गढ़वाली फिल्मकार का आत्म कथ्य 

एक लेक्चरर पिता के घर 1972 मे जन्म हुआ, मां ग्रहणी हैं, स्कूली शिक्षा हिमाचल और फिर विकासनगर में हुई, DAV देहरादून से BA किया, 1983 में छठी कक्षा पास करने के बाद पहली बार सिनेमाहॉल में फ़िल्म देखी थी महान, उसी दिन तय किया कि एक दिन फ़िल्म बनाऊंगा और उसी सिनेमाघर में फ़िल्म लगाऊंगा।

 

1990 के दौर में गढवाली फिल्मों का दौर था, तो तय किया कि पहले गढवाली फ़िल्म बनाऊंगा, फ़िल्म का नाम और कहानी सोचने लगा, एक रोमांटिक पारिवारिक कहानी सोची, उसका नाम रखा... तेरी सौं, ये 1990 की बात है, । सोचा था BA करते ही बॉम्बे चला जाऊंगा, और संघर्ष करूँगा, इसके अलावा कुछ नही जानता था, 1994 में BA का रिजल्ट आते ही मुम्बई जाने की योजना बना रहा था कि उत्तराखंड आंदोलन शुरू हो गया, एक दो बार मरने से बचा, कई दिन फरार भी रहा, मुजफ्फरनगर कांड ने सब कुछ बदल दिया और तय किया कि पहली फ़िल्म उत्तराखण्ड आंदोलन व मुजफ्फरनगर कांड पर बनाऊंगा, उसी रोमांटिक कहानी में मुजफ्फरनगर कांड को पिरोया और नाम वही रखा.... तेरी सौं। जबकि अभी तक फ़िल्म मेकिंग का abc भी नही आता था।

 

1994 के अंत मे पता चला नॉएडा की एक सिने अकादमी AAFT के बारे में, दोस्तों व बड़े भाई से 12000 रुपये इक्कठे कर तीन महीने के फ़िल्म निर्माण कोर्स को जॉइन किया, और 1995 में मुम्बई आ गया। मुम्बई में कई बार ऐसा हुआ कि रात फुटपाथ में गुजारनी पड़ेगी, पर ईश्वर हमेशा कहीं से प्रकट हो जाता और हमेशा कोई छत मिल जाती। हैं एक बार 7 दिन तक भूखा रहना पड़ा, तो मजबूरन एक रेस्तौरेंट में वेटरी करनी पड़ी, घर से मैं भले ही कमजोर नहीं था, पर संकल्प था कि संघर्ष के लिए घर से मदद नहीं लूंगा, इसलिए वेटर बनना मंजूर किया। वहां कुछ अच्छे वेटर दोस्त मिले, जिनमे से एक ने मुझे सलाह दी कि मैं होटल छोड़ कर पूरा ध्यान फ़िल्म इंडस्ट्री में लगाऊं, और मेरा खर्च वो उठाएगा। बस मैने होटल छोड़ दिया।

 

कई छोटी बड़ी फिल्मो व धारावाहिकों में सहायक निर्देशक की भूमिका में रहा। कुछ धारावाहिक लिखने के काम मिले, और इस तरह 2001 में जीवन का सबसे बड़ा ब्रेक मिला,स्टार प्लस के सुप्रसिद्ध धारावाहिक कसौटी ज़िंदगी की के निर्देशन का, 2002 तक इसका निर्देशन  किया। धारावाहिक आसमान छूने लगा, इतना अनुभव हो चुका था कि अब अपने पहले सपने के बारे में सोचने लगा। पहली फ़िल्म तेरी सौं का सपना। जुलाई 2002 में कसौटी ज़िंदगी की को छोड़ कर देहरादून आया। काफी पैसा अपने पास था, कुछ परिवार से पिता, भाई और दीदी ने दिया, कुछ मित्रों ने मदद की। और फ़िल्म बन गई तेरी सौं। 2003 में फ़िल्म आई, ये उत्तराखंड की आज तक की सबसे चर्चित फिल्म कही गयी। समाजवादी पार्टी ने फ़िल्म का जबरदस्त विरोध किया। देहरादून में 30 मई 2003 में जब फ़िल्म रिलीज हुई तो 150 पुलिस के जवानों ने सिनेमा हाल घेरा हुआ था, इसकी न्यूज़ कइ नेशनल न्यूज़ चैनल ने दिखाइ, इंडिया टुडे व आउटलुक जैसी पत्रिकाओं ने फ़िल्म पर लेख लिखे। ये गढवाली और कुंमॉनी में एक साथ बनने वाली पहली फ़िल्म थी।

 

फ़िल्म को भले ही समीक्षकों ने बहुत सराहा, पर तब तक उत्तराखण्ड में सिनेमा घर जाने की संस्क्रति खत्म हो रही थी,  CD का दौर आ चुका था, लोग CD में ही फ़िल्म देखना चाहते थे। CD में जब फ़िल्म रिलीज हुई तो बहुत लोगों ने फ़िल्म देखी। मगर पाइरेसी के कारण एक निर्माता के रूप में मुझे लाखों का नुकसान उठाना पड़ा।

 

मैं सिर्फ एक उत्तराखण्डी फ़िल्म बनाने आया था, पर इस फ़िल्म के बनने के दौरान मुझे एहसास हुआ कि हिंदी फिल्म के लिए तो सारी दुनिया है, पर अपनी गढवाली भाषा की फ़िल्म मैं नही बनाउगा तो कौन बनाएगा। और मैं गढवाली कुंमॉनी भाषा को प्रमोट करने का संकल्प ले आगे तैयारी में लग गया।

 

मैंने फिर 2005 में एक पहली उत्तराखंड़ी होर्रर फ़िल्म हन्त्या बनाई, जिसे लोग आज भी याद करते है। बाद में 2009 में याद आली टिहरी, 2010 में कभी त होली सुबेर और पहली उत्तराखण्डी बाल फ़िल्म गुल्लु का निर्माण किया। 2011 में अब त खूलली रात व मनस्वाग का निर्माण किया। 2012 में घन्ना गिरगिट अर यमराज, गुन्दरु बनी गे हीरो व 2013 में काफल व कमली का निर्माण किया।

 

इस दौरान CD का जमाना भी चला गया, और मैंने कोई फ़िल्म नही बनाई, पर अब 2019 में मेरु गौं का निर्माण कर रहा हूँ जो 2020 में रिलीज होगी। और दर्शको की बहुत मांग पर फ़िल्म कमली के दूसरे भाग का निर्माण कर रहा हूँ। इसके अलावा यदि निर्माता मिले तो जल्द ही कुछ वेब सीरीज के निर्माण की भी योजना है।