उत्तराखंड:तोर/तुअर/अरहर दाल का इतिहास


उत्तराखंड में पहाड़ों में पहाड़ी तोर /तुअर महत्वपूर्ण दाल है और उसी भांति भाभर , मैदानी उत्तराखंड में अरहर /तुअर का महत्व है।  पहड़ी तोर के दाने  छोटे होते हैं तो मैदानी तुअर के दाने बड़े होते हैं।  जहां तक दाल का प्रश्न है पहड़ी तुअर साबूत दाल भी खायी जाती है तो मैदानी तुअर को दलकर दाल बनाई जाती है।  दली दाल को सामन्य भाषा में पीली दाल भी कहते है।   पहाड़ों में तोर के कई व्यंजन बनते हैं जैसे -साबुत दाल , दळी दाळ , सूखे दानो को पीसकर बनी दाल, उबाले दानो को पीसकर बनी तरीदार तुराणि , उबाली तुअर के खाजा -बुखाणा (चबेना ), भरवीं रोटी व पूरी आदि । उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार है कि यहाँ भूस्खलन और बाढ़ों से बहाव एक आम घटना है अत;प्रागऐतिहासिक वस्तुएं कम ही मिली हैं।  अत: कृषि व खाद्य इतिहास के लिए हमे समकालीन मैदानी हिस्सों व भारत के इतिहास पर निर्भर करना पड़ता है । कौटिल्य के अर्थ शास्त्र में 'अधाकि ' शब्द नही मिलता किन्तु 'उदाड़ ' शब्द मिलता है।  उदार का अर्थ होता है लंबी फली और दाड़ /दार  का अर्थ होता है अलग करना। 


तुअर दाल का जन्मस्थल पहले अफ्रिका माना जाता रहा है।  किन्तु अब यह सर्वमान्य है कि तुअर का जन्मस्थल पूर्वी भारत (ओडीशा ) है।  उत्तर पाषाण  कालीन अवशेषों के साथ ओडिशा में तुअर बीज (3400 -3000 BC ) मिले हैं (फुलर व हार्वे )।  इसके अतिरिक्त उत्तर पाषण  युग के   कर्नाटक व तुलजापुर गढ़ी  )1000 BC ) में भी तुअर के अवशेष मिले हैं।                 संस्कृत में तुअर /तोर दाल का पुराना सन्दर्भ 

चरक संहिता (300  BC ) और सुश्रुता संहिता (600 BC ) में एक शब्द है 'अधाकि ' जिसे कृषि इतिहासकार तुअर दाल कहते हैं।  अधाकि शब्द का सन्दर्भ बौद्ध एवं जैन साहित्य (200 BC -300 AD ) में भी मिलता है. कांगले (1982 ) का कहना है कि कौटल्य ने तुअर के लिए उदारका /उदाड़का  शब्द प्रयोग किया है। गढ़वाली में उदाड़ना का अर्थ  होता है दोनों को अलग करना।  यदि उदाड़ शब्द पाली का है तो यह शब्द नन्द कालीन या अशोक कालीन शब्द गढ़वाल में आया होगा. उस समय मकई और राजमा भारत में नही उगाई जाते थे तो उदाड़ क्रिया दालों के लिए ही उपयुक्त होती रही होंगी। फिर उड़द , मूंग को उदाड़ा नही जाता है , अपितु थींच कर /पीटकर दाने  अलग किये जाते हैं तो उदाड़ शब्द तोर दानों को   फली से अलग करने के लिए उत्तराखंड में प्रयोग होता रहा होगा। 

झा (1999 ) का मानना  है कि अमरसिंह ने अमरकोश (200 BC ) में जिस शब्द अधाकि , काक्षी , और तुवरिका का प्रयोग किया है वे तुअर दाल के लिए प्रयोग हुए है। संस्कृत में अधाकि शायद अर्ध शब्द से आया है जिसका अर्थ होता है आधा या आधे में अलग करना । मैदानों में साबुत तुअर दाल प्रयोग नही होती है अत अधाकि शब्द का का भ्रस्टीकरण हो कर अरहर हो गया हो गया होगा। तुअर शब्द भी अरहर दल के लिए प्रयुक्त एक सामन्य शब्द है। संस्कृत में तुअर: और तुबर: का अर्थ होता है -कडुआ , कुछ कुछ रूखा, कसैला । कच्चे  तुअर दानो  का स्वाद भी कुछ रुखा होता है। अत  हैं कि तुबर शब्द से तुअर शब्द बना .उत्तराखंड को छोड़ तुअर दाल को उत्तर भारत में अरहर के नाम से पुकारा जाता है।  महारास्ट्र , गुजरात व दक्षिण में इसे तुअर पुकारा जाता है।  उत्तराखंड में तोर के नाम से पुकारा  जाता   है। तमिल संगम साहित्य (100 BC -300 AD  ) में तुअर शब्द इस्तेमाल नही हुआ है।  जिसका अर्थ लगाया जाता है कि तमिलनाडु में तुअर दाल चौथी सदी के बाद ही प्रचलन में आई होगी. अकबर चूँकि पंजाबी शैली का भोजन प्रिय था तो आइने -अकबरी में तुअर दाल का जिक्र नही है। 
उत्तराखंड में तुअर कब आई पर डा डबराल ने प्राचीन इतिहास की पुस्तकों में नही लिखा है। पहाड़ों में तुअर छोटे दाने वाली प्रजाति  पैदा होती है।  अत  तुअर का आगमन या तो ओडिशा से या कर्नाटक से हुआ होगा. इसका अर्थ है कि तुअर यदि बौद्ध काल (नन्द , मौर्य ,अशोक ) के समय आया है तो ओड़िसा से आया होगा। गढ़वाली शब्द उदाड़  शब्द से तो लगता है बल मौर्य काल में ही तुअर दाल ने उत्तराखंड में प्रवेश किया होगा। उड़िया में तोर /तुअर  को तूर कहते हैं।   कर्नाटक से तुअर दाल आने के सिद्धांत मानने में कठिनाई यह है कि कर्नाटक के साथ उत्तराखंड के साथ सीधा राजनैतिक संबंध नही रहा है।  कन्नड़ में तुअर /तोर को टोंगरी बेले (thongri bele ) कहते  हैं अतः उत्तराखंड में तुअर /तोर कर्नाटक से आती तो तुअर /तोर की जगह तोंगरी बेले नाम पड़ता।  जब कि उड़ीसा के साथ कनौज , पाल वंशजों के कारण संबंध रहा है।   या उत्तरी भारत से तुअर का उत्तराखंड में धीरे धीरे सांस्कृतिक आदान प्रदान माध्यम से आगमन हुआ होगा और जलवायुकरण हुआ होगा तो बड़े तुअर के दाने छोटे होते गए होंगे। 


कृषि इतिहास

 कौटिल्य ने तुअर या उदार /उदाड़ के बारे में लिखा है कि तुअर की वर्षाकाल के अंत   में होनी चाहिए। कश्यप (800 BC ) ने बड़े -छोटे दोनों आकार के तुअर का जिक्र किया है और बड़े दानो को पंक्ति में बोने की क्रिया समझाई है। कश्यप ने कहा है कि  यह तीन महीने की खेती वाली वनष्पति है। राजा केलाड़ी बसवराजा के सिवतत्वरत्नाकर  (17 th सदी ) मे काली तुअर का सन्दर्भ मिलता है। बुचनान (1807 ) ने दक्षिण भारत में तुअर खेती का ब्यौरा दिया है। वाट (1889 ) ने मध्य भारत , महाराष्ट्र , ऊतरप्रदेश में तुअर खेती पर विस्तार से लिखा है। तुअर पर टिड्डी प्रकोप व किस तरह किसान टिड्डियों से फसल बचाते हैं विषय पर भी लिखा है। वाट ने उत्तर प्रदेश में तुअर दाल की पैदावार 100 Kg -1480 Kg प्रति हेक्टेयर या औसतन  645 Kg /हेक्टेयर रिकॉर्ड किया है प्राचीन काल से ही भंडारीकरण के लिए राख , स्थानीय पत्तों व वर्तनो के अन्दर चारों  तरफ तेल लगाना रहा है। 

उपयोग
तुअर से दो तीन प्रकार की दालें , भरवां रोटियां /पुरियां प्राचीन कल में भी प्रचलित थीं चबेना के रूप में तुअर को उबाला जाता था।  चरक ने लिखा है की तुअर से रक्त स्वच्छ होता है।