उड़द -मूंग कृषिकरण इतिहास सस्थ साथ चलता है। दक्षिण भारत -महाराष्ट्र में प्रागैतिहासिक उड़द -मूंग के अवशेस मिले हैं जो साबित करते हैं कि 2200 BC पहले दक्षिण भारत में उड़द -मूंग की खेती शुरू हो चुकी थी या जंगली उड़द -मूंग को भोजन में शामिल कर लिया गया था. इसी तरह उत्तर भारत के मैदानों में व हिमालय में भी जंगली उड़द -मूंग या कृषि से उड़द -मूंग प्राप्त करने के प्राचीन प्रमाण मिले हैं। भारत को उड़द -मूंग का जन्मस्थल माना जाता है और भारत में ही उड़द -मूंग का कृषिकरण हुआ । संस्कृत में मूंग को मुद्ग और उड़द के लिए शब्द थे माश जो क्रमश: मूंग और माश में परिवर्तित हुए. पंजाबी में मा दी दाल माश की दाल का अपभ्रंश है। ऐसा लगता है कि तमिल शब्द उळुन्दु से उड़द शब्द प्रचलित हुआ होगा। माश का प्रयोग वेद टिप्पणी शास्त्र 'वृहदअर्यणक (5500 BC ) में आया है. मूंग शब्द यजुर्वेद में प्रयोग हुआ है।
उड़द मूंग भोजन का उत्तराखंड में उत्तर प्रस्तर युग में प्रवेश
डा बबराल ने मजूमदार व पुसलकर के अन्वेषण सन्दर्भके आधार पर लिखा कि उत्तराखंड में उत्तर प्रस्तर युग (15000 -3500 BC ) में मूंग -उड़द को कृषि उपयोग में लाया जाता था।
उड़द मूंग भोजन का उत्तराखंड में उत्तर प्रस्तर युग में प्रवेश
डा बबराल ने मजूमदार व पुसलकर के अन्वेषण सन्दर्भके आधार पर लिखा कि उत्तराखंड में उत्तर प्रस्तर युग (15000 -3500 BC ) में मूंग -उड़द को कृषि उपयोग में लाया जाता था।
उड़द , मूंग दाल के बीज और बोने के सन्दर्भ
डा डबराल ने जातक निग्रोधजातक जा सन्दर्भ देते लिखा है कि कुलिंद जनपद (500 -400 BC ) में उत्तराखंड में उड़द,मूंग व अरहर की खेती होती थॆ। कौटिल्य के अर्थ शास्त्र (321 -296 BC ) में उड़द -मूंग के दानो को दूसरे मौसम के लिए बीज बोने हेतु सुरक्षित रखने का सन्दर्भ मिलता है। लिखा गया है कि बोने से पहले बीजों को ओस व धूप में सुखाने चाहिए। सुल्तान व मुग़ल काल में बीजों को गोबर व बीजों को चिड़िया के बीट के साथ मिश्रित कर बोया जाता था। सोलहवीं सदी के भावप्रकाश निघन्टू पुस्तक में उड़द -मूंग की कई जातियों का जिक्र किया है. वाट (1889 ) ने भी मूंग -उड़द के कई जातियों के बारे में उल्लेख किया है।
खेतों में उड़द -मूंग
कश्यप (800 ) ने उड़द -मूंग को पंक्तियों में बोने का दृष्टांत दिया और कहा कि बोने के एक माह बाद गुड़ाई करनी आवश्यक है। पत्तियों के हरे या पीले होने से पता लग जता है कि फसल पक गयी है कि नहीं। वाट (1889 ) ने बुआई में छिटकाने वाली पद्धति का जिक्र भी किया है। अधिसंख्य किसान मूंग -उड़द को अनाज के साथ उप अनाज जैसे बोते थे। वाट ने उड़द की विभिन्न बीमारियों का भी जिक्र किया है।
उड़द -मूंग का बजार भाव
डा डबराल ने जातक निग्रोधजातक जा सन्दर्भ देते लिखा है कि कुलिंद जनपद (500 -400 BC ) में उत्तराखंड में उड़द,मूंग व अरहर की खेती होती थॆ। कौटिल्य के अर्थ शास्त्र (321 -296 BC ) में उड़द -मूंग के दानो को दूसरे मौसम के लिए बीज बोने हेतु सुरक्षित रखने का सन्दर्भ मिलता है। लिखा गया है कि बोने से पहले बीजों को ओस व धूप में सुखाने चाहिए। सुल्तान व मुग़ल काल में बीजों को गोबर व बीजों को चिड़िया के बीट के साथ मिश्रित कर बोया जाता था। सोलहवीं सदी के भावप्रकाश निघन्टू पुस्तक में उड़द -मूंग की कई जातियों का जिक्र किया है. वाट (1889 ) ने भी मूंग -उड़द के कई जातियों के बारे में उल्लेख किया है।
खेतों में उड़द -मूंग
कश्यप (800 ) ने उड़द -मूंग को पंक्तियों में बोने का दृष्टांत दिया और कहा कि बोने के एक माह बाद गुड़ाई करनी आवश्यक है। पत्तियों के हरे या पीले होने से पता लग जता है कि फसल पक गयी है कि नहीं। वाट (1889 ) ने बुआई में छिटकाने वाली पद्धति का जिक्र भी किया है। अधिसंख्य किसान मूंग -उड़द को अनाज के साथ उप अनाज जैसे बोते थे। वाट ने उड़द की विभिन्न बीमारियों का भी जिक्र किया है।
उड़द -मूंग का बजार भाव
वाट ने लिखा है कि उन्नीसवीं सदी में भारत में मूंग पैदावार अलग अलग प्रदेश में अलग अलग थी -500 -550 KG /हेक्टेयर। उड़द की पैदावार पिदावार तामिल 800 Kg /हेक्टेयर। रिसाला -दर -फलाहत (1450 AD ) में लिखा है कि दालों को बडे बर्तन में भंडारित किया जाता था. बर्तन के आंतरिक तलों पर तेल लगाया जाता था. और उपरी भाग में राख रखी जाती थी. आइन -ए -अकबरी (1590 AD ) में कहा गया है कि उड़द गेंहू की कीमत के आधे दाम में मिलती थी. मूंग दाल अरहर और मसूर से मंहगी थी।
उड़द -मूंग के खाद्य पदार्थ व भारत में संदर्भ साहित्य
साहित्य में दाल का उल्लेख मिलता है। बौद्ध साहित्य में खिचडी का उल्लेख है जो कि मूंग -चावल से ही बनती रही होगी। बुद्ध ने अपने शिष्यों को मूंग पानी (मुंगणि /सूप ) पीने की सलाह दी थी। बौद्ध वा जैन साहित्य (300 AD से पहले ) में परपता (पापड़ ) का उल्लेख मिलता है। कश्यप ने भी मूंग पानी (सूप ) का उल्लेख किया है। कश्मीरी लेखक कल्हण (1200 AD ) ने मोंग को हीन दाल माना है।इब्न बातुता (1325 AD ) , अब्दुर रजाक (1443 AD ) वा ट्राविनियर (1640 -1667 AD ) जैसे पर्यटकों ने उल्लेख किया है कि भारत में मूंग खिचड़ी प्रसिद्ध थी। राजस्थानी सैनिक (चौदवीं सदी ) कागल कुटा (पापड़ ) पसंद करते थे। प्राचीन काल में उड़द -मूंग से शराब भी बनती थी (आचाया 1998 सन्दर्भ नेने )। वाट ने भारतवासियो द्वारा उड़द -मूंग का उपयोग जानवरों के चारे का उपयोग के बारे में उल्लेख किया है। सुश्रुवा (400 BC ) ने मोंग दाल को सुपाच्य व बीमारी में उपयोगी दाल मानि है।भाव प्रकश (16th सदी ) ने उड़द को ताकतकारी दल व वीर्य शक्ति वर्धक माना है। उस काल में उड़द -मूंग उपचार के भी कामा आते थे. वाट (1889 ) ने भी भारत में मूंग उड़द को उपचार प्रयोग का जिक्र किया है। मूंग का आता त्वचा को मुलायम करने के लिए भी उपयोग होता था।सुरपाल (1000 AD ) अनुसार दक्षिण में उड़द को नारियल पेड़ों में खाद के लिए उपयोगी बताया है।उत्तराखंड के पहाड़ों में उड़द का उपयोग मकान बनाने के लिए मिट्टी के साथ मिलाने (सीमेन्टिंग ) की कला/तकनीक प्राचीन काल रही है।
साहित्य में दाल का उल्लेख मिलता है। बौद्ध साहित्य में खिचडी का उल्लेख है जो कि मूंग -चावल से ही बनती रही होगी। बुद्ध ने अपने शिष्यों को मूंग पानी (मुंगणि /सूप ) पीने की सलाह दी थी। बौद्ध वा जैन साहित्य (300 AD से पहले ) में परपता (पापड़ ) का उल्लेख मिलता है। कश्यप ने भी मूंग पानी (सूप ) का उल्लेख किया है। कश्मीरी लेखक कल्हण (1200 AD ) ने मोंग को हीन दाल माना है।इब्न बातुता (1325 AD ) , अब्दुर रजाक (1443 AD ) वा ट्राविनियर (1640 -1667 AD ) जैसे पर्यटकों ने उल्लेख किया है कि भारत में मूंग खिचड़ी प्रसिद्ध थी। राजस्थानी सैनिक (चौदवीं सदी ) कागल कुटा (पापड़ ) पसंद करते थे। प्राचीन काल में उड़द -मूंग से शराब भी बनती थी (आचाया 1998 सन्दर्भ नेने )। वाट ने भारतवासियो द्वारा उड़द -मूंग का उपयोग जानवरों के चारे का उपयोग के बारे में उल्लेख किया है। सुश्रुवा (400 BC ) ने मोंग दाल को सुपाच्य व बीमारी में उपयोगी दाल मानि है।भाव प्रकश (16th सदी ) ने उड़द को ताकतकारी दल व वीर्य शक्ति वर्धक माना है। उस काल में उड़द -मूंग उपचार के भी कामा आते थे. वाट (1889 ) ने भी भारत में मूंग उड़द को उपचार प्रयोग का जिक्र किया है। मूंग का आता त्वचा को मुलायम करने के लिए भी उपयोग होता था।सुरपाल (1000 AD ) अनुसार दक्षिण में उड़द को नारियल पेड़ों में खाद के लिए उपयोगी बताया है।उत्तराखंड के पहाड़ों में उड़द का उपयोग मकान बनाने के लिए मिट्टी के साथ मिलाने (सीमेन्टिंग ) की कला/तकनीक प्राचीन काल रही है।