की विभिन्न किस्मों को  लाकर रोपण किया गया तथा उन पर शोध कार्य किए गए। डा० मनमोहन सिन्हा जो बाद में उत्तर प्रदेश में उद्यान निदेशक के पद पर भी रहे के द्वारा कई बर्षौ तक यहां पर उद्यान बिशेषज्ञ के पद पर कार्य किया गया। आज भी इस फार्म में डा० सिन्हा के कार्यकाल में रोपित पिक्कनट की उन्नत किस्में फलत में हैं। राज्य बनने के बाद यह केन्द्र भी बन्द होने के कगार पर है कोई भी गति बिधि यहां पर नहीं चल रही है बादाम के सभी पौधे समाप्त हो चुके हैं।

D. पिथौरागढ़-

इस शोध केंद्र पर बादाम पिक्कनट व अखरोट फलौ की विभिन्न किस्मों को वाहर से लाकर रोपण किया गया तथा उन पर शोध कार्य किए गए। डा० हीरालाल जो राज्य बनने पर कुछ समय के लिए उद्यान निदेशक के पद पर भी रहे द्वारा अखरोट पौधों के प्रसारण पर शोध कार्य किए गए। आज यह केन्द्र भी बन्द होने के कगार पर है। अन्य सभी उप शोध केन्द्रौ की यही दशा है। राज्य बनने पर आश जगी थी कि अपने राज्य की सरकारें पुरखौ के रखे राज्य में उद्यान विकास की आधारशिला को यहां के बागवानौ के हित में उन्नति के पथ पर आगे बढायेंगें  लेकिन आज उद्यान विकास की पुरखौती की रखी यही आधार शिला बन्द होने के कगार पर है।

*उद्यान विकास द्वारा ही इस पहाड़ी राज्य का आर्थिक विकास सम्भव था किन्तु बिडम्बना देखिये राज्य बने उन्नीस बर्षौं में भी उद्यान विभाग को स्थाई निदेशक नहीं मिला राज्य बनने से अबतक दस से अधिक कार्य वाहक निदेशक एक या दो बर्षौ के लिए बने जो अपना सेवा विस्तार बढ़ाने के चक्कर में हुक्मरानों के कहे अनुसार कार्य करते रहे उसी का दुष परिणाम है कि आज सभी आलू फार्म, औद्यानिक फार्म,सभी फल शोध केंद्र बन्द होने के कगार पर है एक समय था जब उद्यान विभाग फल पौध,सब्जी बीज, आलू बीज के उत्पादन में आत्मनिर्भर था तथा कृषकों की सभी मांगे उद्यान विभाग समय पर पूरा करता था। आज सारी गतिविधियां बंद पड़ी है योजनाओं में सारे निवेश निजि कम्पनियों या दलालों के माध्यम से क्रय किए जा रहे हैं।* अधिकारियों की फौज खड़ी कर दी गई है ज्यादातर अधिकारी व कर्मचारी देहरादून में बैठा दिये गये है उद्यान निदेशालय चौबटिया रानीखेत को एक अधिकारी चला रहा है। उद्यान विभाग आज एक सफेद हाथी मात्र बनकर रह गया है।राज्य सरकारों के शासन/ प्रशासन का यह कृत्य दुर्भाग्य पूर्ण ही नहीं निंदनीय भी है इसकी जितनी भर्सना की जाय कम ही है।

राज्य बनने के बाद कई शोध संस्थान विश्व विद्यालय राज्य में बने जिनमें आज़ भी संसाधनों की कमी है किन्तु सभी संसाधनों के होते हुए भी इन शोध केन्द्रौ की उपेक्षा की गई राज्य सरकार यदि इन शोध केन्द्रौ को विकसित नहीं कर सकती हैं तो इन फल शोध केंन्द्रौं को समय रहते भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद या अन्य केंद्रीय शोध संस्थान को हस्तांतरण के लिए प्रस्ताव बना कर भारत सरकार को भेजना चाहिए जिससे ये सभी शोध केंद्र फिर से जीवित हो सके तथा स्थानीय बागवानौ की ज्जलंत समस्याओं का निराकरण किया जा सके।

कभी 400 क्विंटल सालाना सेब पैदा करने वाला चौबटिया का बगीचा इतने सालों में ऐसा बर्बाद हुआ कि आज सिर्फ चार क्विंटल सेब यहां पैदा होता है। उद्यान निदेशालय की कार्यप्रणाली से एक भी बागवान संतुष्ट नहीं है। विदेशी सेब के लालच में इस निदेशालय में बैठने वाले नीति निर्धारकों ने बगीचे से पुराने स्वदेशी प्रजाति के सेब के पेड़ों का सफाया कर अमेरिकी सेब के पौधे लगा दिए, लेकिन इस बात का ध्यान नहीं रखा गया कि अमेरिकी सेब के लिए यहां की जलवायु कैसी है।

बागवानों को अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा से जोड़ने का सपना बगीचे की बर्बादी के साथ ही चकनाचूर हो गया। चौबटिया में 106.91 हेक्टेअर भूमि में बगीचा और रिसर्च सेंटर स्थापित किया गया था। 53 हेक्टेअर में डेलीसिस, रॉयमर, फेनी, रेड गोल्ड, गोल्डन वैली जैसी सेब की स्वदेशी प्रजाति के पेड़ लगाए गए।

हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड में भी यहीं के रिसर्च सेंटर से सेब के पौधे जाते थे। छह साल पहले बगीचे में से स्वदेशी प्रजाति के सेब के पौधों का सफाया कर अमेरिकी रेड फ्यूजी, रेड चीफ, डे बर्न जैसी बौनी प्रजाति के पौधे लगाए गए। बताते हैं कि अमेरिका से चौबटिया तक एक पौधा 400 रुपए में पहुंचा। कुल पांच हजार पौधे मंगाए गए और इन पौधों को 10 हेक्टेअर भूमि में लगाया गया, मगर जलवायु इस प्रजाति के अनुकूल न होने के कारण सेब का उत्पादन नहीं के बराबर हो रहा है। पुराने बगीचे के 43 हेक्टेयर क्षेत्रफल में सब्जी और अन्य फलों के पौधे लगा दिए गए। उद्यान अधीक्षक बीएल वर्मा बताते हैं कि वर्तमान में सिर्फ 10 हेक्टेयर भूमि में ही सेब का उत्पादन हो रहा है। अफसरों की काहिली की वजह से इस बर्बादी को रोकने के लिए सरकार ने भी कोई प्रयास नहीं किए। उत्तराखंड बनने के बाद यहां का रिसर्च सेंटर पंतनगर शिफ्ट हो गया था। 2012 में फिर से रिसर्च सेंटर यहां शिफ्ट किया गया, लेकिन अब रिसर्च नहीं होता, बल्कि मालियों को प्रशिक्षण दिया जाता है। एक तरह से उद्यान निदेशालय ने शानदार बगीचे को उजाड़कर बागवानों का भविष्य गर्त में धकेलने का भी काम किया है।