पँजाब में बढ़ते कामरेडी कारकुन


ऊपर से.... सरसरी नज़र से ... देखने पर पँजाब, पंजाबी और पगड़ी नज़र आती है तो लगता है कि पँजाब धर्मोन्मुख क्षेत्र है। ज़मीनी पड़ताल करने पर ही नज़र आता है कि वामपंथियों ने एक प्रभावी जाल बुन लिया है। 1947 से पहले जितनी भी शिक्षा की व्यवस्था थी, उसमें आज जो पाकिस्तान वाला पँजाब है, वहाँ ज्यादा पढ़े लिखे लोग थे। अति पिछड़े क्षेत्रों में गिने जाने वाला मालवा व दुआबा 1947 से पहले से ही कामरेडियों के प्रभाव में था। यहाँ तक कि अकाली नेता कहलाने वाले सरदार गुरचरण सिँह टोहड़ा, प्रेम सिँह चंदूमाजरा आदि के जीवन के प्रारम्भिक वर्ष कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के रूप में गुज़रे। बीजेपी के कभी राष्ट्रीय मंत्री तक रहे हरजीत सिँह ग्रेवाल का अतीत भी नक्सलवाद से जुड़ा है। 1975 के आपातकाल के दौरान बड़े पैमाने पर USSR समर्थित कामरेड कार्यकर्ताओं की संख्या बड़ी थी। लेकिन 13 अप्रैल 1978 में निरंकारी-खालसा संघर्ष ने सिखों को पुनः सोचने पर मजबूर किया। उनके सामने यक्ष प्रश्न थे कि " सिख कौन ? कामरेडी सिख कैसे ? हमारे टयूबवेलों पर सोने वाले कामरेडी हमारे गाँव के गुरद्वारों, घरों तक पहुँच कैसे गए ?"
USSR परस्त कम्युनिस्ट पाकिस्तान, जिहाद, खालिस्तानियों के साथ खड़े नहीं हुए। लेकिन मौजूदा दौर में, चीन परस्त कम्युनिस्ट पाकिस्तान, जिहाद, आतंकवाद, खालिस्तान, खालिस्तानी सबके साथ खड़े हैं और .... प्रभावी संख्या में खड़े हैं।
कामरेडियों की कठिन मेहनत, अनुशासन, निश्चित रणनीति और शेष समाज की लम्बी नींद के चलते ऐसा हुआ। यूनिवर्सिटी कैम्पसों, रिसर्च, छात्र संगठनों, छद्म इतिहासकारों/साहित्यकारों, गायकों के माध्यम से बिना चेहरे वाले वामपंथी समर्थकों का निर्माण हुआ। 80% गुरु ग्रन्थ साहिब जी पर शोध करने वाले कामरेडी अंसर ही हैं। शोध का प्रकाशन बन गया है कामरेडी trash box ...
'शत शत नमन', 'भारत माता की जय', 'जय भोलेनाथ' वाले सनातनी या तो गहरी नींद वाले है या 'पियो दी हट्टी दी गोलक' वाले। उनकी न्यूनतम सी बेमानी जानकारी किसी काम की नहीं। कभी कभी लगता है कि जैसे मृत्यु इच्छा से ग्रस्त हैं।
दो टूक और सही बात ये है कि वामपंथी विचार से हिन्दू व हिंदुत्व विरोध पँजाब के सिख युवाओं को आकर्षित करता है। यही कारण है कि केजरीवाल जैसे नीम-कामरेडी, अराजक भी सियासी स्पेस हासिल कर पा रहे हैं। खालिस्तानियों का रिफ्रेंड्म-2020 अमरीका से चला और फेल हो गया। यानी अब पश्चिम में खालिस्तानियों का स्थान सिकुड़ रहा है। चीन परस्ती ही एकमात्र विकल्प है। इसीलिए स्थानीय बिना चेहरे वाले कामरेडी कारकुन बड़े काम के हैं।
90% पंजाबी मीडिया पर कामरेडी हावी हैं। सनातनी सिर्फ पंजाबी-हिंदी करता बर्बाद है। न उसे हिंदी आई, न पंजाबी उसने सीखी। शायद किसी ने कहा होगा- "जजमान, हिन्दू पंजाबी पढ़े-लिखे, तो नरक में जाएगा।" धार्मिक सिख गुरबाणी तक महदूद है। लेखन का, पठन का सारा स्पेस वामपंथियों के लिए खुला।
वामपंथी अश्लील गानों, शराब,सिगरेट, नशों को सियासी हथियार बना रहे हैं और पँजाब के युवाओं को पथभ्रष्ट कर रहे हैं। बाकी सभी सोए हैं। नेहरूवादी इस परिस्थिति से खुश हैं। 
धर्मी रहितवान सिखों की संख्या कम हो रही है। नितनेमी सिख कम और बहसबाज सिखों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। सीमांत क्षेत्रों के सिख परिवारों के युवा या तो कामरेडी हैं, या पाकिस्तान के पेरोल वाले टाऊट, नशे के छोटे पैडलर, डेरा परस्त। सनातनियों के बच्चे सिखों के विरोध में बोलते हैं, व्यापार करते है, धर्मी से ज्यादा पतित सिख को पसंद करते हैं, ज्यादा किसी पचड़े में नहीं पड़ते। 'मार के भज जाओ, खा के सो जाओ'।
यह कामरेडी कारकुनों का बिना चेहरे वाला वायरस बड़ी तेजी से मल्टीप्लाई हो रहा है।