सफरनामा एक लेखक का (पगडंडी टू हाईवे)




 

पुस्तक - पगडंडी टू हाईवे

लेखक - संजय कुमार अविनाश

प्रकाशक - बेस्ट बुक बड्डीज, नयी दिल्ली

पृष्ठ - 204

मूल्य - 300रूपये (हार्डबैक)

 

"मुझसे मिलना चाहो तो मेरे रूबरू आना,

मुझे जानना चाहो तो मेरी कविता में तलाशना।"

 

जी हाँ, अगर आप संजय अविनाश को जानना चाहते हैं तो उसकी तलाश में मेदनी चौकी, पत्रालय अमरपुर, जिला लखीसराय बिहार जाने की जरुरत नहीं है, अपितु गाँव गली पगडंडी से उछलता - कूदता मात्र कक्षा १२ तक विज्ञान का छात्र यह साधारण से सीधा-सादा युवक कब गाँव की सीमा से निकलकर सम्पूर्ण भारत के साहित्य जगत में छा गया, जानने समझने के लिए "अंतहीन सड़क से शुरू संजय के साहित्य सफर को नक्सली कौन की पड़ताल करते हुए, नक्सली क्षेत्रों में भटकते देखना होगा। एक ओर बड़े-बड़े नगरों में रचे बसे ए.सी. कमरों में बैठकर कुछ पूर्व प्रकाशित पुस्तकों तथा इंटरनेट पर मौजूद सामग्री को जोड़-तोड़ कर नित नया साहित्य रचते और दूसरी ओर गली, कुंचो खेतों पगडंडियों पर सत्य  तलाशते संजय जैसे जमीन से जुड़े, सत्य के पक्षधर साहित्यकार जो अपना सर्वस्व दांव पर लगाकर "कोठाई शुरुआत"का सच तलाशते हैं, जिनके कोई साहित्यक आका नहीं हैं, जो किसी खेमे से नहीं जुड़े हैं, जिनके पास पुस्तक प्रकाशन के लिए पैसा नहीं है, अगर कुछ है तो सिर्फ और सिर्फ सत्य को सामने लाने का जुनून।

 

गाँव की गलियों से निकल

पगडंडियों से दौड़ता

भूख प्यास को

धता बताता

वह युवक

दौड़ता है

साहित्य की

'अतंहीन सड़क' पर,

वह सड़क

नही है

जिसका

आदि और अन्त

और

नहीं सूझती

जिस पर दिशा

आगे बढ़ने की|

 

मगर 

हौसला है

कुछ कर गुजरने का

'नक्सली कौन'

असलियत खोजने का,

लगाकर

दांव पर

खुद का अस्तित्व|

वह

तलाशता है

कारण

'कोठाई शुरुआत' के,

जाता है

गली कूंचो मे

जहाँ

नही जाना चाहता

कोई

शरीफ आदमी

सिर्फ

और सिर्फ

सच जानने को|

 

जीता है 

वह

वर्तमान के लिये

अतीत के

धरातल पर

खड़ा रह कर

भविष्य की 

पहचान के लिये|

सोचता है

कभी कभी

'कल किसने देखा' 

मगर

हारता नही

आगे बढ़ता है

वह

इतिहास की

पहचान है लिये|

'पगडंडी टू हाईवे' का

यह यात्री

साहित्य की

खेमे बन्द 

भाई भतीजा वाद के

गढ्ढों से युक्त

अन्तहीन सड़क पर

दर्ज कराने को

अपनी उपस्थिति

इतिहास में

और 

बन जाने के लिये

तहरीर

आने वाली पीढ़ी के लिये,

साथ लेकर

भूले बिसरे पात्रों

गाँव की गलियों में खिले

गुमनाम पुष्पों की माला

जो बन सके

राह के साथी

इतिहास में

उपस्थिति दर्ज कराते

भूली बिसरी

पगडंडियों से चलकर

हाईवे पर बढ़ते

साहित्य गगन में

प्रदीप्तमान होने के लिये|


 

बात 'पगडंडी टू हाईवे' की है। इस पुस्तक में बिहार के उपेक्षित गाँवों से निकल अपनी मेहनत से खास पहचान बनाने वाले कुछ शिक्षकों-छात्रों की कहानी है, मगर इसका महत्व केवल इसे कहानी संग्रह कहकर व्यक्त नहीं किया जा सकता। सत्य तो यह है कि संजय कुमार अविनाश ने उपेक्षित से गाँवों के दस ऐसे लोगों को तलाशा जिन्होंने गरीबी, भूख-प्यास सहकर भी गाँव में शिक्षा की अलख को जगाया और स्वयं आगे बढ़ते हुए अपने गाँव को भी नयी पहचान दी। अपनी सोच और कुछ नया कर गुजरने की चाह ने संजय को गाँव से निकल संपूर्ण बिहार व पूरे देश में इन विभूतियों के बारे में जानने, उनसे व उनके रिश्तेदारों से साक्षात्कार करने के लिए यात्रा करने को भी प्रेरित किया।

कथाकार रंजन जी भागलपुर ने संजय अविनाश के बारें में लिखा था, " जो बिना रूके, बिना थके बेरोजगारी और गरीबी से त्रस्त अपने सुविधाविहीन कस्बे में साहित्य की अलख जगा दे, पढ़ने को ललक जगा दे तो ऐसे व्यक्ति को क्या कहियेगा? अविनाश ऐसा ही है- जीवन संघर्ष से उत्पन्न विपरीत स्थिति में इसने एक दीप जलाया है, जिससे आज मेदनी चौकी में उजाला है।"

सत्य कहा है रंजन जी ने। संजय कुमार अविनाश से मेरा परिचय आठ वर्ष से अधिक पुराना है। जब श्री रमेश नीलकमल जी के माध्यम से संजय का मुझसे संपर्क हुआ। अंतहीन सड़क से यात्रा का मैं भी साक्षी बना रहा। 'पगडंडी टू हाईवे' संजय की पाँचवीं कृति है।  सबसे पहली कहानी - नहीं, कहानी नहीं बल्कि जीवनी श्री लक्ष्मी नारायण सिन्हा की है। जिनका जन्म 15अगस्त 1929ई. को झपानी गाँव मुंगेर में हुआ था। तत्कालीन दौर में शिक्षा के लिए गाँव से पैदल कस्बों की यात्रा करते हुए, कक्षा आठ और उसके बाद नजदीकी शहरों में अभाव सहकर पढ़ते रहने की जज्बा लक्ष्मी नारायण को सन् 1951ई. में उच्च विद्यालय अमरपुर का शिक्षक बना देता है। हमारा पहनावा कैसा हो, इस विषय पर लक्ष्मी बाबू ने विद्यार्थियों के लिए पैंट-कमीज का विरोध किया था और उसके दुष्परिणाम भी बताये थे। कन्या शिक्षा की अलख जगाने वाले लक्ष्मी नारायण सिन्हा सन् 1987ई. में सेवानिवृत्त हुए और वर्तमान में 92वर्ष की आयु में परिवार के साथ रह रहे हैं। इनकी पढ़ाई व जीवन कितना दुरूह रहा, पुस्तक 'पगडंडी टू हाईवे' से समझ सकते हैं, जिन्होंने अपनी पढ़ाई के दौरान अपने शिक्षक के यहाँ खाना बनाया, जंगल जाकर लकड़ी इकट्ठा किये, बर्तन साफ किये और कपड़े तक धोये।

एक पात्र 'फटी जेब का सिक्का' देवकी नंदन महतो भी 1933ई. में सलारपुर गाँव में जन्मे ऐसे ही विभूति हैं, जिन्होंने सभी झंझावातों को पार कर शिक्षा को ही अपना कार्य क्षेत्र बनाया।

ऐसी ही एक कहानी सन्त सुशील झा की है। मैथिल ब्राह्मण परिवार में जन्मे सुशील झा का गाँव हुसैना दियारा गंगा तट पर स्थित है, जो प्रति वर्ष बाढ़ की विभिषिका के साक्षी है। झा जी अपने शिक्षण काल में खाली समय में भजन-कीर्तन को भी अपनाया तथा इसके होने वाले चढ़ावे को असहाय बच्चों की सहायतार्थ खर्च करने का संकल्प किया।

मेरी नजर में 'पगडंडी टू हाईवे' के सबसे सशक्त चरित्र/पात्र है कमलेश्वरी दास, जो जाति से चमार (हरिजन), पढ़ने में अव्वल, गरीबी ऐसी कि जूता पॉलिश करने का काम किया। 2रूपये रोज की मजदूरी पर काम करने वाले स्वाभिमानी, जिनका घर का नाम कटीमन भी है। जिन्होंने गरीबी-भूखमरी के बावजूद शिक्षा के क्षेत्र में अपना डंका बजाते हुए आज डिप्टी डायरेक्टर ऑफ माइन्स, रांची झारखंड में नियुक्त है।

ठीक इसी प्रकार स्व. रामचरित्र महतो, कमलकांत, मो. आफताब, सिंघेश्वर, बालेश्वर मंडल आदि भी अपने-अपने कार्य क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किया और अविनाश की नजरों से बच नहीं पाये, तथा पुस्तक में संकलित हो गये।

यूँ तो मेरी समीक्षा के केंद्र में 'पगडंडी टू हाईवे' ही रही है। परंतु, मेरी दृष्टि में इस पुस्तक के पात्रों की अपेक्षा कहानीकार का व्यक्तित्व, उसकी लेखन शैली, सत्य तक पहुँचने के लिए असाध्य श्रम और भाषा पर पकड़ का विश्लेषण महत्वपूर्ण रहा। दावे के साथ कहा जा सकता है कि 'पगडंडी टू हाईवे' के साक्षात्कार, कहानीकार संजय कुमार अविनाश का मूल्यांकन जब भी साहित्य जगत में किया जाएगा, तब पुनः पुनः बिहार की साहित्य उर्वरा भूमि से एक और रत्न की बात की जाएगी। संजय जैसे व्यक्ति कीचड़ में कमल से भी आगे बढ़ नीलकमल जैसा है- जिनकी लेखनी नित नये कीर्तिमान स्थापित कर रही है।

 

 

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