त्रिवेंद्र से नाराज़ है पुरोहित समाज


श्राइन बोर्ड या देवस्थानम संस्थान बन गया है। सरकार का दावा है कि इस बोर्ड के बनने से उत्तराखण्ड के प्रमुख मदिरों सहित उपेक्षित मंदिरों का भी रखरखाव होगा और आने वाले समय में जब कर्णप्रयाग रेलवे स्टेशन फलीभूत होगा तो अचानक यात्रियों की संख्या में बूम पैदा होगा, उसका वर्तमान समितियों से प्रबंधन नहीं हो सकता और इसी कारण सरकार को एक बोर्ड गठित करने की आवश्यकता महसूस हुई है। यह सरासर गप्प है। पर्दे के पीछे की फिल्म कुछ और है जिसकी पटकथा पिछले साल केदारनाथ धाम के हादसे के दौरान लिखी गई।
विशेष सूत्रों के अनुसार पिछले साल दक्षिण भारत के एक जज केदारनाथ धाम आये, हैलीकाॅप्टर में थे। दायें-बायें अंगरक्षक थे तो पंडों को यात्री की हैसियत का भान हो गया। यात्री पर हक जमाने के लिये उन्होंने जज साहेब को घेर लिया। बद्रीनाथ की तरह केदारनाथ के पंडों ने अभी तक अपनी पुस्तकों और यात्रियों का बंटवारा नहीं किया हुआ है जिस कारण यात्रियों पर हक जमाने के लिये पुरोहितों में आपसी रार हमेशा बनी रहती है। एक लम्बे सीन के बाद चार पुरोहितों ने जज साहब पर साझा हक जमाते हुये कर्मकाण्ड पूरे किये। बताते हैं कि जज स्वयं एक संस्कृतज्ञ भी थे तो पंडों के अशु( उच्चारण पर उन्होंने टोकाटाकी भी की। पुरोहितों में रोष व्याप्त हो गया। खैर, उसके बाद मंदिर में प्रवेश को लेकर व्याप्त अनियमितताओं को भी जज ने नाटिस किया। बात आई गई हो गई। बाद में जज साहेब ने कोर्ट में जनहित याचिका डाली और उसी का परिणाम है यह श्राइन बोर्ड। इस पूरे घटनाक्रम में त्रिवेन्द्र सरकार का रोल नगण्य है। सूत्रों के अनुसार 1940 से पूर्व की व्यवस्था आज की केदार पूजा से बिल्कुल ही भिन्न थी। मंदिर के गर्भगृह में पुरोहितों का प्रवेश नहीं होता था, यह कार्य विशेष कर्मकाण्ड में निष्णात ब्राह्मण करवाते थे, इस प(ति को कब और क्यों बदला गया, क्यों केदारभूमि में निवास स्थलों और होटलों की व्यवस्था शुरू की गई जबकि पूर्व में यात्री रामबाड़ा में रात्रि विश्राम करते थे और सुबह दैनिक क्रियाओं से निवृत होकर केदार भूमि में जाते थे ताकि वहां लघुशंका भी न करनी पड़े...यह बाबा केदार की मोक्षभूमि है जिसमें आदिगुरू के कुछ संकल्प बनाये थे, उनका निरंतर उल्लंघन होता गया। बद्रीनाथ और गंगोत्री के पुरोहित समाज ने अपनी सीमाओं का उल्लंघन कभी नहीं किया पर केदारनाथ के पिछले सालों से अचानक प्रकाश में आने और मीडिया हाइप होने के कारण यात्रियों की जो आवक बढ़ी, दर्शनों के लिये उस ठंड में जब लम्बी कतारें लगने लगीं, हैलीकाप्टर त्रात्रियों के दर्शन और पर्ची सिस्टम लागू हुआ तो प्रवेश संबंधी अनियमिततायें बढ़ने लगीं। कुछ यात्री दसियों घण्टे ठंड में ठिठुरते रहते तो कुछ स्थानीय लोगों और पुरोहितों की सहायता से तुरंत दर्शन करते रहे हैं। जज साहेब ने एक नजर में पूरा नजारा देखा। सुना है कि जज मोदी सरकार के परिचितों में थे तो कोर्ट के निर्णय को तुरंत अमली जामा पहनाने के अतिरिक्त त्रिवेन्द्र सरकार के पास कोई चारा नहीं था।
श्राइन बोर्ड या देवस्थानम जो भी है, के बनने के बाद मंदिरों में प्रवेश को लेकर पारदर्शिता आयेगी, हो सकता है कि पुरोहितों को कुछ सालों में संस्कृत और कर्मकाण्ड में पारंगत होने की अनिवार्यता बोर्ड करे, यात्रियों से दक्षिणा के रूप में जोर-जबरदस्ती पर रोक लगाकर कुछ न्यूनतम राशि देने का प्रावधान किया जाये और अधिकतम दक्षिणा देने का अधिकार यात्री के ऊपर छोड़ दिया जाये...अब इसमें पंडों का क्या शोषण है? पुरोहित समाज अपने अन्तर्मन में झांके और यात्रियों के साथ आत्मीयता का व्यवहार करे, यही एक धार्मिक आदमी का कर्तव्य है। यदि आप अपने कार्य में शुचिता और ज्ञान का सामंजस्य बिठायेंगे तो इससे तीर्थस्थलों के साथ उत्तराखण्ड का भी गौरव बढेगा। पिछली त्रासदी ने जनहानि के साथ स्थानीय व्यापारियों और यात्रा से जुड़े अन्य प्रबंधन की जो पोल खोली थी, उससे पहला सबक पुरोहित समाज को ही लेना है क्योंकि पंडे देवदर्शन और यात्रियों के बीच एक कड़ी का काम करते हैं, यदि यह पुल कमजोर होगा तो पूरी यात्रा का जो उद्देश्य शंकर ने सोचा था भू-लुंठित हो जायेगा। बीजेपी सरकार यदि वोट बैंक की चिंता किये बगैर इन पवित्र स्थलों में कुछ सुधार करना चाहती है तो पुरोहित समाज को उसमें सहयोग करना चाहिये।पर वामपंथी इस आंदोलन में क्यों कूद पड़े हैं। उनके लिये तो ये तीर्थस्थल अफीम के खेत हैं। पंडों को भड़काकर अपना उल्लू सीधा करने वाले ये लाल ध्वजारोही विधान सभा पहुंचने में कांग्रेस की मदद करना चाहते हैं। हां वे जिन घोड़े वाले, डंडीवालों और अन्य की रोजी रोटी की चिंता कर रहे हैं, उसकी चिंता यह बोर्ड भी करेगा...पर हां इसमें स्थानीय निवासियों को बरीयता दी जायेगी जो शायद वामपंथी नहीं चाहते।
पर हक-हकूकधारियों के मन में कुछ संशय तो हंै जिनका उत्तर बीजेपी सरकार को देना चाहिये। मसलन मंदिर में प्रवेश संबंधी धांधली को रोकना तो ठीक है पर जैसे बद्रीनाथ में भोग बनाने वाले हैं, क्या सरकार वहां हस्तक्षेप करेगी, आप गुणवत्ता सुधारने के लिये कहीं कुक तो नहीं बुलायेंगे? भोग कर कीमतें कौन तय करेगा,  तप्तकुंड में यात्रियों के प्रवेश के लिये स्थानीय व्यवस्था ही चलेगी या आप वहां भी पर्ची सिस्टम कर देंगे?आदि...पुरोहितों से हर बिन्दु पर वार्तालाप करना ही होगा।
त्रिवेन्द्र रावत ने बोर्ड तो बनवाया पर अपनी संवादहीनता के कारण वामपंथियों और कांग्रेस के लिये जुलूस निकालने की जगह छोड़ दी। यह सच है कि चुनाव अभी नहीं हैं पर मौन रहकर विरोधियों को आंदोलन की भूमि यदि आप दान में देते हैं तो बैठे ठाले उन्हें जनता से संवाद करने का मंच प्रदान कर रहे हैं। राजनीतिक कौशल तो यही कहता है कि पुरोहित समाज से निरंतर बातचीत की जाये, उनकी शंकाओं को दूर किया जाये। यदि कुछ नहीं तो मीडिया के द्वारा बोर्ड के प्रारूप को प्रस्तुत कर जनता में जो भ्रम फैलाया जा रहा है, उसे दूर किया जाये। सनद रहे कि इन सीमांत क्षेत्रों की कई विधान सभा सीटें ऐसी हैं जहां जीत-हार का अंतर दस-बीस मतों से होता है। यदि संवादहीनता के कारण पांच परिवार भी आपसे छिटक गये तो बीजेपी को राजनीतिक नुकसान होगा, जो शायद आप भी नहीं चाहते होंगे।