क्या है तब्लीगी जमात

देश के बहुत कम लोगों और मीडिया को इस बात की जानकारी होगी कि इस कुख्यात् और खतरनाक संगठन का मुख्यालय दिल्ली के निजामुद्दीन बस्ती की एक मस्जिद में है। 1920 में आर्य समाज ने हिन्दुओं से जबरन मुसलमान बनाए गए लोगों को वापस हिन्दू धर्म में लाने के लिए शुद्धि अभियान शुरू किया था। इस अभियान की बागडोर आर्य समाज के एक प्रमुख सन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द के हाथ में थी। शुद्धि आंदोलन की शुरुआत दिल्ली के समीप मेवात क्षेत्र से की गई। इस क्षेत्र में रहने वाले मुसलमान मेव कहलाते हैं जिन्हें दिल्ली के मुस्लिम शासक गयासुद्दीन बलबन ने जबरन मुसलमान बनाया था। उल्लेखनीय बात यह है कि 1000 साल गुजर जाने के बावजूद इन राजपूत मुसलमानों ने अपने मन से हिन्दू संस्कृति और धर्म से पूरी तरह से नाता नहीं तोड़ा। रियासत अलवर के दीवान मेजर पाॅवलेट ने रियासत के गजट (1878) में लिखा है कि “हालांकि सभी मेव मुसलमान हैं मगर वे सिर्फ नाम के मुसलमान हैं। उन पर हिन्दू संस्कृति और धर्म की गहरी छाप है। उनमें से अधिकांश के नाम कृष्ण सिंह, बिशन सिंह, राम सिंह, हनुमान सिंह, शिव प्रताप सिंह हैं और उनकी महिलाओं के नाम भी राजकंवर, रामकंवर, श्याम कंवर जैसे हैं। ये लोग मुसलमान होने के बावजूद अपने घरों में हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। हिन्दू त्योहारों को मनाते हैं और अधिकांश नियमित रूप से मंदिरों में जाकर मूर्तियों की पूजा-अर्चना करते हैं। होली और रामनवमी उनके प्रमुख पर्व हैं। इनमें से अधिकांश ना तो नमाज पढ़ते हैं, ना ही मस्जिद जाते हैं। वे कलमा और कुरान तक नहीं जानते। ये लोग हिन्दुओं की भांति अपने गोत्र में शादी नहीं करते और ना ही मुसलमानों की भांति मामा, चाचा, फूफा आदि की बेटे-बेटियों से ही विवाह करते हैं। इनके विवाह संस्कार आमतौर पर हिन्दू पुरोहित करते हैं। इसके अतिरिक्त इनमें राजपूतों जैसी परम्पराओं और रस्मों का पालन किया जाता है। ये लोग मुसलमान होने के बावजूद गोमांस नहीं खाते।“

 

शुद्धि आंदोलन का प्रभाव मेवों में काफी तेजी से हुआ। सैकड़ों मेवों ने इस्लाम धर्म को छोड़कर हिन्दू धर्म को अंगीकार किया। राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात आदि अनेक राज्यों में मुस्लिम शासकों द्वारा जबरन मुसलमान बनाए गए लोग आर्य समाज के प्रयास से पुनः पुराने धर्म में लौटने लगे। यह बात कट्टरवादी मुसलमानों को नहीं भायी। एक धर्मान्ध मुसलमान अब्दुल रशीद ने 1926 में दिल्ली के नया बाजार स्थित स्वामी श्रद्धानन्दजी के आश्रम में घुसकर छूरों से वार करके उनकी निर्मम हत्या कर दी। लेखक सीताराम गोयल ने अपनी पुस्तक “मुस्लिम सेपरेटिज्म“ में इस हत्या के लिए तब्लीगी जमात को दोषी ठहराया है। इसी पुस्तक में गोयल ने यह भी आरोप लगाया है कि 1992 में मेवात के क्षेत्र में जो हिन्दू विरोधी दंगे हुए थे उनमें कई मंदिरों को आग लगा दी गई थी। उनके पीछे भी तब्लीगी जमात का ही हाथ था। दक्षिणी एषिया में मुस्लिम कट्टरवाद नामक पुस्तक में मुमताज अहमद ने यह मत व्यक्त किया है कि इस्लामी आतंकवाद को भड़काने में तब्लीगी जमात का प्रमुख हाथ रहा है। साहिल मायाराम ने अपनी पुस्तक “रेजिस्टिंग रेजिम“ में यह मत व्यक्त किया है कि तब्लीगी जमात की आतंकवादी पृष्ठभूमि सैयद अहमद बरेलवी के वहाबी आंदोलन और शरियत उल्लाह के फिराजी आंदोलन से जुड़ी हुई है। इस पुस्तक में यह भी आरोप लगाया गया है कि भारत में तब्लीगी आन्दोलन को शुरू करने के लिए मौलाना इल्यिास को विदेषी सूत्रों से भारी मात्रा में आर्थिक सहायता प्राप्त हुई थी। इसके अतिरिक्त देष की कई मुस्लिम रियासतों जैसे निजाम हैदराबाद, नवाब रामपुर और नवाब भोपाल ने करोड़ों रुपए तब्लीगी जमात को अपने खजानों से दिए।


 

आर्य समाज द्वारा शुरू किए गए शुद्धि आंदोलन के जवाब में कई मुस्लिम देशों से प्राप्त होने वाले धन के बल पर उत्तर प्रदेश के कांधला नगर निवासी मौलाना मोहम्मद इल्यिास कांधलवी ने 1926 में तब्लीगी जमात की शुरुआत दिल्ली की बस्ती निजामुद्दीन स्थित मस्जिद बंग्लेवाला से की। मौलाना इल्यिास का संबंध सुन्नी मुसलमानों के देवबंदी सम्प्रदाय से था। उनके संबंध वहाबी सम्प्रदाय और सल्फी विचारधारा से भी थे। उन्होंने देवबंद स्थित दारूल उलूम देवबंद से इस्लामिक धार्मिक शिक्षा प्राप्त की थी। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर स्थित नगर की इस्लामी शिक्षा संस्थान मजार उल उलूम में वे अध्यापन कार्य किया करते थे। उन्होंने मुसलमानों को एक नया नारा दिया- “मुसलमानों! मुसलमान बनो।“ इसके बाद उन्होंने अपना सारा जोर शुद्धि आंदोलन को रोकने और मुसलमानों में वहाबी और जिहादी विचारधारा के प्रचार और प्रसार करने में लगा दिया। उनका परिवार शुरू से ही उग्रवादी जिहादी विचारधारा से जुड़ा हुआ था। जिसके प्रमुख प्रवर्तक 16वीं शताब्दी के विख्यात् जिहादी मौलाना मुजाहिदुल इस्लाम सरहिन्दी थे। इस परम्परा में अनेक जिहादी पैदा हुए। मौलाना इल्यिास के गुरु रशीद अहमद गंगोई थे, जिनका संबंध दारूल उलूम देवबंद के संस्थापक मौलाना कासिम नवतनवी से था। 1946 से इस संगठन ने विश्व के अनेक देशों में अपने पैर पसारने शुरू किए। देश के विभाजन के बाद लाहौर के समीप रायविंड में पाकिस्तान की तब्लीगी जमात का केन्द्र स्थापित किया गया। 1949 में ढाका में भी एक अन्य केन्द्र स्थापित हुआ। दो दशक में इस संगठन ने समूचे एशिया, अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका में अपने पैर पसार लिए। इंग्लैंड में इसका मुख्यालय ड्यूजबरी में 1978 में स्थापित किया गया। इस केन्द्र से यूरोप भर में तब्लीगी जमात की गतिविधियों का संचालन किया जाता है। न्यूयाॅर्क में अमेरिकी तब्लीगी जमात का मुख्यालय है। यूरोप और अमेरिका में इस समय लगभग 11,000 से अधिक तब्लीगी जमात की मस्जिदें हैं। उज्बेकिस्तान, तजाकिस्तान, कजाकिस्तान पहले ही इस पर प्रतिबंध लगा चुका है। मोहम्मद इल्यिास के निधन के बाद इस संगठन की बागडोर उनके पुत्र मौलाना मोहम्मद यूसुफ ने संभाली यूसुफ के मरने के बाद उनके पुत्र मौलाना इनामुल हुसैन ने संभाली। उनके निधन के बाद उनके पुत्र मौलाना जबीरूल हसन इसके प्रमुख बने। मार्च, 2014 में उनका निधन हो गया। उनके पुत्र मौलाना जहीरूल हसन को पार्टी का नया प्रमुख बनाने का विरोध उनके कुछ समर्थकों ने किया इस विवाद को सुलझाने के लिए तब्लीगी जमात के सात प्रमुख नेताओं की एक निगरानी परिषद बना दी गई।

 

कैसे काम करती है तब्लीगी जमात: तब्लीगी जमात कैसे काम करती है इस पर आज तक रहस्य पर पर्दा पड़ा हुआ है। कोई नहीं जानता कि इस विश्वव्यापी संगठन का संचालन कैसे होता है और उसके पास विपुल धनराशि कहां से आती है? दुनियाभर की गुप्तचर एजंेसियां इस रहस्यमय संगठन के रहस्यों को उजागर करने का प्रयास कर रही है मगर उन्हें आजतक इसमें सफलता नहीं मिली। यह जरूर है कि इस जमात की ओर से विश्वभर के विभिन्न देशों में बड़े-बड़े विशाल इजेत्तमा (सम्मेलनों) का आयोजन किया जाता है। जिनमें से प्रत्येक में 35 से 40 लाख तक लोग भाग लेते हैं। इन इजेत्तमाओं का कार्यक्रम एक सप्ताह से लेकर दो सप्ताह तक निरंतर चलता है। इनके आयोजन पर जो अरबों रुपए खर्च होते हैं वह किन सूत्रों से प्राप्त होते हैं इसके बारे में कोई नहीं जानता। इन इजेत्तमाओं से मीडिया को दूर रखा जाता है और यह दावा किया जाता है कि इन इजेत्तमाओं मंें विशुद्ध रूप से धार्मिक प्रचार किया जाता है। हालांकि इस्लाम में जिहाद और आतंकवाद को शुरू से ही मजहब का प्रमुख हिस्सा माना जाता रहा है।

 

जमात के सूत्रों के अनुसार इस्लाम के प्रचार और इस्लाम में गैर-मुसलमानों को शामिल करने का अभियान बड़े सुनियोजित ढंग से चलाया जाता है। दुनियाभर में फैली हुई मस्जिदें इस अभियान का मुख्य केन्द्र है। इन मस्जिदों के इमाम हर जुमा को अपने  खुतबा (प्रवचन) में इस बात पर जोर देते हैं कि प्रत्येक मुसलमान का यह धार्मिक फर्ज है कि वे हर वर्ष कम-से-कम एक महीना इस्लाम के प्रचार व प्रसार में लगाए। प्रत्येक मुसलमान से यह आशा की जाती है कि वह एक महीने तक मस्जिदों में रहे। उनके खाने-पीने की व्यवस्था का जिम्मा स्थानीय मुसलमानों के घरों पर होता है। प्रत्येक मुसलमान घर में तब्लीगी प्रशिक्षण लेने वाले व्यक्ति को मेहमान के रूप में ठहराया जाता है। सुबह से लेकर रात तक इमाम और उलेमा उनके सम्मुख प्रवचन देते हैं। जिनमें उन्हें इस्लाम पर आए खतरों के बारे में धुआंधार ढंग से बताया जाता है कि इस्लाम और मुसलमानों का वजूद खतरे में है। अगर मुसलमान नहीं चेते तो कुछ ही दिनों में इस्लाम और मुसलमानों का नामोंनिषान दुनिया से मिट जाएगा। इसके साथ ही मुस्लिम शासनकाल में विष्वभर में इस्लामी साम्राज्य के प्रसार की गौरवगाथा को भी उनके दिलोंदिमाग में ठूंस-ठूंसकर भरा जाता है। विषेष बैठकों में विष्वभर के विभिन्न देषों के मुसलमानों को प्रताड़ित और उन्हें नेस्तनाबूद करने के बारे में काफिरों द्वारा चलाए जा रहे अभियान के बारे में जमकर दुष्प्रचार किया जाता है। इस ब्रेनवाॅशिंग अभियान में इन लोगों को बार-बार इस बात का अहसास कराया जाता है कि इस्लाम की रक्षा और गौरव के लिए हर मुसलमान का यह पुनीत कत्र्तव्य है कि वह तलवार लेकर जिहाद करे। जो व्यक्ति इस पुनीत कत्र्तव्य के बारे में गफलत करता है वह पैगम्बर मोहम्मद के आदेष का उल्लंघन करता है और वह मुसलमान नहीं बल्कि काफिर है। इसके साथ ही उन्हें इस बात के लिए प्रेरित किया जाता है कि गैर-मुसलमानों को इस्लाम धर्म में दीक्षित करना उनका परम पुनीत धार्मिक कत्र्तव्य है।